आमिर खान के वक्तव्य की असल मंशा को समझना बेहद जरूरी है! घातक प्रवित्ति की निशानी है ऐसे वक्तव्य !!
( हिन्दू आधार पे निर्भर रहने वाले इस तरह के स्टार्स को जिस दिन हिन्दू समाज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देना बंद कर देगा उस दिन के बाद से इनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहेगी. अब यही करने की जरुरत आ गयी है. आमिर खान के वक्तव्य का सही जवाब यही है. सही प्रतिरोध यही है. )
आमिर खान के वक्तव्य की गंभीरता को समझना आवश्यक है. इसकी असल थाह लेना बहुत जरूरी सा है. इस परिपेक्ष्य में नहीं कि ये आमिर खान ने कहा है बल्कि एक दूसरे सन्दर्भ में इनके वक्तव्य को परखना अति आवश्यक है. पहले ये समझना पड़ेगा कि ये असहिष्णुता पे चर्चा पूरी तरह से सुनियोजित षड़यंत्र है सरकार को अस्थिर करने की. इसमें तो कुछ देश की ही ताकते है जैसे खिसियाये हुए अलग थलग पड़ गयी राजनैतिक पार्टिया है तो दूसरी तरफ छुपी हुई विदेशी ताकते है जिनके अपने हित नहीं सधते दिखाई पड़ रहे है. सो जब कुछ नहीं मिला तो “असहिष्णुता” को ही मुद्दा बनाकर सरकार पे कीचड फेकना शुरू कर दिया. जाहिर सी बात है कि इसमें बिकी हुई मुख्यधारा की मीडिया भी शामिल है. सो असल सवाल ये बनता है कि इस प्रायोजित असहिष्णुता वाली बहस में आमिर खान को कूदने की क्या जरुरत थी? और यही से आमिर खान के वक्तव्य की असल मंशा उभर कर सामने आ जाती है!! असहिष्णुता को भी एक पंक्ति में समझते चले कि अगर दंगो का इतिहास देखे तो आजादी के बाद तो सबसे नृशंस तरीके से हत्याए कांग्रेस के शासन काल में हुई!! आश्चर्य इस बात का है कि कभी भी इनके शासन काल में असहिष्णुता पे इतना हो हल्ला नहीं मचा पर मोदी के शांतिपूर्वक एक साल पूरे होते हुए ही अचानक असहिष्णुता एक भारी मुद्दा बन गया. या बना दिया गया!!
आमिर खान के वक्तव्य की आने का समय देखिये. पेरिस में हमले के बाद दुनिया की सारी ताकते मुस्लिम आतंकवाद के वीभत्स नए चेहरे आईएस से निबटने की तैयारी में लगी है लेकिन हमारे यहाँ बहस आमिर खान के निरर्थक वक्तव्य पे केन्द्रित है. दुनिया एक तरफ बेचैन है कैसे इस्लामिक आतंकवाद से निबटा जाए पर हमारे यहाँ बिके हुए बुद्धिजीवी और प्रेस्टीटयूट स्पॉन्सर्ड असहिष्णुता पे आधारित चर्चा में सलंग्न है. कुछ दुखद घटनाए हुई जो नहीं होनी चाहिए थी पर उनसे निबटने के तरीके और भी थें पर उसको राजनैतिक स्वरूप देकर लगभग अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया. ये पूरी बहस उतनी ही सतही है जितनी ओबामा का भारत दौरे के खत्म होने के बाद अपने देश में जाकर दिया गया वक्तव्य कि भारत में वर्तमान में फैली धार्मिक असहिष्णुता देखकर महात्मा गांधी को तकलीफ होती!! यद्यपि ओबामा जब तक भारत में थें तब तक इन्हें सब सही लगा लेकिन वाशिंगटन पहुँचते ही इनके सुर बदल गए. इस वक्त तो सभी राष्ट्रों में चर्चा इस बात पे होनी चाहिए कि पेरिस में आईएस के खतरनाक हमले के बाद किस तरह हम वो व्यवस्था करे कि पहले इस तरह का हमला ना हो और दूसरे किस तरह इस्लामी आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंका जाए. लेकिन हमारे यहाँ के स्खलित बुद्धिजीवी निरर्थक चर्चा में सलंग्न है. अंग्रेजी में इसे मच अडू अबाउट नथिंग कहेंगे.
