चलो थोडा सा मुस्कुरा ले, थोडा सा जी ले! (हास्य लेख)
गंभीर लिखते लिखते मन बोझिल सा हो गया तो सोचा जरा सा मुस्कुरा ले, जरा सा आराम कर ले। पता नहीं किस कवि की पंक्तिया है पर मुझे हंसने और मुस्कुराने के लिए बाध्य कर रही है:’चलो आज बचपन का कोई खेल खेलें, बड़ी मुद्दत हुई बेवजह हंस कर नहीं देखा’। मेरी एक परम मित्र है। बड़ी दुखिया स्त्री है पर काम करने के मामले में नान स्टाप एक्सप्रेस है। लिहाजा हमेशा मेरा उससें छत्तीस का आंकड़ा रहता है काहे कि अपने स्वास्थ्य की कीमत पर काम करती है। मैंने उससें कह रखा है जब मरने लगना मुझे खबर जरूर करना तुम्हारे कब्र के ऊपर मै ये लिखवाऊंगा ” ये रही मेरी मित्र जिसने मुझ जैसे जीवंत शख्स को दो मिनट भी एक मगरूर, जिद्दी, बिगडैल हसीना की तरह एहसान जता के दिए लेकिन आफिस के घटिया वातावरण में बेजान आंकड़ो को खूब रस ले के प्रेम किया। इस महान बुद्धिमान स्त्री को मेरा नमन जिसकी मौत आफिस का काम करते करते हुईं। ईश्वर इसकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे जो “हैवन द स्वर्ग” में तो कम से कम आराम करे।”
ऐसा लिखवाने के बाद मेरी आत्मा को बहुत शान्ति मिलेगी। और उन मेरे जाहिल मित्रो से नफरत और दूरी और घनी हो जायेगी जो आफिस में सड़को पे फिरते आवारा कुत्तो की तरह इधर उधर दुम फटकारने को “आराम हराम है” सा समझते है । आफिस में दुम फटकारना बहुत बड़ा कर्मयोग है, कुत्ते कही के, ढोंगी कही के, पाखंडी है ये सब। ईश्वर के अस्तित्व को मै इसी बात से स्वीकार करता हूँ कि इस तरह के वातावरण और ढ़ोंगपने से उसने बचाया। मुझे खूब काम करना सिखाया पर उसको जताना नहीं सिखाया। अब मै अपनी बकैती बंद करता हूँ और आपको आराम तत्त्व को प्रतिपादित करती ये कविता पढवाता हूँ। मेरे जीवन दर्शन को प्रकट करती है और अपने दुखिया मित्र को तन्हाई में कोसने में मदद करती है। एक लेखक को किसी दूसरे अच्छे लेखक की बातो को फैलाना चाहिए। उसे चोरी से अपने नाम से नहीं छपवाना चाहिए। या सिर्फ अपना ही लिखा दुसरो पे नहीं थोपना चाहिए।
तो आप सब लोग गोपाल प्रसाद व्यास की इस बेहद शानदार हास्य कविता को पढ़कर मेरी तरह मुस्कुराना सीखे, मेरी तरह आराम करना सीखे।
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“आराम करो”
एक मित्र मिले, बोले, “लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।”
हम बोले, “रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में ‘राम’ छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ — है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ — सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब ‘सुख की नींद’ कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
– गोपालप्रसाद व्यास
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Gulzar And Plagiarism: He Who Spits At Heaven, Spits In His Own Face !
Gulzar is in news again. Not for right reason this time. This brilliant poet dealing in surrealism is accused of dealing in plagiarism. Stunning and outrageous isn’t it? One of the lesser heard name from world of poetry has accused him of lifting the idea and verses from Nazım Hikmet’s, a famous Turkish poet, playwright and novelist, poem “Mera Janaza”. Well, it’s not a hard nut to crack to ascertain the real motive of such people who are trying to ride roughshod over his genuine achievements. They are all burning in the fire of envy.
There are two ways to attain success in literary world. Either work hard, write good pieces, or since that takes lot of energy besides needing lots of intellectual usage of brain, the easier route to fame for most of upcoming writers have been to enter into conflict with some established writer. That way you gain instant recognition. Some depressed and frustrated writers not able to gain the desired recognition try to heal themselves by painting other eminent writers into wrong colours. It’s easy for them to give rise to vain controversies and gain quick popularity which they failed to attain via their creations. In Indian literary landscape, it’s commonplace to find one writer engaged in character assassination of other writer. A constant effort is made by some writers, under the aegis of fake institutions, to label the good work done by other writers as rubbish.
It’s really sad that at least, in India, it has become some sort of fashion for writers to write less and play politics more. That not only ensures them awards, cream posts in various academic institutions but also provides them a chance to be branded as successful writer! After all, what’s the point in calling Gulzar a plagiarist ? He is an Academy Award winner for penning best song in movie ” Slumdog Millionaire”. His poems are read across the globe for their beautiful metaphors blended with delicate lyrical construction. The free flowing loosely constructed verses not only talk about ironies of life but also direct our vision towards something beyond the normal human perceptions. It’s ridiculous to suggest that a poet of such an evolved nature, capable of penning good poetry with such great ease, can enter in plagiarism. Why the hell would he ever do that?
