Category Archives: Hindi Movie Songs

शैलेन्द्र: मायावी जगत को अर्थ देने वाला एक बेहतरीन गीतकार

सिगरेट का कश लेते शैलेन्द्र अपने मीत राजकपूर के साथ!

सिगरेट का कश लेते शैलेन्द्र अपने मीत राजकपूर के साथ!

फ़िल्म का चलना या ना चलना एक अलग मसला होता है. मूल बात ये थी कि फ़िल्म वास्तव में कैसी बनी थी. तो तीसरी कसम वाकई अच्छी बनी थी. लेकिन ये बात जरूर है कि इस फ़िल्म ने शैलेन्द्र को ये बता दिया कि फ़िल्म जगत उन जैसे सीधे अच्छे लोगो के लिए कभी नहीं बना था. इस फ़िल्म ने उनके  करीब के लोगो के चेहरे से मुखौटे को हटा दिया. शैलेन्द्र के नजदीकी लोगो की बात पढ़िए आपको पता चलेगा कि किसी ने शैलेन्द्र के लिए मुफ्त काम नहीं किया. सब ने पैसे लिए. दूसरी बात मै इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि राजकपूर ने हीरामन के किरदार के साथ न्याय किया. वो इस वजह से कि राजकपूर जिस परिवेश में ढले थें, उनकी अरबन इंस्टिंकट्स (urban instincts)  बहुत बड़ी बाधक थी  इस किरदार की जरूरतों के साथ. ये शैलेन्द्र की सबसे  बड़ी गलती थी राजकपूर को इस रोल के लिए चुनना.

ये अलग बात थी  राजकपूर एक अच्छे अभिनेता थे. सो उन्होंने भरसक कोशिश कि अपना सर्वोत्तम देने कि लेकिन आप इतने बड़े मिसमैच को कैसे पाट सकते थे. सो आप ध्यान से देखे राजकपूर को इस फ़िल्म में आपको उनके अभिनय में नाटकीयता जरूर दिखेगी. तो मेरी नजरो में ये एक बड़ी गलती थी शैलेन्द्र कि जो राजकपूर को उन्होंने लिया. इस बात पे गौर करना आवश्यक है कि मुम्बईया सिने जगत में ग्रामीण जगत को या भारत के गाँवों को कभी भी यथार्थ स्वरूप में परदे पे लाने की कोशिश नहीं की गयी. सब में गाँव के नाम पर मसाला तत्त्व डाला गया. जैसा मिसमैच राजकपूर का तीसरी कसम में था वैसे ही नर्गिस का मदर इंडिया में था. ये अलग बात है दोनों अच्छे कलाकारों  ने जान डाला अपने अभिनय से पर वास्तविकता से तो दूर ही था ना.

तीसरी कसम: भारतीय फ़िल्म इतिहास में मील का पत्थर

तीसरी कसम: भारतीय फ़िल्म इतिहास में मील का पत्थर

खैर बात तीसरी कसम की हो रही है. तीसरी कसम और साहब बीवी और गुलाम दोनों फिल्मे साहित्यिक कृतियों पर बनी है. तीसरी कसम   फणीश्वरनाथ रेणु  की कहानी “मारे गए गुलफाम” और साहब बीवी और ग़ुलाम बिमल मित्र के  इसी नाम के उपन्यास पर बनी थी. एक तो हमारे हिंदी फ़िल्म जगत में   साहित्यिक कृतियों पर फिल्मे बनाने का चलन नहीं और बनती भी है तो मूल कृति के साथ न्याय नहीं करती. सो दोनों फिल्मो का कृति के साथ लगभग पूरा सा न्याय करना बहुत संतोष प्रदान करते है. हा मेरे जैसे जाहिल जो मूल कृति को पढ़ कर फ़िल्म देखने की भूल कर बैठते है वो ये हमेशा जानते रहते है कि पढने में  कृति के बहुत से पक्ष उभर कर आते है. परदे पर मामला बहुत सीमित हो जाता है. पर तीसरी कसम, गाइड, साहब बीवी और ग़ुलाम, परिणीता, काबुलीवाला कुछ एक ऐसी फिल्मे रही जिन्होंने मूल कृति के साथ बहुत अत्याचार नहीं किया.

चलते चलते शैलेन्द्र के बारे में कुछ कहना बहुत जरूरी है. शैलेन्द्र जैसा बेहतरीन इंसान फिल्मो की दुनिया में आने की गलती कर बैठा पर इनकी इसी गलती की वजह से हमे इतने अच्छे गीत सुनने को मिले. मेरे ये सबसे पसंदीदा गीतकार है और इनका कोई भी गीत चाहे वो “टूटे हुए ख्वाबो  नें” या “दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समा” या “तेरे मेरे सपने अब एक रंग है” आपको एक दूसरी दुनिया में ले जाता है.  पर रूहानी ख़ूबसूरती से लैस इस बेहद नाजुक मिजाज इंसान को तीसरी कसम के बनने के दौरान पैदा हुई कडुवी सच्चाइयो ने आखिरकार इनको विशाल  अजगर की तरह नील लिया. पैसा ही खुदा है या पैसा ही ईश्वर है इस दुनिया का इनके नाजुक ह्रदय पर गहरा आघात कर गया. फिर भी दुनिया शैलेन्द्र जैसे सुंदर आत्माओ की वजह से अस्तित्व में रहती है, दुनिया रहने के काबिल बनी रह पाती है. श्वेत श्याम सी जिंदगी में रंग भरने वाले   शैलेन्द्र  ( August 30, 1923 – December 14, 1966 ) को मेरी तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि.

References:

फणीश्वरनाथ रेणु 

शैलेन्द्र

बिमल मित्र  

 शैलेन्द्र 

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वर्तमान हिंदी फिल्मी गीत यूँ कि जैसे ढेला खाए कुत्ते की चीख पुकार

मुकेश: आत्मा से उठती आवाज

मुकेश: आत्मा से उठती आवाज


कल सत्ताईस अगस्त को महान गायक मुकेश और ऋषिकेश मुखर्जी  दोनों की पुण्यतिथि थी. दोनों ही उस सादगी का प्रतिनिधित्व करते है जो आजकल के दौर में लुप्तप्राय सी हो चली है. मुकेश आत्मा में डूबकर गीत गाते थे तो ऋषिकेश दा आत्मा में डूबकर फिल्मे बनाते थे. जाहिर है इन दोनों के संगम के बाद आनंद की उत्पत्ति होनी ही थी. इस गहरी सोच को जन्म लेना ही था कि जिंदगी कैसी है पहेली. जब ऐसे लोगो कि याद रखकर हम आज के दौर में नज़र डालते है तो आनंद दुःख के सागर में विलीन हो जाता है. आज के गीतों को आप सुनिए तो लगता है जैसे किसी ने कुत्ते को ईंट का ढेला खीच कर मार दिया हो. या कोई कुत्ते का गला दबा रहा हो. या सूअर के बच्चे को बोरी में बंद कर के कही ले जा रहे हो! अजीब सी ध्वनियाँ की बोर्ड और ड्रम बीट्स के मिलन से पैदा की जा रही है जिनका कोई मतलब नहीं  सिवाय इसके कि युवा कदमो को नाईट क्लब में झूमने में आसानी हो. 