इसी वक्त हमारे सदन में संविधान के औचित्य और प्रासंगिकता पे माननीय प्रधानमन्त्री और अन्य सम्मानित सांसदों ने अपने बहुमूल्य विचार रखे. चर्चा के केंद्रबिंदु में तो इनके रखे विचार होने चाहिए थे जिसमे मोदी जी ने देश के सनातन धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि इस संस्कृति में एक ऑटो पायलट अरेंजमेंट मैकेनिज्म सरीखी व्यवस्था है जिसके तहत हमारी विरोधाभासो से भरे समाज में अच्छे लोग उभर कर भारतीय समाज को नयो दिशा दे जाते है. या ये कि भारतीय संविधान एक कानूनी दस्तावेज ही नहीं वरन एक सामजिक दास्तावेज भी है. लेकिन इन गंभीर बातो पे चर्चा के बजाये चर्चा एक निरर्थक बयान पे हो रही है. इस देश की सोच को बिकी हुई मीडिया संचालित करती है ऐसी सतही बहस को जन्म देकर.
अब आमिर खान की बात को पकड़ा जाए. फ़िल्म स्टार्स के बीच से उपजी बातो का ज्यादातर समय कुछ सार नहीं होता सिवाय इसके कि इन्हें कुछ समय तक सनसनी या सुर्खियों में रहने का कुछ समय के लिए मौक़ा मिल जाता है. आपको याद है शाहरुख़ खान का लोकसभा चुनावों के दौरान दिया गया हुआ वो वक्तव्य जब देश में एक नयी बहस रूपी हवा चली थी कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद कौन देश में रहेगा कौन नहीं जिस वक्त अभी असहिष्णुता आधारित बहस की हवा चल रही है. तब शाहरुख़ ने कहा था वे देश में नहीं रहेंगे अगर मोदीजी प्रधानमंत्री बनते है!! तो क्या उन्होंने देश छोड़ा? नहीं ना!! इसी तरह आमिर खान की पत्नी ने उनसे क्या कहा और उन्होंने क्या सोचा ये एक अत्यंत निजी मसला है जिसको तो पहले तो सामने आना नहीं चाहिए था और अगर आ ही गया तो एक इतने बड़े मुद्दे के रूप में उभरना नहीं चाहिए कि इसको लेकर मुख्यधारा की मीडिया इस पर चर्चा करे. लेकिन इस पर चर्चा यूँ हो रही है जैसे आमिर खान ने बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन कर दिया हो!! इन सतही बहसों से फायदा क्या होता है? सबसे बड़ा फायदा तो यही होता है कि गंभीर मुद्दों से ध्यान हट जाता है!! दूसरा प्रचार के भूखे या प्रचार आधारित जीवन शैली जीने वाले इन बकवास स्टार्स को अस्तित्व में आने का मौका मिल जाता है. इसका नतीजा ये होगा कि इनके आने वाली फिल्मो या शोज को अपनी जड़े ज़माने में मदद मिल जाती है.
अंत में ये बेहद गंभीर बात. इन स्टार्स का क्या इस्तेमाल कब, क्यों और कैसे ये मुख्यधारा की मीडिया करती है इस पर मनन तो होता रहेगा लेकिन समय आ गया है ये हिन्दू युवक युवतियाँ इन्हें अपना आइकॉन मानना छोड़ दे खासकर “:लव जेहाद” जैसे प्रकरण सामने आने के बाद. ये “खान” स्टार्स अपनी फूहड़ फिल्मो के साथ किसी भी सभ्य हिन्दू समाज में कोई अहमियत नहीं रखते. आपको क्या लगता है ये “खान” स्टार्स कभी देश छोड़कर जाने की सोच सकते है? कभी नहीं. क्योकि इनके जैसे वाहियात स्टार्स की दूसरे देशो के असल स्टार्स की बीच कोई ख़ास पूछ होने वाली भी नहीं!! और वैसे कहा जायेंगे? पाकिस्तान, सीरिया, इराक या सऊदी अरब? क्या इन जगहों पे ये सेफ है या नहीं ये समझना छोडिये, पहले ये समझिये कि क्या किसी भी मुल्क में अमेरिका और ब्रिटेन को शामिल करते हुए इन्हें अपने फिल्मो के चलाने वाले प्रशंसक मिलेंगे इनके फिल्मो के बकवास कंटेंट को देखते हुए? चेन्नई एक्सप्रेस, हैप्पी न्यू इयर, वांटेड या धूम ३ जैसे बकवास फिल्मे और कहा चल सकती है सिवाय भारत में!! इतना पैसा वो कहा बना सकते हैं! और ये सब हिन्दू लड़के लडकियों की मेहरबानी है कि इन जैसे बकवास स्टार्स को समर्थन देती है इनके फिल्मे देखकर. जिस दिन हिन्दू आधार इन्हें मिलना बंद हो जाएगा ये देश के बाहर रहे या भीतर ये प्राणविहीन हो जायेंगे!!
