विश्व फ़िल्म इतिहास की दो बेहद शानदार फिल्मे है आवारा और शोले!
भारतीय फिल्मो ने मई २०१३ में १०० वर्ष पूरे कर लिए. ये एक लम्बी अवधि होती है किसी भी मीडियम के गुण दोष को परखने के लिए. हमारी फिल्मो ने कई मंजिलो को तय किया लेकिन फिर भी गुणवत्ता की दृष्टि से इसकी रफ्तार बहुत धीमी है. हमारी अधिकांश फिल्मे एक ढर्रे पे बनती है जिनमे प्रयोगवादी फिल्मकारों के लिए बहुत कम स्पेस बचता है कुछ नया करने के लिए. ऐसा नहीं कि उल्लेखनीय काम नहीं हुआ पर इनकी संख्या कम है. आज भी आप देखे कि सालाना लगभग 800-900 फिल्मे बालीवूड में बनती है पर उनमे से कितनी याद रख भर पाने के लायक होती है? इसी तरह फिल्मी संगीत भी खासकर वर्तमान समय में बेसुरें ताल में है कुछ एक अपवाद को छोड़कर. उस पर भी अगर विदेशी स्टैंडर्ड्स से गौर करे तो भारतीय फिल्मे अभी बहुत पीछे है. क्षेत्रीय भाषाओ जैसे बंगाली, मलयाली, इत्यादि में अच्छा काम हुआ लेकिन जिस तरह हिंदी फिल्मो में उतार आया वैसे इन भाषाओ की फिल्मो में भी गुणवत्ता के लिहाज सें गिरावट दर्ज की गयी. खैर इस लेख में मै आवारा और शोले इन दो फिल्मो का जिक्र करना चाहूँगा.
राजकपूर और गुरुदत्त मेरे पसंदीदा फिल्मकार रहे है. जिस संवेदनशीलता से इन्होने फिल्मे बनायीं उसकी मिसाल ढूंढ पाना मुश्किल है. राजकपूर जो कि ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाए ने जब आवारा बनाने का निर्णय लिया तो वो एक बोल्ड निर्णय था. फ़िल्म की कहानी ख्वाजा अहमद अब्बास ने लिखी थी जो प्रोग्रेसिव लेखको की जमात से आते थें. फ़िल्म का शीर्षक ही विवादित था लेकिन जिद के पक्के राजकपूर ने शीर्षक बदलने से मना कर दिया. ये यकीन कर पाना मुश्किल है कि इस कम पढ़े शख्स ने भारतीय फ़िल्म इतिहास को उसकी सबसे भव्य फिल्मे दी, सबसे बेहतरीन फिल्मे दी. राजकपूर की ये विलक्षण निशानी थी कि फ़िल्म के हर पहलू चाहे वो गीत हो या संगीत हो या एडिटिंग हो सब पे पैनी निगाह रखते थे और जितने भी संशोधन वो करते थें वे सब फ़िल्म को नयी उंचाई दे जाते थे. आवारा भी इन्ही सब प्रयोगों से लैस थी.
इतनी कम उम्र में आवारा या आग जैसी फिल्मो का बनाना ये साबित कर देता है कि बुजुर्गो की तोहमत झेलते ये ” कल के लौंडे” ही अंत में अपवाद काम करके जाते है. ये किसी भारी भरकम इंस्टिट्यूट से नहीं निकलते बल्कि जिंदगी की पाठशाला में तप कर निकलते है और ये सिद्ध कर देते है कि “कुछ लोग जो ज्यादा जानते है वो इंसान को कम पहचानते है”. आवारा में नर्गिस के बोल्ड दृश्य थें लेकिन किसी को भी मना लेने का हुनर रखने वाले राजकपूर ने उस दृश्य को हकीकत में बदल दिया लेकिन इस प्रक्रिया में क्रिएटिविटी के उच्चतम शिखर पे हम राजकपूर को पाते है। आवारा में भारतीय फिल्मो का पहला ड्रीम सीक्वेंस भी है. जब इस पर कई लाख रुपये खर्च करने की बात आई तो सब ने राजकपूर को सनकी कहा क्योकि पूरी फ़िल्म का बजट एक तरफ और इस ड्रीम सीक्वेंस का खर्च एक तरफ रख दे तो इतना बजट काफी होता है एक अन्य फ़िल्म के निर्माण के लिए. लेकिन राजकपूर ने ड्रीम सीक्वेंस के बजट में कोई कटौती नहीं की. आज टाइम मैगज़ीन राजकपूर के आवारा में किये गए अभिनय को 10 सर्वश्रेष्ठ अभिनय कौशल जो फ़िल्म के सुनहरे परदे पे अवतरित हुई उनमे से एक मानती है और आवारा फ़िल्म इतिहास की सौ सर्वश्रेष्ठ फिल्मो में से एक है.