आश्चर्य इस बात पर है कि ये सब तमाशा प्रयोगवाद  के नाम पर स्पांसर हो रहा है. इस में बहुत से मूढ़ लोगो को आधुनिकता का सम्मान सा होता दिख रहा है. आप इन गीतों की आलोचना कर के देखिये तो आपको समझाया जाएगा, आप के अन्दर इस बात को जबरदस्ती ठूंसा जायगा कि वक्त बदलता है और बदलते वक्त के साथ कदम मिला के चलना ही अक्लमंदी है. तो बदलते वक्त कि मेहरबानी क्या है देखे तो? ऐसी वाहियात बोल और धुन कि आप लाख सर पटक ले आप  बहुत बार सुनने के बाद भी सही सही ना समझ पायेंगे कि गीत में आखिर है क्या. पहले जहां गीत सर दर्द की दवा की आवश्यकता को कम करते थे आज इन दवाओं की बिक्री में सहायक है. एक बात तो तय है कि आज के गीत मार्केट के हिसाब से बन रहे है और मार्केट पे युवा हावी है तो गीत भी इनके टेस्ट के हिसाब से भड़भड़िया हथौड़ाछाप  हो गए है. फिर गीत मार्केट में आये नए म्यूजिक सिस्टम के हिसाब से बन रहे है. 

ऋषिकेश मुखर्जी: सादगी की अनमोल विरासत

ऋषिकेश मुखर्जी: सादगी की अनमोल विरासत

अब ये बताये जब गीत इस प्रकार से जन्म लेंगे तो इनमे आत्मा को छूने की ताकत क्या ख़ाक पैदा होगी?  इक्का दुक्का अपवाद  गिना देने से कि साहब ये देखिये फला ने कितना बढ़िया काम किया है से काम नहीं चलने वाला. ये बात सही है कि हर युग का अपना  अलग रंग ढंग होता है, एक अलग मिजाज़ होता है, अपने प्रतीक होते है इसके बावजूद भी ये साबित नहीं किया जा सकता या ये महसूस करने के बहुत कारण नहीं है कि  आज के हिंदी फिल्मी गीत उत्कृष्ट कोटि के है. भाई जस्टिफाय करने वाले तो गालीनुमा शब्दों के समूह को भी गीत साबित कर देंगे तो क्या साबित कर देने से गीत एक अच्छे गीत या सिर्फ गीत की श्रेणि में आ जाएगा? आज के गीतों को सुन के ही समझ में आ जाएगा कि गीत पूंजीवादी संस्कृति के संरक्षक है और मुंबई के मंडी में बैठे दलालनुमा दिमागों की उपज है. तो ऐसे गीतों से तौबा जिनसे दिमाग का दही बनने में जरा भी देर ना लगे.

शाम के धुंधलके में बैठे हुए  मुझे तो आनंद का ये  गीत “कहीं दूर जब दिन ढल जाए”  याद आ रहा है जो मै मुकेश और ऋषिकेश मुखर्जी को श्रद्धांजलि स्वरूप भेंट कर रहा हूँ और ये महसूस कर रहा हूँ कि हम ये कहा आ गए है.

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Suresh Wadekar: A Perfect Singer

Suresh Wadekar is one my favourite singers.  He is very talented and he is really someone who can sing a classical song with great perfection.  I can quote many songs, which bear testimony to his exceptional singing talent. Aur Is Dil Me Kya Rakha Hai (Imandar),  Meri Kismat Me Tu Nahi Shayad( Prem Rog) and Khamosh Sa Afsana (Libaas) are some of the great numbers rendered by him.

At present, I am presenting a song from movie Utsav based on two Sanskrit plays: Charudatta by Bhāsa and Mrichakatika by Śhudraka. The best thing about this song is that it produces great soothing effect, creates a perfect scenario that prevails when the sun goes down. 

Another sterling feature is that it uses pure tatsam words, which is a rarity. Hats off to Laxmikant Pyarelal and Vasant Dev for producing such gems.  Some music lovers are of the opinion that this song “ “Saanjh Dhale Gagan Tale” is based on Raga “Bibhas”.

सांझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी 
छोड़ चले नयनों को किरणों के पाखी 
पाती की जाली से झांक रही थीं कलियां 
गंध भरी गुनगुन में मगन हुई थीं कलियां 
इतने में तिमिर धंसा सपनीले नयनों में 
कलियों के आंसू का कोई नहीं साथी 
छोड़ चले नयनों को किरणों के पाखी 
सांझ ढले।। 

जुगनू का पट ओढ़े आयेगी रात अभी 
निशिगंधा के सुर में कह देगी बात सभी 
कांपता है मन जैसे डाली अंबुआ की 
छोड़ चले नयनों को किरणों के पाखी 
सांझ ढले। 

Audio Link:  Saanjh Dhale Gagan Tale

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भूख और बचपन से एक साक्षात्कार !!!

अभाव में भी मुस्कुराता बचपन !!

अभाव में भी मुस्कुराता बचपन !!

कुछ दिन पहले अपने मित्र प्रखर पाण्डेय जो ग्वालिअर में बसे एक बहुत शानदार कवि है से एक संवाद के दौरान पंकज रामेन्दू मानव जी की कुछ कवितायेँ सामने उभर कर आई. पढ़ते ही ये दो कविताये मेरे मन के बहुत अन्दर तक समा गयी. तभी सोच लिया था की इसे अपने इस वेबसाइट पर इनको जगह दूंगा ताकि ये कुछ और उर्वर दिमागों तक पहुच सके. शायद आदमी को इस कदर झकझोर कर रख देने की ताकत सिर्फ कविता में ही होती है. पंकज जी की इस अति सूक्ष्म संवेदनशीलता को सराहने के लिए शब्द कम है.

ये बताना आवश्यक है कि इसमें से पहली कविता “बचपन” जो कि एक पुरस्कृत कविता है और कवि का परिचय, जो कविता के नीचे मैंने दिया है, पहले पहल हिंदी युग्म नाम के वेबसाइट पर पर प्रकाशित हुई है. हिंदी युग्म इस वजह से विशेष साभार का अधिकारी है.