सो असल बात ये है कि खान ब्रिगेड से संचालित हर चीज़ को हिन्दू आधार मिलना बंद हो. पब्लिसिटी चाहे नकारात्मक हो या सकारात्मक आपको फायदा देती है. ये रीढ़विहीन स्टार्स अच्छी तरह जानते है. ये कही नहीं जाने वाले. ये यही रहेंगे. यहाँ ये सेफ है और आर्थिक रूप से मजबूत है. ये हिन्दू आधार लेकर पनपते है और फिर विदेशी ताकतों का शह पाकर इसी हिन्दू आधार की जड़ काटते है. गलत ये नहीं है. गलत हिन्दू लड़के और लडकिया है जो इन्हें सामजिक और आर्थिक हैसियत प्रदान करते है. हिन्दू आधार पे निर्भर रहने वाले इस तरह के स्टार्स को जिस दिन हिन्दू समाज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देना बंद कर देगा उस दिन के बाद से इनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहेगी. अब यही करने की जरुरत आ गयी है. आमिर खान के वक्तव्य का सही जवाब यही है. सही प्रतिरोध यही है.
आमिर खान: गम्भीर समस्याओ को समोसा चटनी न बनाये तो बेहतर होगा!
मुझे सत्यमेव जयते कार्यक्रम के फॉर्मेट से बेहद आपत्ति है. इस तरह के कार्यक्रम जटिल समस्यायों को सिर्फ समोसा -चटनी के सामान चटपटा बनाकर पेश करने का माध्यम बन गए है. इस से गम्भीर समस्या के और जटिल संस्करण उभर के आते है. आमिर टाइप के कलाकारो का क्या नुक्सान हुआ? कुछ नहीं: महँगी फीस बटोरो और तथाकथित जागरूक इंसान का अपने ऊपर ठप्पा लगवाकर चलते बनो और जा पहुचो देश की फिक्र करने किसी कोक-शोक की दूकान पर. ठेस और चोट उनको पहुचती है जिनकी संवेदनशीलता का भद्दा मजाक बनाकर इस तरह के कार्यक्रम सफलता के पायदान चढ़ते है. आमिर टाइप के लोग कलाकारी अगर बड़े परदे पर करे वही उनको शोभा देता है. गम्भीरता का पुतला बनने की कोशिश छोड़ दे. कम से कम आमिर टाइप के कलाकार ये कोशिश ना ही करे तो बेहतर होगा.
संवेदनशील मुद्दो की या देश की फिक्र करने के लिए इस देश में वास्तविक गम्भीर दिमागो की कोई कमी नहीं. फिर ये समझ से परे है कि दूरदर्शन जैसे सम्मानित सरकारी माध्यम क्यों इस तरह के सतही लोगो को गम्भीर मुद्दो पर विचार विमर्श करने के लिए बुलवाते है? एक बात और समझना बेहद जरूरी है: क्या गम्भीर समस्याओ को ग्लैमरस रूप देना जरूरी है? क्या यही एक सार्थक तरीका बचा है गम्भीर मुद्दो के साथ न्याय करने का? कुल मिला कर इस बात को महसूस करना बेहद जरूरी है कि अगर आप वाकई देश की फिक्र करते है तो उनका सम्मान करे जो सम्मान के योग्य है. इनको बुलाये और ये आपको बताएँगे कि किसी संवेदनशील मुद्दे पर क्या रूख रखना चाहिए. और अगर सही लोगो को बुलाकर चीज़ो को सही सन्दर्भ में समझने का धैर्य नहीं है तो कम से कम आमिर जैसे लोगो को बुलाकर गम्भीरता का मज़ाक ना बनवाये. इतना तो किया जा सकता है कि नहीं?
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प्रसार भारती विविध भारती का नाम बदल कर रफ़ी भारती या विज्ञापन भारती क्यों नहीं कर देती?
