विश्व फ़िल्म इतिहास की दो बेहद शानदार फिल्मे है आवारा और शोले!

 

 

आवारा : एक युवा मन के जिद और संकल्प से उपजी शानदार कृति.

आवारा : एक युवा मन के जिद और संकल्प से उपजी शानदार कृति.

भारतीय फिल्मो ने मई २०१३ में १०० वर्ष पूरे कर लिए. ये एक लम्बी अवधि होती है किसी भी मीडियम के गुण दोष को परखने के लिए. हमारी फिल्मो ने कई मंजिलो को तय किया लेकिन फिर भी गुणवत्ता की दृष्टि से इसकी रफ्तार बहुत धीमी है. हमारी अधिकांश फिल्मे एक ढर्रे पे बनती है जिनमे प्रयोगवादी फिल्मकारों के लिए बहुत कम स्पेस बचता है कुछ नया करने के लिए. ऐसा नहीं कि उल्लेखनीय काम नहीं हुआ पर इनकी संख्या कम है. आज भी आप देखे कि  सालाना  लगभग 800-900  फिल्मे बालीवूड में बनती है पर उनमे से कितनी याद रख भर पाने के लायक होती है?  इसी तरह फिल्मी संगीत भी खासकर वर्तमान समय में बेसुरें ताल में है कुछ एक अपवाद को छोड़कर. उस पर भी अगर विदेशी स्टैंडर्ड्स से गौर करे तो भारतीय फिल्मे अभी बहुत पीछे है. क्षेत्रीय भाषाओ जैसे बंगाली, मलयाली, इत्यादि में अच्छा काम हुआ लेकिन जिस तरह हिंदी फिल्मो में उतार आया वैसे इन भाषाओ की फिल्मो में भी गुणवत्ता के लिहाज सें गिरावट दर्ज की गयी. खैर इस लेख में मै आवारा और शोले इन दो फिल्मो का जिक्र करना चाहूँगा.

राजकपूर और गुरुदत्त मेरे पसंदीदा फिल्मकार रहे है. जिस संवेदनशीलता से इन्होने फिल्मे बनायीं उसकी मिसाल ढूंढ पाना मुश्किल है. राजकपूर जो कि ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए ने जब आवारा बनाने का निर्णय लिया तो वो एक बोल्ड निर्णय था. फ़िल्म की कहानी ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी थी जो प्रोग्रेसिव लेखको की जमात से आते थें. फ़िल्म का शीर्षक ही विवादित था लेकिन जिद के पक्के राजकपूर ने शीर्षक बदलने से मना कर दिया. ये यकीन कर पाना मुश्किल है कि इस कम पढ़े शख्स ने भारतीय फ़िल्म इतिहास को उसकी सबसे भव्य फिल्मे दी, सबसे बेहतरीन फिल्मे दी. राजकपूर  की ये विलक्षण निशानी थी कि फ़िल्म के हर पहलू चाहे वो गीत हो या संगीत हो या एडिटिंग हो सब पे पैनी निगाह रखते थे और जितने भी संशोधन वो करते थें वे सब फ़िल्म को नयी उंचाई दे जाते थे. आवारा भी इन्ही सब प्रयोगों से लैस थी.