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    बचपन

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हंसता बचपन, गाता बचपन
जगता और जगाता बचपन,
धूल मिट्टी से सना हुआ
जीने के गुर सिखाता बचपन.
जोश जुनूं से भरा हुआ,
सबसे प्यार जताता बचपन।

कई और रूप हैं बचपन के
द्रवित स्वरूप हैं बचपन के
कबाड़ी बचपन, दिहाड़ी बचपन
कपड़ा सिलता बचपन, कचरा बीनता बचपन
किताब बेचता बचपन, हिसाब सीखता बचपन
हाथ फैलाता बचपन, दूत्कार खाता बचपन
पान खिलाता बचपन, चौराहे की तान सुनाता बचपन
लुटा हुआ सा बचपन, पिटा हुआ सा बचपन
दो जून की जुगाड़ में जुटा हुआ सा बचपन

बचपन रिक्शेवाला, बचपन जूतेवाला
बचपन कुल्फीवाला, बचपन होटलवाला
बचपन चने-मुरमुरेवाला, बचपन बोतलवाला
चाय बेचता बचपन, बोझा खींचता बचपन
गर्मी से लुथड़ा बचपन, सर्दी में उघड़ा बचपन
बूढ़ा बचपन बिना रीढ़ का कुबड़ा बचपन
सहमा बचपन, सिसका बचपन
पहाड़ी ज़िंदगी से बिचका बचपन

बचपन एक विवाद सा, घाव से निकले मवाद सा
बचपन एक बीमारी सा, जी जाने की लाचारी सा
बचपन थका हुआ सा, बचपन झुका हुआ सा
जीवन की पटरी पर, बचपन रुका हुआ सा

जूझता सा बचपन, टूटता सा बचपन
बिखरता सा बचपना, अखरता सा बचपन
अपने अस्तित्व को ढुंढता सा बचपन
कचरे सी ज़िंदगी में खुशिया तलाशता
हमसे कई सवाल पूछता सा बचपन ।

पंकज रामेन्दू मानव

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भूख ऐसी ही होती है

भूख की उम्र नहीं होती..जात नहीं होती..

भूख की उम्र नहीं होती..जात नहीं होती..

जब घुटने से सिकुड़ा पेट दबाया जाता है
जब मुँह खोल कर हवा को खाया जाता है
जब रातें, रात भर करवट लेती हैं
जब सुबह देर से होती है
जब चाँद में रोटी दिखती है
तब दिल में यह आवाज़ उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब गिद्ध मरने की राहें तकता है
जब कचरे में भी कुछ स्वादिष्ट दिखता है
जब कलम चलाने वाला बार-बार दाल-चावल लिखता है
जब एक वक़्त की खातिर जिगर का टुकड़ा बिकता है
जब रातें सूरज पर भारी होती हैं
तब दिल से एक आवाज़ होती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब हांडी में चम्मच घुमाने का कौशल दिखलाया जाता है
जब चूल्हे की आँच से बच्चों का दिल बहलाया जाता है
जब माँ बच्चों की कहानी सुना, फुसलाती है
जब सेहत की बातें बता ज़्यादा पानी पिलवाती है
जब रोटी की बातें ही आनंदित कर जाती हैं
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब पेट का आकार बड़ा सा लगता है
जब इंसान भगवान पर दोष मढ़ता है
जब भरी हुई थाली महबूबा लगती है
जब महबूबा सुंदर कम स्वादिष्ट ज़्यादा दिखती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

जब एक टुकड़ा ज़िंदगी पर भारी लगता है
जब तिल-तिल कर जीना लाचारी लगता है
जब बातें रास नहीं आती
जब हंसना फनकारी लगता है
जब एक निवाले पर लड़ती भौंक सुनाई देती है
तब दिल से एक हूक उठती है
भूख ऐसी ही होती है
भूख ऐसी ही होती है

पंकज रामेन्दू मानव

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कवि पंकज रामेन्दू मानवजी का परिचय:

इनका जन्म मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में २९ मई १९८० को हुआ। इनको पढ़ने का शौक बचपन से है, इनके पिताजी भी कवि हैं, इसलिए साहित्यिक गतिविधयों को इनके घर में अहमियत मिलती है। लिखने का शौक स्नातक की कक्षा में आनेपर लगा या यूँ कहिए की इन्हें आभास हुआ कि ये लिख भी सकते हैं। माइक्रोबॉयलजी में परास्नातक करने के बाद P&G में कुछ दिनों तक QA मैनेज़र के रूप में काम किया, लेकिन लेखक मन वहाँ नहीं ठहरा, तो नौकरी छोड़ी और पत्रकारिता में स्नात्तकोत्तर करने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय जा पहुँचे। डिग्री के दौरान ही ई टीवी न्यूज़ में रहे। एक साल बाद दिल्ली पहुँचे और यहाँ जनमत न्यूज़ चैनल में स्क्रिप्ट लेखक की हैसियत से काम करने लगे। वर्तमान में ‘फ़ाइनल कट स्टूडियोज’ में स्क्रिप्ट लेखक हैं और लघु फ़िल्में, डाक्यूमेंट्री तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं। कई लेख जनसत्ता, हंस, दैनिक भास्कर और भोपाल के अखबारों में प्रकाशित।

श्रोत: हिंदी युग्म

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चलते चलते गुलाल का ये गीत भी सुन ले..इसके बोलो की जितनी भी प्रसंशा की जाए कम है..जिस तूफानी और जोशीले अंदाज़ में गाया गया है ये गीत उसके तो क्या कहने. पियूष मिश्र जो की इस फिल्म के गीतकार और संगीतकार भी है बधाई के पात्र है कि इन्होने भारतीय फ़िल्म संगीत के इतिहास को इतना दुर्लभ गीत दिया. और पता है इस गीत को गाया किसने है ? खुद पियूष मिश्र ने :-)…इसके बोल यहाँ पे है.

श्रोत साभार:

हिंदी युग्म

चित्र साभार:

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Gulzar And Plagiarism: He Who Spits At Heaven, Spits In His Own Face !

Gulzar and Plagiarism: He Who Spits At Heaven, Spits In His Own Face !

Gulzar is in news again. Not for right reason this time. This brilliant poet dealing in surrealism is accused of dealing in plagiarism. Stunning and outrageous isn’t it? One of the lesser heard name from world of poetry has accused him of lifting the idea and verses from Nazım Hikmet’s, a famous Turkish poet, playwright and novelist, poem “Mera Janaza”.  Well,  it’s not a hard nut to crack to ascertain the real motive of such people who are trying to ride roughshod over his genuine achievements. They are all burning in the fire of envy.

There are two ways to attain success in literary world. Either work hard, write good pieces, or since that takes lot of energy besides needing lots of intellectual usage of brain, the easier route to fame for most of upcoming writers have been to enter into conflict with some established writer. That way you gain instant recognition. Some depressed and frustrated writers not able to gain the desired recognition try to heal themselves by painting other eminent writers into wrong colours.  It’s easy for them to give rise to vain controversies and gain quick popularity which they failed to attain via their creations.  In Indian literary landscape,   it’s commonplace to find one writer engaged in character assassination of other writer. A constant effort is made by some writers, under the aegis of fake institutions, to label the good work done by other writers as rubbish.