कभी कभी आप चीजों को आप ये कह के गौर नहीं करते कि चलिए हो सकता है ये महज एक इत्तेफाक हो। लेकिन आप ध्यान दे तो आप पायेंगे कि सब में एक वीभत्स पैटर्न शामिल है। कोशिश लोगो की जो इस पैटर्न को परदे के पीछे रह के चला रहे है ये यही होती है कि आपको खबर न लगने पाए मगर एक प्रेग्नेंट औरत कब तक ये झूठ बोल सकती है कि डिलीवरी जैसी कोई बात नहीं। मै खुद रफ़ी के गीतों को बहुत पसंद करता हूँ पर ये रफ़ी के नाम पर जो तमाशा विविध भारती पर हो रहा है वो दुखद है। हद हो गयी है कि किसी न किसी बहाने रफ़ी के गीतों को प्रोग्राम कोई हो आप पे थोप दिया जा रहा है। शायद विविध भारती अपने बचे खुचे श्रोताओ को भी अपने चैनल से भगाना चाहता है। सरकारी दिमाग ऐसे ही काम करते है।
बहुत पहले किसी महिला श्रोता ने सुंदर आवाज़ में पर बुलंद तरीके से अपनी शिकायत एक फरमायशी प्रोग्राम में रखी थी जो शायद इंदौर से थी कि “विविध भारती पे आप जो ये लगातार नए गीत ये कह के बजा रहे कि लोगो ने आपसे कहे है ये सब मुझे सुनियोजित लगता है क्योकि इतने बड़े पैमाने पे लगातार सिर्फ इसी टाइप के फूहड़ नए गीतों का बार बार बजना और अच्छे पुराने गीतों का बिल्कुल ही गायब हो जाना ये सिर्फ लोग ऐसा चाहते है ये ही एक वजह नहीं हो सकती।” उस की बातो से मै पूरी तरह से इत्तेफाक रखता था क्योकि मुझे भी ऐसा एहसास हो चला था। पर समयाभाव के कारण कुछ लिख नहीं पाया और बात आई गयी हो गयी। लेकिन अब लगता है कि विविध भारती ने सभ्य हदों को पार कर दिया है सो ख़ामोशी अब क्रिमिनल हो जायेगी।
पहले लगता था कि रायल्टी एक वजह हो सकती है कि सिर्फ रफ़ी ही रफ़ी विविध भारती के फलक पर उभरे लेकिन बात इससे भी आगे की है। इस वक्त संस्था में वही गणित काम कर रहा है कि जब सरकारे बदलती है तो आपके अपने ख़ास आदमी महत्त्वपूर्ण संस्थानों पर काबिज हो जाते है फिर कोई काम नहीं होता है सिर्फ वही बाते होती है जो प्रोपगंडा चाहता है। इस वक्त विविध भारती पर यही हो रहा है। और विविध भारती पर मार्केटिंग का भी भूत शामिल हो गया है उसकी एक झलक आप को इस उदहारण से मिल सकती है कि आमिर खान का इंटरव्यू प्रसारित होता है “तलाश” के रिलीज़ के वक्त। क्या सरकारी संस्थाएं ऐसे काम करती है? लेकिन विविध भारती भी इसी गंदे समीकरणों में शामिल गया ये बहुत दुखद है। क्योकि आम जनता के पास ये करीब था तो उनको सच बताने की जिम्मेदारी बनती थी या अच्छा मनोरंजन जिसमे सभी प्रतिभाशाली गीतकारो संगीतकारों, गायकों का जिक्र सामान रूप से होता पर रफ़ी नाम का ढोल पीटने का ठेका विविध भारती ने ऐसा ले लिया है कि कोई और आवाज़ उभर ही नहीं रही है।
इससें कही अच्छा काम रेडियो सीलोन पर होता है। वे अपने देश के नहीं होते हुएं भी संगीत के प्रति ईमानदार है, संवेदनशील है। कम सुने हुए गुणी संगीतकारों को हमेशा उभारते है उनका उल्लेख करके, उनके अच्छे कामो का उल्लेख करके समय से। विविध भारती पर ठीक इसका उल्टा हो रहा है। कमर्शियल सर्विसेस के नाम पर अच्छे गीतों को काट पीट कर विज्ञापन बजाये जाते है। किसी को लेख की प्रमाणिकता पर संदेह हो तो विविध भारती चैनल ट्युन करके के देख ले अगर वाहियात नए गीत नहीं बज रहे होंगे तो निश्चित ही रफ़ी का कोई गीत या विज्ञापन बज रहा होगा, मार्केटिंग चल रही होगी, कोई पुराना प्रोग्राम रिपीट हो रहा होगा। तो क्यों नहीं प्रसार भारती विविध भारती का नाम विज्ञापन भारती या रफ़ी भारती रख देती है? विविध भारती से अपने प्रेम को लेकर बेगम अख्तर की यही ग़ज़ल गूँज रही है कि “ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया”.
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गाली गलौज से भारतीयों का बड़ा याराना है, इन्हें न देने वाला चू*यम सल्फेट है!