इतनी कम उम्र में आवारा या आग जैसी फिल्मो का बनाना ये साबित कर देता है कि बुजुर्गो की तोहमत झेलते ये ” कल के लौंडे” ही अंत में अपवाद काम करके जाते है. ये किसी भारी भरकम इंस्टिट्यूट से नहीं निकलते बल्कि जिंदगी की पाठशाला में तप कर निकलते है और ये सिद्ध कर देते है कि “कुछ लोग जो ज्यादा जानते है वो इंसान को कम पहचानते है”. आवारा में नर्गिस के बोल्ड दृश्य थें लेकिन किसी को भी मना लेने का हुनर रखने वाले राजकपूर  ने उस दृश्य को हकीकत में बदल दिया लेकिन इस प्रक्रिया में क्रिएटिविटी के उच्चतम शिखर पे हम राजकपूर को पाते है। आवारा में भारतीय फिल्मो का पहला ड्रीम सीक्वेंस भी है. जब इस पर कई लाख रुपये खर्च करने की बात आई तो सब ने राजकपूर को सनकी कहा क्योकि पूरी फ़िल्म का बजट एक तरफ और इस ड्रीम सीक्वेंस का खर्च एक तरफ रख दे तो इतना बजट काफी होता है एक अन्य फ़िल्म के निर्माण के लिए. लेकिन राजकपूर ने ड्रीम सीक्वेंस के बजट में कोई कटौती नहीं की. आज टाइम मैगज़ीन राजकपूर के आवारा में किये गए अभिनय को 10 सर्वश्रेष्ठ अभिनय कौशल जो फ़िल्म के सुनहरे परदे पे अवतरित हुई उनमे से एक मानती है और आवारा फ़िल्म इतिहास की सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से एक है.

सन 1951 में रिलीज़ आवारा कायदे से देखा जाए तो  पहली वो फ़िल्म मानी जायेगी जिसने असल अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. चीन, सोवियत संघ, टर्की, रोमानिया, मिडिल ईस्ट और अन्य जगह ये ख़ासा लोकप्रिय रही. इसका गीत संगीत भी इतना लोकप्रिय हुआ कि  “आवारा हूँ” गीत विदेशो के उन हिस्सों में भी बजता था जहा भारतीय फिल्मो की पहुच कुछ नहीं थी. आवारा मैंने पहले पहल 1988 में देखी जब दूरदर्शन ने एक विशेष प्रसारण के तहत इन फिल्मो को दिखाया। राजकपूर जो मशहूर कपूर खानदान से होते हुए भी ने फिल्मी सफ़र की शुरुआत क्लैप बॉय से किया उस ने दिखाया कि हुनर जन्मजात ही आता है. ये किसी स्कूल की देन नहीं होती. ये फ़िल्म चाहे शंकर जयकिशन का संगीत हो, राज-नर्गिस की रूमानी केमिस्ट्री हो, शैलेन्द्र-हसरत के हृदयस्पर्शी गीत हो या राधू कर्माकर का  बेहतरीन छायांकन हो हर लिहाज़ से सर्वोत्तम थी. आवारा इस बात का प्रतीक है कि बदलाव युवा वर्ग ही लाता है अपनी सोच से और अपनी जिद से.

शोले: जिसकी आंच एवरग्रीन हो! गयी

शोले: जिसकी आंच एवरग्रीन हो! गयी!

 

शोले का भी जिक्र हो जाए. जहा आवारा बनते समय एक हलचल महसूस की गयी वही शोले के निर्माण के समय ऐसा कुछ नहीं था. बल्कि हैरान करने वाली बात ये है कि भारतीय फिल्मो के इतिहास में अनोखे आयाम जोड़ने वाली ये फ़िल्म जब प्रदर्शित हुई तो सब तरफ फीका फीका सा माहौल था. ये वो फ़िल्म थी जिसे आज विदेशी आलोचक भी मानते है कि निर्देशन, अभिनय और कैमरा वर्क के हिसाब से ये फ़िल्म बेजोड़ है. शोले की दहक को अजर अमर सरीखा बना देने वाले गब्बर सिंह का रोल पहले डैनी के हिस्से में आया था लेकिन उनके मना कर देने के बाद ये हलकी आवाज़ वाले अमजद खान के हिस्से आया. इससे बहुत से लोगो को इसके निर्माण के दौरान ये महसूस होने लगा कही ये एक वजह ना हो जाए इस फ़िल्म के ना चल पाने का . लेकिन अमजद खान ने जो संवाद अदायगी की वो इतनी बेजोड़ है कि उसके बारे में भारत का हर बच्चा भी जानता है.