It’s really sad that at least, in India, it has become some sort of fashion for writers to write less and play politics more. That not only ensures them awards, cream posts in various academic institutions but also provides them a chance to be branded as successful writer! After all, what’s the point in calling Gulzar a plagiarist ?  He is an Academy Award winner for penning best song in movie ” Slumdog Millionaire”.   His poems are read across the globe for their beautiful metaphors blended with delicate lyrical construction. The free flowing loosely constructed verses not only talk about ironies of life but also direct our vision towards something beyond the normal human perceptions.  It’s ridiculous to suggest that a poet of such an evolved nature, capable of penning good poetry with such great ease, can enter in plagiarism. Why the hell would he ever do that?

The argument that there is remarkable resemblance between the two poems i.e. one penned by Gulzar, Mai Neeche Chal Ke Rahta Hun, and other penned by Nazım Hikmet, Mera Janaza, is quite laughable.  It may be that he was quiet inspired and he came to write his own version of the same feelings echoed in Mera Janaza but somehow failed to give due credit to the said poet.  However,  Gulzar has already mentioned that he always loved to read Russian writers or, for that matter, take note of great writings spread in foreign literature.

He never kept it secret that he has not read works of Russian writers. It itself is a proof that one can trace his source of inspiration!  I need to say that there are always chances that two people come to express the same views with great degree of similarity in expressions.  That’s called a rare coincidence. However,  I am ready to admit that in this case the level of similarity is of greater degree, and therefore, Gulzar should have specifically mentioned about Nazım Hikmet’s poem as footnote.

However, I raise strong objection to the efforts made by some people to make Gulzar  get branded as plagiarist. That’s only the sign of mental retardation of people making such attempts. Even the Western worlds are not above such crude attempts. Just few years back V. S. Naipaul labeled some great writer’s creations as rubbish!

I mean one can see some meaning in words of Noble Prize winner writer like Naipaul but it’s hard to understand how can writers devoid of stature can paint another writer enjoying great fame as plagiarist?  Do they have the moral courage or enough stature, attained after writing good pieces, to pass judgement on the worth of writings of their contemporary great writers?  To be honest, let those who have not attained any height stop measuring the worth of writers who have given us some excellent creations. Who has given the intellectual dwarfs to issue certificates of excellence to literary geniuses like Gulzar? Any answers?

Anyway,  listen this Gulzar’s song from movie Aandhi: Is Mode Se Jaate Hai

Gulzar and Plagiarism: He Who Spits At Heaven, Spits In His Own Face !

References:

Nazim Hikmet’s Poem/Gulzar

Gulzar

Nazim Hikmet

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Academy Award Winner Gulzar

किस्मत के खेल निराले मेरे भईय्या !!!

ravi

कहते है वक्त किसी के लिए नहीं रुकता और ना इस वक्त की परवाह करता है किसी के उपलब्धियों की. वो नियत समय पे सबको इतिहास बना के ही छोड़ता है. इधर कई महीनों से ऐसा प्रतीत हो रहा कि जैसे किसी ने इश्वर की दुनिया में किसी ने कान्ट्रेक्ट ले लिया है मृत्युलोक से सभी रचनात्मक लोगो को एक के बाद अपनी दुनिया में वापस बुलाने को. अब इसे देखिये इस खबर से पहले कि महान संगीतकार रवि अब नहीं रहे मै उन्ही के जन्मदिन पर विविध भारती पर उन पर केन्द्रित कार्यक्रम सुन रहा था जिसमे वे अपने साहिर साहेब से संबंधो पर विस्तार से चर्चा कर रहे थे. ये कितनी बड़ी बिडम्बना है कि जिनकी बात आप कुछ देर पहले सुन रहे होते है वे कुछ ही पल के बाद हमेशा के लिए खामोश हो जाते है.

रविजी का मै कद्रदान रहा हूँ. इन्होने जब भी साज छेड़ा दिल के तारो में एक कम्पन सी पैदा हो जाती थी. जो भी इनके संगीत से परचित है उसको पता होगा कि इनके संगीत में जरा सा भी पेंच नहीं था. इनकी धुनें बहुत ही सहज होती थी हर एक खूबसूरत अफ़साने की तरह. इसलिए जब भी इनका गीत बजता है आप कुछ समय के लिए इस मायावी जगत के उलझनों से ऊपर उठ जाते है. इस तरह के कुछ गुणी संगीतकारों ने कम से कम इस बात कि पुष्टि कर दी कि अच्छे संगीत के लिए एक विशाल आर्केस्ट्रा की जरूरत नहीं होती. कम साजो के इस्तमाल से भी बहुत दुर्लभ गीत बन सकते है. रविजी उस युग का प्रतिनिधित्व करते थे जिसमे संगीत अपने शुद्धतम स्तर पे मौजूद था. मतलब एक अच्छे संगीत के तत्त्वों से लोग अच्छी तरह से परिचित थे. साठ के दौर के एक खासियत ये भी थी कि अगर अच्छे संगीतकार मौजूद थे तो उस अच्छे संगीत के सापेक्ष अच्छे गीतकार भी थे. इन दोनों के बेहतरीन मिलन ने उस दौर को कभी ना मिटा पाने वाला युग बना दिया.

जरा आज देखिये क्या होता है. नाम बड़े और दर्शन छोटे. हर कोई अजीबो गरीब प्रयोग कर रहा है उन शब्दों पर जो शायद एक वर्ग ही समझ पाता है. पर गुजरे वक्त में शायद ऐसा नहीं होता था. मानवीय भावनाओं को सही सही गीतकार व्यक्त करते थें और फिर उन पर संगीतकार कितने घंटो बैठकर उसे एक अच्छी धुन में पिरोते थे. ऐसा नहीं था कि पैसे का मोल उन्हें ना पता था पर रचनात्मकता का स्तर पैसो की जरुरत से प्रभावित नहीं था. शायद यही वजह थी कि इनका संगीत वक्त के प्रवाह के शायद बहता रहा. इनकी चमक कभी धूमिल नहीं हुई. कल ही किसी शादी में मै ” ऐ मेरी जोहराजबीं” को रीमिक्स में ढला हुआ सुन रहा था. कहने के मतलब यही है कि जिन्होंने लगन और अपनी समझ को पैसो तले गिरवी नहीं रखा वे वक्त के प्रवाह से ऊपर उठ गए. ये भी मै बता दूँ रवि ही एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होंने कम से कम चालीस वर्षो तक संगीत दिया पर किसी भी युग में यह नहीं लगा कि जैसे इनका संगीत चुक गया है या ये कि ये वक्त के साथ  एडजस्ट नहीं कर पा रहे है. आप साठ के दशक में आई गुमराह का संगीत सुने और अस्सी के दौर में आई इनकी फिल्मे तवायफ, निकाह,दहलीज़ और आज की आवाज़ के गीत सुनिए आप को वही मोहकता और मादकपन मिलेंगा इनके संगीत में.