मन दुखी हो जाता है जब मै भारतीयों को जरा जरा सी बात पे बार बार गाली गलौज करते हुए देखता हूँ। जो बात हम सभ्य तरीकें से कह सकते है उसको गालीनुमा अंदाज़ में कहने के हम आदि हो गए है। मंत्र की तरह हम इनका उच्चारण करते है। समझ में नहीं आता कि इस अंदाज़ में बात करने से क्या मिलता है। हमारी तरफ से कोई विरोध भी नहीं होता और हम सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाते है क्योकि इनको बोलना सुनना हमारी नैसर्गिक आदतों में शामिल हो गया है। जिस्म में ये हमारे लहू बन के बहती है। गाली देने का प्रचलन सिर्फ हमारे ही देश में हो ऐसा नहीं है। कुछ गालिया ग्लोबल है। इन्हें हम गर्व के साथ बोलते है और अगर अंग्रेजी में कुछ हम गालिया दे तो हम एक माडर्न आत्मा बन के उभरते है।
दिल्ली या मुंबई के सडको पर या इन बड़े शहरों के बसों या ऑटो में सफ़र कर के देखिये आपको लोग बात बात पे गरियाते मिलेंगे और ऐसे अश्लील शब्द तकिया कलाम का रूप हासिल कर चुके है। ऐसा नहीं कि ये किसी वर्ग विशेष तक शामिल है। हर तबके के लोग शामिल है जिसमे महिलाओं से लेकर स्कूली बच्चे तक शामिल है। आप कही जा रहे हो सड़क पर आराम से और अन्जाने में ही आप कुछ अनचाहा कर बैठे तो लीजिये शुरू हो गई गालीं की बौछार। इलाहाबाद जैसे शहर में भी कुछ ख़ास फर्क नहीं मेट्रो संस्कृति से अगर हम गाली गलौज के एवरग्रीन माहौल को ध्यान में रखते हुए तुलना करे तो। यहाँ भी चाहे वकील हो या कोई रिक्शेवाला आपको बड़े अदब से गरियाते हुए मिलेंगे। पता नहीं किस ज़माने से गाली गलौज करना मर्दानगी या आधुनिक होने का पर्याय हो गया।
शायद यही वजह है कि युवा वर्ग में लोकप्रिय आमिर खान को कोई संकोच नहीं होता है गाली को गीत में बदलने का। कुछ बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाल उठे फिल्मकार जैसे अनुराग कश्यप सीना ठोककर गाली के समर्थन में उतर आते है जैसे गाली दाल में नमक हो गई हो। “लोगों को एक ही तरह का सिनेमा देखने की आदत पड़ गई है. इसलिए जब वो इस तरह की हिंसा या गालियों को देखते हैं तो घबरा जाते हैं. कई बार तो वो इसलिए नहीं घबराते कि वो गालियां नहीं सुन सकते, बल्कि उन्हें ये चिंता रहती है कि दूसरों पर क्या असर पड़ेगा. मुझे लगता है खुद के लिए अगर इंसान जिम्मेदार रहे तो गालियां इतनी बुरी नहीं लगेंगी.” (अनुराग कश्यप बीबीसी से एक मुलाकात के दौरान) शेखर कपूर की फ़िल्म “बैंडिट क्वीन” में फूलन देवी के चरित्र का गाली देना बिल्कुल नहीं अखरता क्योकि उसके साथ अन्याय हुआ है पर रानी मुखर्जी जब बड़े स्टाईल से “नो वन किल्ड जेस्सिका”में गाली का इस्तेमाल करती है तो क्या सन्देश गया? यही कि महिला पत्रकार अंग्रेजी की जब गाली देती है तो वो उसके प्रोग्रेसिव और बोल्ड चरित्र की पहचान है। मर्दों को सन्देश है कि कमीनेपन में हम भी आपके समकक्ष खड़े है। पुलिसवाले जिनको गाली देने का लाइसेन्स मिला हुआ है, मै उम्मीद करता था कि महिलाओ के आगमन से कुछ माहौल बदलेगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वे वैसे ही सहज भाव से गाली देती है जैसे कोई मर्द खाकीवाला।
आप सब खुद सोचे जब आप गाली देकर किसी के आत्मा को दुखी कर रहे होते है तो आप को क्या हासिल हो रहा होता है? ये किस समाज का लक्षण है कि जहा पे आप अपने दुखो और असफलता को सही शब्दों में ना व्यक्त कर पाए और आप को सूअर,कुत्तो, गधो या महिला यौन अंगो से सुसज्जित विकृत शब्द समूह का सहारा लेना पड़े?