आज लगभग 35 सालो बाद भी इस फ़िल्म के किरदारों का जिक्र होता है. रेडियो या टेलीविज़न खोल के देखे आपको जय-वीरू, बसंती और गब्बर के दर्शन होना तय है. मेरा रेडियो जब भी मुंह खोलता है मतलब “चालु”  होता है तो गब्बर की आवाज़ की नक़ल में कोई शख्स जरूर थोड़ी देर में कहता है ” इस घंटे का पैसा कौन दिया है रें”. यहाँ तक कि एक भारतीय बैंक के विज्ञापन में भी  “बसंती” ने ख़ासा योगदान दिया. मुझे याद आते है अपने कॉलेज के दिन. खाली वक्त में हमारे कालेज के कई प्रतिभाशाली कलाकारों से अगर कुछ परफार्म करने को कहा जाता था तो ये लगभग तय होता था कि उनमे से कोई शोले के डायलोग की मिमिक्री जरूर करेगा.  इस फ़िल्म की विलक्षण बात ये है कि इस फ़िल्म के हर किरदार ने शानदार अभिनय किया और जिसका सीधा सम्बन्ध कहानी को नया मोड़ देने सा था. इसका नतीजा ये हुआ कि एक बहुत सामान्य सा दर्शक भी अच्छी तरह याद रखता है कि किस किरदार ने किस वक्त पे क्या संवाद बोला है. सो इस फ़िल्म के मशहूर चरित्र तो लोगो ने याद रखे ही रखे लेकिन इसके गौड़ चरित्र भी उतने ही यादगार साबित हुए. अब जैसे ए के हंगल का बोल हुआ ये संवाद भी लोग बड़ी गंभीरता से याद रखते है ” इतना सन्नाटा क्यों है भाई?”  

महबूब खान दुबारा फिर ना  कभी “मदर इंडिया” जैसी कोई फ़िल्म बना पाए और ना रमेश सिप्पी “शोले” जैसी  कोई और यादगार फ़िल्म दे पाए.  कही ना कही प्रकति में चीज़े अव्यक्त भाव से छुपी रहती है और वक्त आने पे कोई ना कोई उनका माध्यम बन जाता है उनको यथार्थ के धरातल पे लाने का. कम से कम “शोले” जैसी फिल्मे इसी रहस्यमय बात की साक्षी है. शोले चाहे अपने ट्रीटमेंट में विदेशी गुणों से ओतप्रोत रही हो, संगीत भी पाश्चात्य धुनों से प्रभावित था लेकिन ये अन्तत: भारतीय परंपरा के बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाती है, पवित्र  प्रेम को दर्शाती है और मित्रता के महत्व को प्रक्षेपित करती है.

 

क्यों पूछने की हिम्मत है किसी की: अब तेरा क्या होगा कालिया :P :P :P

क्यों पूछने की हिम्मत है किसी की: अब तेरा क्या होगा कालिया 😛 😛 😛

रेफरेन्सेस:

शोले 

शोले 

आवारा 

आवारा 

पिक्स क्रेडिट:

Pic One 

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Pic Three

14 responses

  1. धन्यवाद इन पाठको को जिन्होंने तुरंत पढ़ लिया 🙂

    Bharati Bhattacharyya, Kolkata, West Bengal; Mile Sur Mera Tumhara, California, USA; Neeraj Dayal, New Delhi; Swati Kurundwadkar; Mithilesh Mishra, Secretary at Indian Society of Journalists and Authors, New Delhi; Rituparna Mudra Rakshasa, New Delhi; Dipender Kaur, Dewas, Madhya Pradesh; Sandeep Pandey, Gorakhpur, Uttar Pradesh; Yogesh Pandey, Lucknow, Uttar Pradesh; Vishal Raj, Patna, Bihar; Manoj Joshi, Udaipur, Rajasthan; Ravi Hooda, Canada; Vimal J. Soni; Nira Singhal, Aligarh, Uttar Pradesh; Nidhi Sahni,Lucknow, Uttar Pradesh; Shashikant Shukla; Urmii Dhaundhiyal; Mohammed Shahab, Ernakulum, Kerala; Rekha Pandey,Mumbai; Sumit Naithani, Noida, Uttar Pradesh; Sagar Nahar, Moderator, Shrota Biradadri, Facebook, Hyderabad, Andhra Pradesh; Sc Mudgal, New Delhi; Sunil Kumar, Jamshedpur, Jharkhand; Narayan Saraswat, Rajasthan; Mukesh Pandey, Mumbai; Himanshu B. Pandey, Siwan, Bihar; Vaibhav Mani Tripathi, Ranchi, Jharkhand; Gaurav Kabeer, Goa; Nikhil Garg, Noida, Uttar Pradesh; and Sucheta Singhal.