bharosa 1963

हमराज, दो बदन, गुमराह, वक्त, एक फूल दो माली, आँखें, आदमी और इंसान, भरोसा, घूंघट और चौदहवी का चाँद  जैसी क्लास्सिक फिल्मो में अद्भुत संगीत देने वाला आज हमारे बीच से चला गया. यकीन नहीं होता मुझे. खैर इनका ही रचा एक गीत है जिसने सिर्फ मुझे ही नहीं बहुतो को विपरीत समय में भी कैसे रहना है इसकी सीख देता है आज बार बार मेरे अन्दर प्रकट हो रहा है. आज मुझे फिर इस गीत ” ना मुंह छुपा के जियो और ना सर झुका के जियो” की शरण में जाना पड़ रहा है थोड़ी सी मुस्कान के लिए. इस महान आत्मा को प्रभु शान्ति प्रदान करे.

इनके कुछ गीत जो मुझे बहुत पसंद है:

१. तुम अगर साथ देने का वादा करो

२. चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों

३. तुझे सूरज कहू या चंदा

४. हम जब सिमट के आप के बाहों में

५. बहुत देर से दर पे आँखे लगी थी


६. ज़िन्दगी इत्तेफाक है

७. दिल ही दिल में ले लिया

८. एक अधूरी सी मुलाक़ात हुई थी जिनसे

९. दिल की ये आरजू थी

१०. गैरो पे करम अपनों पे सितम

gumrah_1963

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Unfolding the Magic Of K L Saigal: The Evergreen Golden Voice

Unfolding the Magic Of K L Saigal: The Evergreen Golden  Voice

There are many mysteries in the world whose real elements keep eluding us. It’s beyond human intellect to comprehend the making of such mysteries with our limited human understanding. The enchanting voice of K L Saigal which refuses to lose its appeal, having transcended many generations since it first appeared in early 30s, is one of the karishmas (miracles) nature brought in existence.  One is filled with awe and wonder on noticing that with changes in world of music coupled with changes in taste of youngsters the voice of K L Saigal keeps making its presence felt. If that’s not the case what was the need to have a spoof on K L Saigal’s voice in Delhi Belly(2011) via Chetan Shashital’s Saigal Blues?

Let’s not try to analyze the charm inherent in the voice but let’s try to feel it within. That’s the only way to realize the elements which have immortality to songs sung by K L Saigal. In my eyes, one of the greatest factors that his voice never fails to deep lasting impressions on the listeners is that these songs have been rendered in amazingly simple manner. It appears that emotions of hearts are manifesting in a rhythmic way without being influenced by the impurities existing in the mental plane. When I delve deep into the K L Saigal’s magic it becomes evidently clear that his voice was the medium to unfold our own divinity lying in latent form within us.

We are potentially divine in nature no matter what’s the level of our materialistic association. Any happening that helps us to connect with us divinity within is sure to retain its appeal and charm. That’s the case with Saigal’s songs too. These songs help us to attain meditative pose. They let us move into newer realms of thought patterns- the ones closest to divine plane. Even people who just cannot identify themselves with songs sung by K L Saigal shall be deeply influenced by his silver screen presence. Notice him on the silver screen. This tall guy with ocean like depth eyes and face wrapped in innocence appears some Gandharva ( male spirit who facilitates communication between the gods and humans) having lost his way and landed on our planet earth !

It’s time to listen some of his songs to realize that what we today listen is not music but mere cacophony of harsh voices. These songs I have been hearing since early 80s. Listen these great songs to realize that to be simple is to be divine. Hear these songs to realize that there was an age when humans knew the art from speaking straight from the heart- the rarest of rare art in our times when complexities rule the roost !

1. Madhukar Shyam Humare Chor ( Bhakta Soordas, 1942)

2. Suno Suno He Krishna Kala (Chandidas, 1934)

3. Kahe Guman Kare ( Tansen)

4. Gham Diye Mustaqil (Shahjehan, 1946)

5. Do Naina Matware (My Sister)

6. Karun Kya Aas Nirash Bhai
(Dushman, 1939)

Unfolding the Magic Of K L Saigal: The Evergreen Golden  Voice

References:

K L Saigal

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एक प्रमाण: हम आज के संगीत के दुश्मन नहीं है

Taste The Ultra Modern  Music Please !

Taste The Ultra Modern Music Please !

एक बात जो गाहे बगाहे हर उस चर्चा में थोपने की कोशिश की गयी जिसमे मैंने ये बताया कि गोल्डन एरा के गीत ही असली संगीत के श्रेणि में आते है और आज के शोर को हम संगीत नहीं कह सकते और जो ( थोपना ) सफल नहीं हुई वो ये थी कि साहब हम आज के गानों के दुश्मन है या कि आज भी बहुत अच्छा संगीत बनता है पर हम है कि इसको संज्ञान में लेते ही नहीं.. 

ऐसा नहीं है ये तो मैंने हर बार बता ही दिया पर लीजिये एक प्रमाण के रूप में आज के हिंदी फ़िल्म जगत से ( गैर फिल्मी अल्बम से नहीं) कुल पांच गीतों की लिस्ट दे रहा हूँ…जरुरी नहीं आप भी इन्हें पसंद करते हो पर मै इन्हें पसंद करता हूँ. ..मुख्यत इस बात को दर्शाने के लिए पेश कर रहा हूँ कि अगर कुछ अच्छे गीत बन रहे है तो मेरे कानो से घुसकर वो दिल में दर्ज हो जाते है.. 

१. झटक कर जुल्फ ( आरक्षण ) 



2. काश यूँ होता हर शाम साथ तू होता ( मर्डर 2) 



३. तेरी मेरी प्रेम कहानी (बाडीगार्ड)



4. दिल ये मेरा शोर करे ( काइट्स ) 

5. I want to get closer to you…( कार्तिक काल्लिंग कार्तिक) 



( सागर साहब (Sagar Nahar) कन्फुज़ियायें नहीं ये हिंदी गीत है..सुने धुन अगर कापी नहीं किसी विदेशी गीत की तो बहुत अच्छी है 🙂 ..ये सागर साहब को खास समर्पित है हिंदी गीत जो अंग्रेजी में है 🙂 ..मुझे बहुत पसंद है 🙂

Pic Credit:

Pic One

एक सार्थक संगीत चर्चा के झरोखे से: हम क्यों आज के शोर को संगीत समझे ?

भारतीय संगीत जो सुने तो दीपक जल उठे!

भारतीय संगीत जो सुने तो दीपक जल उठे!