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डेल्ही बेल्ली एक घटिया दिमाग से उपजी गन्दी और बकवास फ़िल्म
शातिर दिमाग आमिर को ये कला अच्छी तरह आती है कि कैसे समाज में व्याप्त सड़ी गली चीजों को सजा के परोसा जाए. नकारात्मकता का सफल व्यवयसायिक उपयोग करना ये आमिर खान जैसो की ही बस की बात है. भूमंडलीकरण ने ये काम आसान कर दिया नकरात्मक चीजों को जीवन के आकर्षक तत्त्वों में प्रतिष्ठित कर के. डेल्ही बेल्ली देखा जाए तो इसी सोच की उपज है. नकारात्मकता का जीवन में सहज रूप से स्थापित हो जाना आधार है डेल्ही बेल्ली के अस्तित्व का. नब्बे के दशक से नकारात्मकता के प्रति आकर्षण का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वो डेल्ही बेल्ली में आकर लगभग पूर्णता को प्राप्त होता है. शाहरुख की बाज़ीगर ने जो इरा लेविन के उपन्यास ए किस्स बिफोर डाईंग से प्रेरित थी नकारात्मकता को एक ट्रेंड के रूप में स्थापित किया हिंदी चलचित्र जगत में. इस कहानी का नायक अपनी प्रेमिका का बेरहमी से क़त्ल करता है अपने हुए अत्याचारों का हिसाब चुकाने के लिए पर इस नए ट्रेंड के आगमन के तहत वो हमारी सहानभूति प्राप्त करने में सफल हो जाता है. जहा पहले के नायक नायिकाओ के चरित्र में चाहे अच्छा हो या बुरा एक स्पष्ट विभाज़न होता था बाज़ीगर के साथ अच्छे बुरे का विभाजन धूमिल होने के साथ नायको के चरित्र में दोगलापन आ गया. इसके बाद आने वाले नायको का मूल मंत्र हो गया सफलता किसी कीमत पर और इसके लिए मूल्यों की बलि चढ़ानी पड़े तो शौक से चढ़े. मूल्य अब प्रेरक तत्त्व नहीं विध्नकारी तत्त्व के रूप में अवतरित हुआ इन नायको में.
इन नए नायको का आदर्शवादी चरित्र से मोहभंग और नकारात्मकता से प्रेम कितना गहरा हुआ ये इसी बात से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जहा अस्सी के अंत में नायक पिता के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहता है “पापा कहते है बड़ा नाम करेगा ” यही नायक अब पिता के प्रति लगाव को ये कह कर प्रदर्शित कर रहा है ”डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी ” . भारतीय समाज में जहा बच्चे का जन्म एक शुभ और पवित्र कर्तव्य रूप में मान्यता प्राप्त है वहा पिता पुत्र को एक गलती माने ऐसा कम ही मुमकिन है. शायद ये डेल्ही बेल्ली के अन्दर दिखाए समाज में व्याप्त हो पर भारतीय समाज में अभी भी ऐसी नौबत नहीं आई है. कुछ अति उत्साही समीक्षकों का मानना है कि आज के युवको द्वारा इस प्रकार की बोल्ड स्वीकरोक्ति ये दर्शाता है कि भारतीय समाज पहले से परिपक्व हुआ है जिसकी वजह से आज के युवा कडुवे सच को जस का तस सब के सामने कहने में जरा भी नहीं हिचकिचाते. मेरी नज़र में इस तरह की शर्मनाक बेबाकी भारतीय समाज के पतन को दर्शाती है पाश्चात्य मूल्यों के प्रभाव में आकर ना कि परिपक्वता को जैसा हमारे कुछ मूढ़ समीक्षकों का मानना है. हमने पश्चिमी देशों के अच्छे मूल्यों के साथ गठबंधन करने के बजाय उनके द्वारा चालाकी से थोपे गए निम्न कोटि के आदर्शो को सब कुछ मानकर गलत हरकतों के दास बन बैठे. इसलिए रुपयों और स्त्री के पीछे भागना हमारा परम ध्येय बन गया.
मै इस बात से सख्त असहमति जताता हूँ कि मुख्यधारा में शामिल व्यवयसायिक सिनेमा जो मारधाड़ और घिनौने विचारो से भरी पड़ी है हमारे भारतीय समाज का असल आइना है. हकीकत ये है कि इस पॉपुलर सिनेमा का सब कुछ मायावी है जिसमे तथ्य कम और फतांसी ज्यादा है जिसका सिर्फ इतना सा काम है कि सिक्को की झंकार ना रुके. बॉक्स ऑफिस की ज्यादा फिक्र है इस सिनेमा को बजाय विषयवस्तु की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता की. मेलोड्रामा की प्रचुरता और एक भव्य लटके झटको से भरी स्क्रिप्ट भारतीय व्यवयसायिक सिनेमा की जान है जिसमे नायक पानी की टंकी पर दौड़ता हुआ चढ़ जाता है. अब इन जैसी फिल्मो को भारतीय समाज का आइना कहना कहा की अक्लमंदी है. इनको भारतीय समाज को समझने का माध्यम नहीं माना जा सकता और ना ही ये आदर्श माध्यम है भारतीय समाज का असली चेहरा देखने समझने का.