  2. Sucheta Singhal said:

    बहुत सुंदर समीक्षा अरविंद जी … मुझे ‘आवारा’ बहुत पसंद है ।

    Author’s Response:

    मुझे भी इस फ़िल्म से गहरा लगाव है। सोचिये उस कच्ची उम्र में मैंने इस गंभीर थीम वाली फ़िल्म को बहुत ध्यान से देखा था. राज ने जब ये फ़िल्म बनायी तो वे खासे कम उम्र के थें. लेकिन देखिये हम नौजवानों की उपेक्षा करते है पर ये अपनी लगन से कितनी शानदार कृति को जन्म देते है.

  3. Sucheta Singhal said:

    ‘शोले’ के गानों में जवानी की अल्लहड़ता जोश और उन्मुक्तता अच्छी लगती है

    … किन्तु कहानी मुझे हिन्दुओं के प्रती इस्लामी क्रूरता की याद दिलाती है इसलिये मैं इस फ़िल्म तो दोबारा न देख पाई । मैंने आज तक किसी और को यह बात कहते हुये नहीं सुना है पता नहीं ऐसा क्यों है !

    Author’s Response:

    हो सकता है आपके पुराने संस्कारो के वजह से ऐसा हो!!! वैसे फ़िल्म में हिंसा वेस्टर्न खासकर अमेरिकन टच से प्रभावित है। असल में ये फ़िल्म जिन फिल्मो से प्रभावित है वे जापानी और अमेरिकन है. उदाहरण के तौर पर Akira Kurosawa की ” Seven Samurai” और “Once Upon a Time in the West”

  4. Ajay Tyagi, Noida, Uttar Pradesh, said:

    -कितनी फिल्मों का जिक्र हुआ?// -दो का सरदार!// -सौ साल और बस दो फिल्म?// -दोनों बड़ी धासूँ हैं, सरदार!//- -देखना पड़ेगा, बरोबर देखना पडेगा….अरे ओ सांभा जरा लगा तो फोन….

    Author’s Response:

    आपको किसी ने रोका थोड़े ही ना है और फिल्मो के बारे में जिक्र करने से हमने दो फिल्मे इसलिए चुनी क्योकि एक तो यह मेरी मनपसंद फिल्मे है और दूसरा सिर्फ दो फिल्मो का जिक्र करने से आप बेहतर न्याय कर पायेंगे विषयवस्तु के साथ!

  5. @ Mile Sur Mera Tumhara, California, USA, said:

    मैंने देखी है ये मूवी पर मुझे शोले से ज्यादा अच्छी आवारा लगी … इसके सोंग वापस से सुने जब ये पोस्ट देखी ….

    Author’s Response:

    अच्छा लगा आपकी “चॉइस ” जानकर। आवारा गीत और संगीत के लिहाज से भी मील का पत्थर है। मैंने अपने लेख में ड्रीम सीक्वेंस की बात की है। देखे इस ड्रीम से जुड़ा ये बेहद शानदार गीत: घर आया मेरा परदेसी

  6. Gaurav Kabeer, Goa, said:

    १९८८ में राजकपूर जी के डेथ के बाद ही ये फिल्म दिखाई गयी थी …..सर मै पांच साल का था और उस समय बहुत से अदाकार एकाएक हमे छोड़ कर चले गए। उनमे किशोर कुमार भी शामिल थें. मुझे तब इलेक्शनस भी बहुत अच्छे लगते थें क्योकि तब काउंटिंग के टाइम पर मूवीज आती थी ….