The argument that there is remarkable resemblance between the two poems i.e. one penned by Gulzar, Mai Neeche Chal Ke Rahta Hun, and other penned by Nazım Hikmet, Mera Janaza, is quite laughable. It may be that he was quiet inspired and he came to write his own version of the same feelings echoed in Mera Janaza but somehow failed to give due credit to the said poet. However, Gulzar has already mentioned that he always loved to read Russian writers or, for that matter, take note of great writings spread in foreign literature.
He never kept it secret that he has not read works of Russian writers. It itself is a proof that one can trace his source of inspiration! I need to say that there are always chances that two people come to express the same views with great degree of similarity in expressions. That’s called a rare coincidence. However, I am ready to admit that in this case the level of similarity is of greater degree, and therefore, Gulzar should have specifically mentioned about Nazım Hikmet’s poem as footnote.
However, I raise strong objection to the efforts made by some people to make Gulzar get branded as plagiarist. That’s only the sign of mental retardation of people making such attempts. Even the Western worlds are not above such crude attempts. Just few years back V. S. Naipaul labeled some great writer’s creations as rubbish!
I mean one can see some meaning in words of Noble Prize winner writer like Naipaul but it’s hard to understand how can writers devoid of stature can paint another writer enjoying great fame as plagiarist? Do they have the moral courage or enough stature, attained after writing good pieces, to pass judgement on the worth of writings of their contemporary great writers? To be honest, let those who have not attained any height stop measuring the worth of writers who have given us some excellent creations. Who has given the intellectual dwarfs to issue certificates of excellence to literary geniuses like Gulzar? Any answers?
Anyway, listen this Gulzar’s song from movie Aandhi: Is Mode Se Jaate Hai
References:
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हिंदी एक रुका हुआ ट्रक किसी व्यस्त रास्ते पर!
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प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा –
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
–बाबा नागार्जुन
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मुफलिसी के तन से तूने, खींची चादर लाज की…….
झोपड़ियां मिटा के कैसे, पांच सितारा हो खड़े,
गरीबी की रोटी पे तूने, रखी नजर बाज की
हरे भरे बन काट तूने, कंक्रीट के बनाये जंगल,
है खबर इक बड़ी कीमत, हमे चुकानी है इस काज की
दूसरों का पेट भरने, खेत खटता बैल बन जो,
मुद्दत से किसान की बेटी, नही देखी शक्ल प्याज की.
सारा परिवार साथ बैठ, देखता सी ग्रेड फ़िल्में,
ये कौन सी है संस्क्रती, ये कैसी बात आज की?
संध्या वन्दन भूल बैठे, भूल बैठे जोत बाती,
शोर को संगीत समझे, ना बात करें साज की………
बलशाली के पाँव पकड़ो, तलुवे चाटो नाक रगडो,
भूखे को लात मारो, ना फ़िक्र कोई मोहताज की………
बेशक पैर तले अपनों की लाश, बढ़ना लेकिन है जरूरी,
तन का हो या मन का सौदा, ना बात करो राज की…
तुलसी के अनन्य भक्त बुल्केफादर कामिल बुल्के रामकथा के मर्मज्ञ तो थे ही, तुलसी के अनन्य भक्त भी थे। वह अपनी मातृभाषा से उतना ही प्रेम करते जितना हिंदी से। जितनी उन्हें अपनी मिट्टी से लगाव था उतना ही भारत से भी। बेल्जियम से भारत आकर मृत्युपर्यंत हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि की भक्ति में रमे रहे। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने सन 1974 में पद्मभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया। फादर का जन्म एक सितंबर 1909, बेल्जियम के प:िमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले गांव में हुआ था। शिक्षा यूरोप के यूवेन विश्र्वविद्यालय से इंजीनियरिंग पास की। 1930 में संन्यासी बनने का निर्णय लिया। नवंबर 1935 में भारत, बंबई पहुंचे। वहां से रांची आ गए। गुमला जिले के इग्नासियुस स्कूल में गणित के अध्यापक बने। वहीं पर हिंदी, ब्रज व अवधी सीखी। 1938 में, सीतागढ/हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखा। 1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। 1941 में पुरोहिताभिषेक हुआ, फादर बन गए। 1945 कलकत्ता विश्र्वविद्यालय से हिंदी व संस्कृत में बीए पास किया। 1947 में इलाहाबाद विश्र्वविद्यालय से एमए किया। 1949 में डी. फिल उपाधि के लिए इलाहाबाद में ही उनके शोध रामकथा : उत्पत्ति और विकास को स्वीकृति मिली। 1950 में पुन: रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में उन्हें हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया। सन् 1950 ई. में ही बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की। इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य बने। सन् 1972 ई. से 1977 ई. तक भारत सरकार की केंद्रीय हिंदी समिति के सदस्य बने रहे। वर्ष 1973 ई. में उन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया। 17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हुई। फादर बुल्के कहते थे संस्कृत महारानी, हिंदी बहूरानी और अंग्रेजी नौकरानी है। एक विदेशी होने के बावजूद फादर ने हिंदी की सम्मान वृद्धि, इसके विकास, प्रचार-प्रसार और शोध के लिए गहन कार्य कर हिंदी के उत्थान का जो मार्ग प्रशस्त किया, और हिंदी को विश्र्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने की जो कोशिशें कीं, वह हम भारतीयों के लिये प्रेरणा विषय है।
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