इस तरह की फिल्मे नकारात्मक गन्दी सोच, मूल्यों और अवधारणओ को प्रक्षेपित करने में सहायक साबित हुई है बजाय समाज को कुछ देने या समाज का असली रूप सब के सामने लाने में कारगर सिद्ध होने के. इनका मुख्य उद्देश्य केवल दर्शको का पूरा पूरा मनोरंजन करना और नोट काटना होता है. इसलिए मै डेल्ही बेल्ली के बनाने वालो के इस मिथ्या प्रचार का जोरदार विरोध करता हू कि डेल्ही बेल्ली में जो दिखाया गया है वो हमारे समाज से ही लिया गया है. इस बात को समझने के बाद कि इस तरह की फिल्मो का मुख्य ध्येय पैसा कमाना होता है इस बात में कोई दम नहीं की हम डेल्ही बेल्ली जैसी फिल्मो में दिखाई गयी विचारधाराओ को सहज रूप से स्वीकार कर ले. मुझे कहने में ये कोई संकोच नहीं कि ये हमारे समाज के सच को तो कम ऐसी घटिया फ़िल्म बनाने वालो के खोखले दिमाग में बसे शैतानी सोच को ज्यादा दिखाती है.
इस बात का भी जोर शोर से डंका पीता जाता है कि डेल्ही बेल्ली जैसी बकवास फिल्मे यथार्थवाद पर आधारित होने के कारण गन्दी और अश्लील हो गयी है. कहने का मतलब डी के बोस जैसा गीत यथार्थवादी सोच की परिचायक है. भाई वाह कितना गूढ़ यथार्थवाद है! क्या ऐसे ही अश्लील गालियों से भरे गीतों और संवादों से यथार्थवाद का सम्मान होता है ? ऐसे ही फिल्मो में यथार्थ का प्रवेश होता है? जो ऐसे यथार्थ पे लट्टू हो रहे है उन्होंने शायद ना तो यथार्थ को भोग है और ना ऐसी फिल्मो से उनका वास्ता रहा है जो की वाकई में यथार्थ का सही चित्रण करती है. ऐसे फिल्मकारों में गुरुदत्त, बिमल रॉय , गुलज़ार ,शेखर कपूर और ऋषिकेश दा के नाम उल्लेखनीय है. इन्होने यथार्थ को बहुत संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत किया नाकि आज के निर्देशकों की तरह ठूंस दी अश्लीलता और गली गलौज यथार्थ के नाम पर. इनको क्यों नही आखिर जरूरत पड़ी इस तरह के भौंडे तमाशे की अपनी फिल्मो में जिसको ये फिल्मकार आवश्यक मानते है यथार्थ के नाम पर और क्यों इन्होने ये ख्याल रखा कि सामाजिक मर्यादाओ की धज्जिया ना उड़े यथार्थ के नाम पे ? राज कपूर जरूर कुछ सीमाओ का उल्लंघन कर गए पर क्योकि उनकी फिल्मो की स्क्रिप्ट इतनी जोरदार होती थी और प्रस्तुतिकरण इतना कलात्मक कि उनका उल्लंघन करना कभी ज्यादा खला नहीं.
लेकिन राज कपूर की महानता देखिये कि कोई दबाव ना होते हुए भी बड़ी शालीनता से उन्होंने स्वीकारा कि कही ना कही अतिश्योक्ति का शिकार वे भी हुए और ये भी इन्होने बताया कि क्यों ऐसा हुआ उनसे. इसके ठीक विपरीत आचरण है आज के फिल्मकारों का जो कि उजड्डता और दर्प की मूर्ती है. ये ना अपने सतही आचरण को सही साबित करेंगे बल्कि आप पर भी दबाव डालेंगे की आप इन्हें इनके सड़े गले विचारो के साथ अपनाये. आप गुलजार को देखे. क्या इन्होने आंधी और हू तू तू में भारतीय राजनीति के विकृत स्वरूप को नहीं दिखाया है बिना किसी बकवास ट्रीटमेंट के साथ? आप ऋषिकेश दा की फिल्मे देखे और पाएंगे कि उन्होंने असल भारतीय सोच को कितनी सादगी के साथ लगभग हर फ़िल्म में दर्शाया है कि मुस्कुरा के हर मुसीबत का सामना करो और कभी भी उम्मीद ना हारो. अब आज देखिये कि आज का यथार्थवादी चरित्र गा रहा है “गोली मार भेजे में कि भेजा शोर करता है”. ये है आज के नायक का आशावादी चरित्र उस भारतीय समाज में जहा आशावाद का हर युग में सम्मान हुआ और हम ही आज इस बात को प्रचारित कर रहे है कि अवसाद जीवन का सत्य है नहीं तो भेजे को भूनने (भेजा फ्राई ) की जरुरत क्यों आन पड़ी ?