    Author’s Response:

    मै ठीक ठीक नहीं बता पाऊंगा कि क्या यही एक वजह थी ! क्योकि मुझे याद है शायद 87 या ८८ ( साल में भ्रम है ) में गुरुदत्त और राज कपूर दोनों की फिल्मे दिखाई गयी थी। कहीं ना कही भारतीय सिनेमा से जुडा कोई और यादगार लम्हा होना चाहिए। मै भी चुनावों को इंतज़ार इसलिए ही करता था 😛

  7. Rajesh Pandey, Jalandhar, Punjab, said:

    बिल्कुल सही … आज भी लोग अजरबैजान,मास्को, इजमीर,खासकर बुजुर्ग लोग मिलते है तो राजकपूर को ही याद करते है उनका गाना आवारा हूँ गुनगुनाते है। पता नहीं क्या जादू था उनमे …

    Author’s Response:

    राजेशजी अभी बीबीसी ने जब सदी का सर्वश्रेष्ठ गीत चुनने को कहा था तो मैंने आवारा हूँ पर ही ठप्पा लगाया था. राजकपूर ने कहा भी है कि सिनेमा ही साँसों के अन्दर जाकर उनमे उन्हें जीवन देता था. राजकपूर रूसी संस्कृति से कितने प्रभावित थें ये आपको तब पता चलता है जब आप उनकी फिल्मो के गीत का प्रस्तुतीकरण देखते है। “सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी” … वे एक असल फ़िल्म मेकर थें.

  8. Shubhranshu Pandey’ Butul’, Advocate, Allahabad High Court, Allahabad, Uttar Pradesh, said:

    दो बेजोड़ फ़िल्मों के बारे में लिख कर आनन्द दे दिया. आवारा को मैने भी बस उसी समय देखा था जब की चर्चा आपने की है. शोले के किरदारों के डायलोग के साथ ही बडा़ हुआ.
    आवारा के दूरदर्शन पर आने के दौरान ही व्ही शान्ताराम के फ़िल्मों को भी दिखाया गया था. उन्ही फ़िल्मों में, दूनिया ना माने, और स्त्री भी देखी थी, कहानी और कत्थ्य के हिसाब से वो फ़िल्म अपने समय से आगे थी,नवरंग जैसी प्रयोगवादी फ़िल्म बनाने में आज के फ़िल्मकार भी चार बार सोचेंगे. हाँ ये अवश्य था कि उन फ़िल्मों के डायलोक कहने के तरीके को अब हास्य की नजरों से देखा जाता है. लेकिन वो भी एक दौर था. कम सेंसिटिव माइक के सामने हर मात्रा पर जोर दे कर बोला जाता था ताकि वो सुनाइ पडे़. कैमेरे बस फ़ोकस के आस पास की चीजों को ही सही तरीके से उतार सकते थे. जिससे अभिनेताओं के मुवमेंट पर लगाम लग जाता था. एसे में फ़िल्में बनाना एक तपस्या से कम नहीं हुआ करता था.

    अगर देखा जाये तो जापानी फ़िल्म सेवेन समुरायी के आस पास ही दो आँखे बारह हाथ आयी थी. उसकी कहानी भी कोमोबेश कैदियों के सुधारवादी आन्दोलन के अनुसार चलती है.

    राज कपूर अपने आप में एक शो मैन थे. और लगता है हीरो के लार्जर दैन लाइफ़ कान्सेप्ट भी उन्होने ही शुरु किया था. समाजवादी आन्दोलन के साथ साथ उन्होने फ़िल्मों की कहानी आगे बढाई. आवारा उसी दौर में बनी थी और जवाहर लाल ने विदेशों इस फ़िल्म की सफ़लता में योगदान दिया था. रुस और उसके अन्य साम्यवादी विचारधारा वाले देश भारत को एक भागीदार के रुप में देखते थे.

    अगर प्रयोगवादी फ़िल्मों के बारे में बात करनी है तो सुनील दत्त की यादें भी अलग किस्म की फ़िल्म थी जिसमें केवल एक कलाकार था और वो खुद सुनील दत्त थे. बाकी कलाकारों की केवल आवाजें ही थी. उसमें उनकी इन्टेंस ऎक्टिंग देख के मन खुश हो जाता है.