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[ पाठको से अनुरोध है कि इस लेख को बेहतर समझने के लिए इस चर्चा को अवश्य देखे जो कि इस लेख पे हुई है श्रोता बिरादरी  पर :  की बोर्ड पे बोल फिट कर गीत रचने वाले ये आज के बेचारे संगीतकार.  इस लेख के कमेन्ट बॉक्स में चर्चा को डाल दिया गया है.  यदि उसे पढ़कर इस लेख को पढेंगे तो ज्यादा आनंद आएगा ] 

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इस बात को देख के मुझे बहुत हर्ष  हो रहा है कि जिस स्तर कि ये चर्चा हो रही है वो बहुत दुर्लभ है. दिलीपजी की जितनी भी प्रसंशा की जाए वो कम है क्योकि मुझे लगता है कि वो ना सिर्फ समस्या क्या है उसको  समझ रहे है या उसको बहुत इमानदारी से  समझने  की कोशिश कर रहे है  बल्कि नए नए तथ्यों के साथ और नए एंगल से चीजों को समझा  रहे है.   मै कुछ नयी बातें कहूँ इसके पहले जो कुछ बाते कही गयी है उनको समेटते हुए कुछ कहना चाहूँगा.  सजीव सारथी जी की  बातो को संज्ञान में लेना चाहूँगा. सजीवजी आप बेहद अनुभवी है और आपकी समझ की मै दाद देता हूँ.  आप बहुत नज़दीक से संगीत जगत में हो रहे  बदलाव को नोटिस कर रहे है.  लिहाजा आपकी बात को इग्नोर करना या फिर इसके वजन को कम करके तोलना किसी अपराध से कम नहीं और मै तो इस अपराध को करने से रहा.  बल्कि मै तो खुश हूँ इस बात से कि आपने कितने गंभीरता से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है.  मै  चूँकि किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य में व्यस्त था लिहाज़ा कमेन्ट कर नहीं पाया पर रस बहुत ले रहा था आप के, दिलीपजी,  अरुणजी और  संजयजी की बातो का.  मै कुछ बातो को अपने स्टाइल से कहूँगा जो सरसरी तौर से देखने वालो को ऊँगली करना लग सकता है पर यदि आप मनन करे तो उसके छुपे आयाम आपको नज़र आ सकते है.  कृपया सम्मानित सदस्य इसे एक हेअल्थी रेजोएँडर  (healthy rejoinder) के ही रूप में ग्रहण करे और चूँकि आप लोग बेहद काबिल है संगीत के सूक्ष्म पहलुओं  को ग्रहण करने में तो उम्मीद करता हूँ कि इन बातो को सही आँख से देखने की कोशिश करेंगे.. 

सजीवजी आपकी कुछ बातो की तरफ आपका ध्यान खीचना चाहूँगा.  एक बात तो संगीत के विविधता के सन्दर्भ में है और वो ये है कि ” उस आलेख से आप वाह वाही लूट सकते हैं पर समय के साथ हमारे संगीत में आ रही विविधताओं पर भी कुछ लिखिए “.  देखिये साहब हम बहुत युवा है इतने उम्रदराज़ नहीं हुएँ है  कि आज के बदलाव से बेखबर पुराने काल में नोस्टैल्जिया से ग्रस्त होकर भटक रहे है.  ऐसा कुछ है नहीं  और ना ही ऐसा है कि मार्क्सवादी विचारको की तरह विशुद्ध बौद्धिक बकैती करके ध्यान खीचना या वाह वाही लूटना है.  काहे कि ईश्वर की कृपा से दुनियाभर के अति सम्मानित पत्र पत्रिकाओ में, प्रतिष्ठित वेबसाइट्स पर मेरे आलेख छपे है विभिन्न विषयो पे और इतनी प्रसंशा मिली [धन नहीं 🙂 ]  कि ना अपनी प्रसंशा सुनने का मन होता है और ना सिर्फ बात कहने के खातिर बात करने का मन करता है…Enough is enough ,at least, in this regard.  मै कोई बात तभी कहता हूँ  जब लगता है कि कहना बहुत जरूरी हो गया है.  मै कोई सर्वज्ञ नहीं पर मेरी भरसक कोशिश यही रहती है कि जितने भी दृष्टिकोण या बदलाव मेरे सामने हो रहे मान लीजिये संगीत के क्षेत्र में ही उनको समझने या आत्मसात करने की पूरी कोशिश करता हूँ . यही देख लीजिये कि आप लोगो अभी  इतने सारे अनछुए पहलुओं पर इतने विस्तार से प्रकाश डाला..

पूर्व में भी मै ऐसी ही चर्चाओ में के केंद्र में रहा हूँ तो सजीवजी आप इस बात बात से बेफ्रिक रहे कि संगीत की विविधता को हाशिये में रखने पर मुझे कोई दिलचस्पी नहीं. अगर हाशिये में ही लाना होता तो कम से कम मै किसी भी चर्चा को जन्म ही ना दूँ !!  सजीवजी आपने एक बहुत अच्छा काम ये किया कि कम से कम आप बहुत सकरात्मक रूख रखते है आज जो कुछ भी अच्छा हो रहा है.  पाजिटिव रूख का मै भी बहुत प्रेमी हूँ लिहाज़ा आपके इस अप्प्रोअच की मै सराहना करता हूँ. लेकिन आप सजीवजी इस बात को थोडा सा गौर करना भूल गए कि ना मै और ना ही दिलीपजी ने कभी इस बात से इंकार किया है कि आज के युग में अच्छा काम नहीं हो रहा है या फिर के आज के यूथ की पसंद ठीक नहीं है.  आप मेरे पूर्व के कमेन्ट को एक बार फिर देखे तो आप पाएंगे कि मैंने एम एम क्रीम या शंकर एहसान लोय या सन्देश शांडिल्य की बात की है. दिलीप जी की बात को गौर करे कि उन्हें भी अच्छे योगदान की खबर है : ” Certainly there are many a songs (New) which are sensetively made, composed and appreciated.The issue here is the comparison for dedication and soulful output.” ( Dilip Kawathekar )    ..” for not condemning those who are creative even today, but those who are creating a song in a day, where there is no time to most of Music Directors for any improvisation/excellence/originality.” ( Dilip Kawathekar ).  मैंने  भी  यही  कहा  है  ” I am not against the modern music but I have full right to condemn the wrong traits exhibited by the modern musicians- the arrangers in reality.” 
 
आप सजीवजी इन बातो को इग्नोर कर गए और इसलिए आप का जोर इस तरफ ज्यादा हो गया कि आज कितने अच्छे गीत बन रहे है  सिंथेसाईज़र के नोट्स का इस्तेमाल करके या फिर आज के यूथ्स कितने प्रयोग कर रहे है.  मुद्दा ये नहीं है सजीवजी .बल्कि दिलीपजी ने इस बात को बेहतर पकड़ा है कि वाकई में मुद्दा क्या है जिसको संजयजी ने रस लेके कहा है कि ” भाई लोग आप सब अभी भी असली मर्ज समझने का प्रयास पूरी तरह नही कर पा रहे है….कि आखिर ऍसा क्यों हो रहा है….” पर मजेदार बात ये है कि संजयजी ने खुद कोई कोशिश नहीं कि है इस मर्ज़ को समझ कर कुछ कहने कि :-). सिर्फ इंगित करके इस बात को  रस ले रहे है..