सच है कि वक्त बदल गया है. नयी टेक्नोलाजी के आगमन से एक नयी सोच और नए तौर तरीको का आगमन हुआ है. ये भी बिल्कुल सच है कि इस युग की अपनी कुछ नयी सी समस्याए है जो पहले के लोगो ने शायद नहीं देखी और इसलिए इन समस्याओ से पुराने तौर तरीको से नहीं निबटा जा सकता. इनका प्रस्तुतिकरण भी रूपहले परदे पर नए तरीको से ही संभव है मतलब नए प्रतीकों के जरिए. अब बैलगाड़ी युग के लटको झटको को बाइक युग में तो नहीं दिखा सकते ना ? पर इसकी आड़ लेकर कि युग बदल गया है क्या हम शैतानी विचारधाराओ को जो विकृत सोच का समर्थन करती है उनको अपना ले? शाहरुख़ खान की दो फिल्मो पे गौर करे डर और अंजाम और देखे कि किस तरह एक नायक दुष्टता का अवतार बन के उभरा है. इस फ़िल्म से सन्देश यही गया कि कैसे अपने स्वार्थ की खातिर आप किसी की दुनिया तबाह कर दे.
एक ऐसे ही शैतानी फ़िल्म और आई “रहना है तेरे दिल में” में और ये जान के आश्चर्य ये हुआ कि ये युवाओ की पसंदीदा फ़िल्म है. इसमें दिखाया ये गया है कि कैसे एक दिलफेंक नौजवान एक युवती को धोखे में रखकर जिसकी शादी किसी और से तय हो चुकी है उसको अपने जाल में फसा कर उससें तथाकथित सच्चा प्यार करने लगता है. इसका अंत इसके बहिष्कार के रूप में नहीं होता बल्कि ऐसे होता है कि धोखे में रखी गयी युवती से इसकी शादी हो जाती है और जिससें होने वाली होती वो अपने हक की कुर्बानी देकर महान बन जाता है. मजेदार बात देखिये चरित्र का असली नाम है माधव पर ये नाम “मैड्डी” में परवर्तित हो जाता है. जाहिर है ऐसी ओछी हरकत करने वाला “मैड्डी” ही हो सकता है माधव नहीं. इस नाम परिवर्तन से ही जाहिर है कि हर वस्तु या नाम के अपने संस्कार होते है.मैड्डी से त्याग और समपर्ण के बारे में सोचना मूर्खता ही कहलाएगी ना! बाहरी मूल्यों पे चल के आप शानदार सफलता के मालिक तो हो जायेंगे पर बहुत मुमकिन है कि यशः आपके पहुच से बाहर हो जाये.
मेरा मन तो अभी भी उसी युग में रमा है जिसमे नायक अपने बेटे के लिए ये गाता है:
तुझे सूरज कहू या चंदा तुझे दीप कहूँ ये तारा
मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा
मैंने इस ख्याल को मन में जरा भी प्रवेश नहीं करने दिया कि पुत्र भी कभी पिता के द्वारा एक गलती करार दिया जा सकता है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि हमे शाहरुखो और आमिरो का पूरी तरह से बहिष्कार करना पड़ेगा जो खेद की बात है हर दूषित विचारधारा को भारतीय समाज में थोपने के दोषी है अपने आचरण और फिल्मो के द्वारा. ये घमंड की जीती जागती शिलाए है जो ना सिर्फ अपनी उजड्डता को उचित ठहराते है बल्कि ऐसे फूहड़ तौर तरीको से उपजी सफलता में चूर होकर मौज मानते है. अब समय आ गया है कि डी के बोस का कत्ल करके उन चरित्रों को लाये जो हमारे संस्कृति में छुपे संस्कार रूपी रत्नों को दुनिया के सामने लाये ताकि आने वाले लोगो के लिए एक अच्छे आदर्शमय भविष्य की कल्पना एक सच के रूप में उभर कर आये.
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