    भाई एक जगह ही पोस्ट किया करो. fb पर लिंक के अलग अलग होने से विचारों के आदान प्रदान में व्यवधान तो नहीं कहेंगे, लेकिन प्रवाह में निरंतरता नहीं हो पाती है.

    Author’s Response:

    इतने विस्तार से बात रखने के लिए धन्यवाद। आसान काम नहीं होता किसी के लिए किसी के पोस्ट पर टिप्पणी देना और वो भी हिंदी में. अलग अलग लिंक देने से फायदा है तभी ना दे रहा हूँ! आते है मुद्दे पर. इस बात के लिए साधुवाद कि फिल्मो से जुडी कुछ दिलचस्प बाते आपने शेयर की. सोचिये गीत कैसे बनता होगा इन विकट परिस्थितयों में और इसके बाद भी यही गीत संगीत अमर हो गया. आज हमारे पास उन्नत टेक्नोलाजी पर गीत संगीत सब फटा हुआ ढोल हो गया है. व्ही शांताराम भारतीय संस्कृति से बहुत गहरा लगाव रखते थें. कलात्मकता में ये माहिर थें. भरत व्यास ने इनके लिए शुद्ध हिंदी में बहुत अच्छे गीत लिखे है. राजकपूर मेरी नज़रो में समाजवादी से ज्यादा एक सुधारवादी थे. इसके लिए आपको “जिस देश में गंगा बहती है” और “प्रेम रोग” देखना पड़ेगा। खैर ये सच है कि वे एक असल शोमैन थें। नहीं तो कहने को सुभाष घई भी अपने को किसी शोमैन से कम नहीं समझते हा हा हा

  9. Shubhranshu Pandey’ Butul’, Advocate, Allahabad High Court, Uttar Pradesh, said:

    Gaurav Kabeer ji, जब पहली बार इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन आयी थी तो सबसे दुःख इसी बात का था कि अब फ़िल्में देखने को नहीं मिलेंगी. बाकी किया कबाडा़ इन सिफ़ोलोजिस्टों ने भी किया था…हा..हा

    Author’s Response:

    वो लम्बी लम्बी रातो में अलसाई सी आँखों से इलेक्शन बुलीटनों के बीच बीच में इन फिल्मो का देखना वो अनुभव है जिसके इम्प्रेशंस गहरे तक उतर गए है। इस नयी चितकबरी पीढ़ी जो अब आई है उसके लिए ये सब लाजवाब अनुभव को महसूस करना एक कभी ना पूरा हो पाने वाला एक हसीं सपना है..

    ***********************

    Shubhranshu Pandey’ Butul’, Advocate, Allahabad High Court, Uttar Pradesh, said:

    भाई देखने वाले भी होने चाहिये..अब तो बरबाद होने के कई रास्ते हैं …हा…हा…हा…
    उसी समय दामुल भी देखा था, दुबारा मौका नहीं मिला देखने का लेकिन उस समय तो बिल्कुल समझ में नहीं आया था…

    पार और आधारशीला को किसी तरह झेला था लेकिन अब याद नहीं है..

  10. Shubhranshu Pandey’ Butul’, Advocate, Allahabad High Court, Uttar Pradesh, said:

    राज कपूर ने धीरे धीरे अपना चोला बदला था. प्रेम रोग के बाद गंगा को मैली कर दी.
    जहाँ तक बात गाने की है तो तबला पेटी ले कर साजिंदे झाड़ियों में छिपे रहते थे. अगर गाने के बीच में कौवा बोल गया तो फ़िर से शुरु करो….मुझे एक दो बार मुम्बई में गाने की रिकार्डिंग देखने का मौका मिला है.