बहरहाल संजयजी हम मर्ज़ को बताते है अभी. ठहरिये जरा सा.  मुद्दा ये है कि आज के गीतों में इतना सतहीपना क्यों आ गया है  गीत ना सिर्फ बेसुरे,  कानफोडू है बल्कि संगीत के साथ बलात्कार भी है.  कुछ अच्छा हो रहा है या कुछ यूथ कैसे भी हो पीछे का संगीत एन्जॉय कर रहे है , कुछ नए प्रयोग कर रहे है  ये सब ठीक है पर क्या ये पर्याप्त है कि हम आँख मूँद कर उपेक्षा कर दे जो संगीत के नाम पे शोर मच रहा है ?  ये संगीत कि ध्वनी कैसे उत्पन्न हो रही और क्या नए एफ्फेक्ट पैदा हो रहे है ये संगीत के शास्त्रीय जानकारों को भा सकता है पर जरा आम धारणा पे भी तो जाए. जिनके लिए संगीत बन  रहा है उनमे क्या सन्देश है.  हमारा क्या एक बड़ा तबका इन सतही सिंथेसाईज़र के नोट्स से उत्पन्न गीतों को अपना रहा है कि नहीं ? सीधा सा जवाब है नहीं.  दिलीपजी ने इस बात को बात को समझा है और तभी वो मूल वाद्यों के उपयोग पर बल दे रहे है.. 

इस भ्रम को ना पाले कि माडर्न बीट्स कोई बहुत लोकप्रिय है.  तकलीफ ये है कि इन्हें हमारे अन्दर ठूसा जा रहा है बदलाव के नाम पर.. संजयजी ने मर्ज को ना समझने कि बात को कह के कम से कम ये रास्ता खोल दिया कि हम पहले उस गणित को समझे जिसके चलते तहत  ए आर रहमान के एक बेहद औसत दर्जे गीत को आस्कर दे दिया गया है ? ये पूंजीवादी  संस्कृति की गहरी चाल है कि किसी भी देश कि मूल संस्कृति से काट कर उस को परोसो जो कि ग्लोबल है.  नतीजा ये हुआ कि मैनहैटन से लेकर मुंबई तक एक ही तरह का बीट्स वाला संगीत हावी हो गया. नतीजा ये हुआ कि रहमान के  औसत दर्जे के संगीत को या इनके ही समकक्ष और भी फूहड़ संगीतकारों के गीतों को जबरदस्ती ग्लोबल का नाम देके प्रमोट किया जाने लगा.  ठीक है रोजा में ठीक संगीत दिया या बॉम्बे में अच्छा संगीत दिया पर  ए आर रहमान  नब्बे के दशक के खत्म होते होते ही “मोनोटोनस” (monotonous) का  खिताब पा चुके थे और आश्चर्य है कि यही ऑस्कर कि श्रेणि में जा पहुंचे  वो भी ” जय हो ” के लिए !!!  इसका कारण आप समझने कि इमानदारी से कोशिश करेंगे तो ही समझ पायेंगे कि गीत इतने बेसुरे क्यों बन रहे है ? 

बात साफ़ है कि जहा पहले फ़िल्म संगीत के मूल में भारतीय संगीत की आत्मा बसती  थी वहा पे वेस्टर्न संगीत के तत्त्व आ गए बदलाव के नाम पे . ऐसा करने से पहले ऍम टीवी के जरिए हमारे यूथ्स को ऐसा बना दिया गया की वो बीट्स आधारित संगीत को ही असली समझे पैव्लोव के कुत्ते की तरह. पहले जहा गीत फ़िल्म के थीम को ध्यान में रखकर बनते थे. हफ्तों या महीनो लग जाते थे धुन बनाने में और फिर उतनी ही लगन से गीत में अर्थपूर्ण शव्द आते थे.. इन दोनों के बेजोड़ संस्करण से एक मधुर गीत का जन्म होता था. आज ठीक उल्टा है.. आज पहले ये देखा जाता है कि क्या बिक सकता है. कहा कहा म्यूजिक के राइट्स डिस्ट्रीबुउट  हो सकते है.  इनका आकलन करने के बात ही गीत संगीत बन पता है.  मै पूछना चाहूँगा कि क्या शंकर जयकिशन, खैय्याम या कल्यानजी आनंदजी भी इसी प्रोसेस को ध्यान में रखकर संगीत रचते थे?  क्या पूर्व में यही एक पैमाना था संगीत को रचने का ? 

सजीवजी ठीक है हम कॉन्सर्ट में जाकर मूल वाद्यों या अपनी पसंद का संगीत सुन सकते है या वो जमाना नहीं रहा कि तमाम साजिंदों को इकठ्ठा  करके सुर निकले तो क्या हम इनके आभाव में ठूसा जा रहा है उसको चुप मार के निगल ले ? कहा जाता है कि भारतीय संगीत में वो जान होती है कि रोग भाग जाते है या फिर दीपक जल उठता है और तकरीबन यही जान “हीलिंग एफ्फेक्ट” के सन्दर्भ में पुराने फिल्मी गीतों में भी होती थी. क्या आज के शोरनुमा फिल्मी गीत भी इसी “हीलिंग एफ्फेक्ट” का  दावा कर सकते है ?  वो इसलिए नहीं कर सकते क्योकि वे आपको शांति या ख़ुशी देने  के लिए नहीं वरन पैसो की झंकार से लय बनाने के लिए बने है. आपने कभी गौर किया आपने कोई अच्छी धुन की तारीफ की ये सोचकर बहुत बढ़िया बना है फिर पता चलता है अरे ये तो मूल स्पैनिश गीत की नक़ल है.  अरे ये तो फला गीत की नक़ल है इंसपिरेशन  के नाम पे.  तो ये तमाशा होता है गीत रचने के नाम पे. 

सजीवजी अच्छा अब भी हो रहा है और हो सकता है इससें किसे इंकार है.  उसकी हम भी तारीफ करते है. ये भी महसूस होता है कि सिंथेसाईज़र के नोट्स इतने प्रचलन में आ चुके है कि अतीत के गोल्डन एरा को याद करना और उसके फिर से आ जाने कि उम्मीद करना बहुत ठीक नहीं. क्योकि बदलाव फिर आखिर बदलाव है.  पर मुद्दा ये नहीं है.  मुद्दा ये है कि हम इस बदलाव को और विकृत होने से ना रोके?  वे कोशिशे करना भी बंद कर दे जिनसे कि उन तत्त्वों की वापसी की संभावना बन सके जो कभी भारतीय संगीत की जान हुआ करते थे.  एक संयमित मिलन हो पूरब का  पश्चिम से मुझे परहेज़ नहीं पर नकली को ही असली बताना इससें मुझे सख्त ऐतराज़ है.  कम से कम मै तो अपनी आपत्ति सख्त रूप से दर्ज करूंगा भले मै अकेला ही क्यों ना हूँ. 