    अब तो किसी जुनियर के द्वारा गाये गये गाने को सुनकर सिनीयर उसे गा देता है. और सारा गाना एक साथ नहीं, लाइन दर लाइन..अगर किसी जगह सुर नहीं लगा तो केवल उस आलाप को या बाद के गूँज तक को बदल लेता है…..सब कुछ बोर्ड पर…32 ट्रैक के बोर्ड के साथ गाने के बीच से इन्स्ट्रुमेण्ट तक बदल जाता है…हद है भाई …मौलिकता रह ही नहीं पाती है…

    फ़िर सुनने को मिलता था कि फ़लाने म्युजिक डायरेक्टर ने किसी से सप्ताह तक अभ्यास कराया, अब तो आधे घण्टे में आये गाये और गये..

    Author’s Response:

    अगर गाने के बीच में कौवा बोल गया तो फ़िर से शुरु करो”

    अरे इतने सुपरफास्ट तरीके से गीत बन रहे तभी तो मन से भी सुपरफास्ट तरीके से गायब हो जा रहे है 😛 😛 और ये मत भूलिए जितने गीत बन रहे है वो भयंकर रूप से इंस्पायर्ड है 😛 मतलब सीना ठोक कर किसी विदेशी गीत को चुरा कर अपना बताया जा रहा है 😦

  11. Shubhranshu Pandey’ Butul’, Advocate, Allahabad High Court, Uttar Pradesh, said:

    भाई चुराया तो सलिल चौधरी भी किया करते थे…इतना ना मुझसे तो प्यार बढा़…मोजार्ट को कापी किया गया था…और भी हैं… सब इसे तब भी इन्सपायर्ड कहते थे और आज भी 🙂 🙂

    Author’s Response:

    बहुत फर्क है उनके इंस्पायर्ड होने में और आज के चोर संगीतकारों के इंस्पायर्ड होने में. वे मोजार्ट की धुन को लेते थें तो ये सबको पता होता था। वे कभी मौलिकता का दावा नहीं करते थें. और ये भी देखे को उन धुनों में किस तरह नए आयाम जोड़ते थें. सलिल दा मेरे सबसे प्रिय संगीतकारों में से एक है जिनके बारे में लताजी कहती थी कि इनके धुनों पे गाना बहुत मुश्किल होता था. ये अद्भुत बिछुआ गीत सुने मधुमती से और देखे इस महान संगीतकार की रेंज क्या थी

  12. Arvind Sharma, Indore, Madhya Pradesh, said:

    Bilkul sahi hai Arvindji. In dono filmo ne film making ko naye aayam diye hai. Hats off to Late team of Rajkapoorji and Ramesh Sippiji.

    Author’s Response:

    ……और इसी वजह से ये फिल्मे हमारे अन्दर घर कर गयी हमेशा के लिए ..

  13. Arvind Sharma, Indore, Madhya Pradesh, said:

    बिल्कुल ठीक है, जैसे भारतीय राजनीति के रिफरेन्स में राग दरबारी ( स्वर्गीय श्री लाल जी शुक्ल) या भारतीय इतिहास में मौर्य वंश और गुप्त वंश वैसे ही इंडियन फिल्म्स के रिफरेन्स में आवारा और शोले!!

    Author’s Response:

    बहुत सुंदर तुलना आपने किया है. सही है आप.

  14. Sanjeev Joshi, Punjab, said:

    अरविन्द जी ..आवारा मैंने भी आपके साथ 1 9 8 8 में दूरदर्शन पे देखी अच्छी थी .,लेकिन मदर इंडिया ओर मुगले आज़म क्यों छोड़ दी आपने ?

    Author’s Response:

    नहीं मैंने इस अप्प्रोच से लेख नहीं लिखा था जिस तरह से आप समझ रहे है. मैंने दो संपूर्ण फिल्मो को लिया ताकि मै विषयवस्तु पर बेहतर काम कर सकू. बहुत सी फिल्मो का लेने का मतलब होता सरसरी तौर पे बात करना।ये मै नही चाहता था. लेख तब बेवजह लम्बा हो जाता। अब देखिये ना दो फिल्मो के जिक्र मात्र से लेख के शब्द 1000 शब्द पार कर गए.

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