उम्मीद करता हू की संजय वर्मा जी को अब थोडा आसानी होगी ये समझने में कि माजरा क्या है.  अंत में सजीव सारथी , दिलीप जी, अरुण सेठी जी, संजय वर्मा, प्रभु चैतन्यजी  और  मंगेश्जी  और सागर जी को विशेष धन्यवाद कि मुझे चिंतन करने का नया आधार दिया.  आशा है कि थोडा सा अंदाज़ में जो तल्खी आ जाती है इसको इग्नोर करके जो बातो का मूल सार है उसी को ध्यान में रख के आप मेरे लेख पर नज़र डालेंगे.  आप सब संगीत को परखने वाले लोग है सो किसी को कम बेसी करके आंकने का मेरा कोई इरादा नहीं और ना भविष्य में होगा.  बात संगीत से शुरू होके संगीत पे खत्म होनी चाहिए  संगीत की बेहतरी के लिए यही मेरा एकमेव लक्ष्य रहता है हर बार.  उम्मीद है आप इसको महसूस करेंगे मेरे अंदाज़ के तीखेपन से ऊपर उठकर.

  
चलते चलते इस गीत को भी सुनते चले :  चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों 

संगीतकार : रवि 
गीतकार:   साहिर 
गायक:     महेंद्र कपूर 

Pic One:  Pic one

की बोर्ड पे बोल फिट कर गीत रचने वाले ये आज के बेचारे संगीतकार!!!

शैलेन्द्र सिंह: सत्तर के रोमांटिक गीतों के एक स्तम्भ

अभी शैलेन्द्र सिंह जी का एक पुराना साक्षात्कार सुनने को मिला.  निम्मी मिश्राजी से उन्होंने इस बुधवार को टेलीफ़ोन वार्ता में विविध भारती के  ” इनसे मिलिए ” कार्यक्रम में अपनी भड़ास जम के निकाली .  उन्होंने जैसे ही पानी पी-पी के आज के संगीतकारों और उनके द्वारा रचित गीतों को कोसा मुझे जरा जरा सा कुछ याद आ गया.

उन्होंने बहुत पते की बात कही.  उन्होंने कहा कि आजकल के संगीतकार एक  संगीतकार नहीं केवल एक अर्रैन्जर है.   इन्होने कहा कि जैसे ही मुझे संगीतकार ने कहा कि भाई आप अपने वाले टुकड़े गा दो हम इसे संगीत में फिट कर देंगे.  शैलेन्द्र सिंह जी उखड गए और बोले गीत तो मै पूरा रिकॉर्ड करवाऊंगा  नहीं  तो गीत रिकार्ड नहीं होंगा.
 
वे बोले कि आज का तमाशा देखिये कि अब तो पूरा टुकड़ा तो दूर कि बात रही अब एक एक शब्द अलग रिकार्ड होता है.  अब  ऐसे में गीतों में जान क्या ख़ाक आएगी.  कहने का मतलब यही है कि दो कौड़ी की छम्मक छल्लो को जब तक चैनल वाले बजाते रहते है तब तक गीत चलता है.  और जैसे ही छम्मक छल्लो बजना बंद हुई वैसे ही वो मर गयी!  शैलेन्द्र सिंह को नमन जो इन्होने सच को सच कहा.

ये की बोर्ड पे बोल सेट करके गीत बनाने वाले क्या गीत बनायेंगे पुराने दशको वाला ?  ये सब गीत बनाते नहीं है बल्कि गीतों का उत्पादन करते है.   कहने वाले तो ये भी कहते है कि गीत लिखने वाली  मशीन का भी निर्माण हो चुक है  शायद.  कुछ शब्द डालिए और गीत तैयार.   ये बहुत संभव है आज के टेक्नोलाजी के चलते क्योकि ऐसी वेबसाइट है बहुत सारी जो आपको ऐसे ही प्रारूप पे कविताओ का निर्माण कराती है. कहने का अभिप्राय ये है आजकल गीत संगीत के नाम पर सिर्फ ट्रैक से भटके युवा लोगो ख्याल रखा जा रहा है.  इनको ही  ध्यान में रखकर गीत बनाया जा रहा है.

 

मै कोई बीते युग के मोंह में डूबकर विचरण भटकने वाला जीव नहीं हूँ पर क्या हम उन गुणी संगीतकारों के रचनाओं  की उपेक्षा कर दे जो पूरी तरह  डूब कर गीत का निर्माण करते थे ?  उस समय के गीत आज भी उतने प्रासंगिक है तो उसकी वजह यही है कि ये बड़ी लगन से संगीत के तत्त्वों में घोल कर बनाया गए हुए गीत है.  शायद यही वजह है कि या तो पुराने गीतों के रीमिक्स तैयार हो रहे है नहीं तो या फिर  ” अपनी तो जैसे तैसे  ” या “ दम मारो दम ”  जैसे पुराने लोकप्रिय गीतों को नए अंदाज़ में पेश किया जा रहा है. ये है आज की क्रेअटिविटी. अब ” आधा है चन्द्रमा रात आधी ”  (नवरंग  ) या ” जवाँ है मोहब्बत ”  (अनमोल घडी )  या फिर ” ना ये चाँद होंगा ”  (शर्त )  या “ पिया ऐसे जिया में समय गयो रे ” ( साहब बीवी और ग़ुलाम) जैसे सदाबहार दिल और दिमाग को भावविभोर कर देने वाले गीतों को बना देने की काबिलियत तो इन की बोर्ड से ध्वनी उत्पन्न करने वालो में आने से रही.

बात मै शैलेन्द्र सिंह पर ही खत्म करूँगा. इन्होने बहुत अच्छे गीत हमे दिए और इनको ऋषि कपूर की आवाज़ माना जाता रहा है.  बॉबी के गीत “मै शायर तो नहीं” से उनको जो सफलता मिली उसके बाद इन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा.   तो क्यों ना यही गीत सुने जो कि सत्तर के दशक के नौजवान अपनी प्रेमिकाओ को इम्प्रेस करने के लिए गाते थे और नब्बे के दशक के भी नौजवान यही गीत गाते थे इम्प्रेस करने के लिए बाइक पे बैठकर आइस क्रीम पार्लर की राह देखने वाली प्रेमिकाओ के लिए!!!

पिक्स क्रेडिट: पिक वन 

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