सन 1951 में रिलीज़ आवारा कायदे से देखा जाए तो पहली वो फ़िल्म मानी जायेगी जिसने असल अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की. चीन, सोवियत संघ, टर्की, रोमानिया, मिडिल ईस्ट और अन्य जगह ये ख़ासा लोकप्रिय रही. इसका गीत संगीत भी इतना लोकप्रिय हुआ कि “आवारा हूँ” गीत विदेशो के उन हिस्सों में भी बजता था जहा भारतीय फिल्मो की पहुच कुछ नहीं थी. आवारा मैंने पहले पहल 1988 में देखी जब दूरदर्शन ने एक विशेष प्रसारण के तहत इन फिल्मो को दिखाया। राजकपूर जो मशहूर कपूर खानदान से होते हुए भी ने फिल्मी सफ़र की शुरुआत क्लैप बॉय से किया उस ने दिखाया कि हुनर जन्मजात ही आता है. ये किसी स्कूल की देन नहीं होती. ये फ़िल्म चाहे शंकर जयकिशन का संगीत हो, राज-नर्गिस की रूमानी केमिस्ट्री हो, शैलेन्द्र-हसरत के हृदयस्पर्शी गीत हो या राधू कर्माकर का बेहतरीन छायांकन हो हर लिहाज़ से सर्वोत्तम थी. आवारा इस बात का प्रतीक है कि बदलाव युवा वर्ग ही लाता है अपनी सोच से और अपनी जिद से.
शोले का भी जिक्र हो जाए. जहा आवारा बनते समय एक हलचल महसूस की गयी वही शोले के निर्माण के समय ऐसा कुछ नहीं था. बल्कि हैरान करने वाली बात ये है कि भारतीय फिल्मो के इतिहास में अनोखे आयाम जोड़ने वाली ये फ़िल्म जब प्रदर्शित हुई तो सब तरफ फीका फीका सा माहौल था. ये वो फ़िल्म थी जिसे आज विदेशी आलोचक भी मानते है कि निर्देशन, अभिनय और कैमरा वर्क के हिसाब से ये फ़िल्म बेजोड़ है. शोले की दहक को अजर अमर सरीखा बना देने वाले गब्बर सिंह का रोल पहले डैनी के हिस्से में आया था लेकिन उनके मना कर देने के बाद ये हलकी आवाज़ वाले अमजद खान के हिस्से आया. इससे बहुत से लोगो को इसके निर्माण के दौरान ये महसूस होने लगा कही ये एक वजह ना हो जाए इस फ़िल्म के ना चल पाने का . लेकिन अमजद खान ने जो संवाद अदायगी की वो इतनी बेजोड़ है कि उसके बारे में भारत का हर बच्चा भी जानता है.
आज लगभग 35 सालो बाद भी इस फ़िल्म के किरदारों का जिक्र होता है. रेडियो या टेलीविज़न खोल के देखे आपको जय-वीरू, बसंती और गब्बर के दर्शन होना तय है. मेरा रेडियो जब भी मुंह खोलता है मतलब “चालु” होता है तो गब्बर की आवाज़ की नक़ल में कोई शख्स जरूर थोड़ी देर में कहता है ” इस घंटे का पैसा कौन दिया है रें”. यहाँ तक कि एक भारतीय बैंक के विज्ञापन में भी “बसंती” ने ख़ासा योगदान दिया. मुझे याद आते है अपने कॉलेज के दिन. खाली वक्त में हमारे कालेज के कई प्रतिभाशाली कलाकारों से अगर कुछ परफार्म करने को कहा जाता था तो ये लगभग तय होता था कि उनमे से कोई शोले के डायलोग की मिमिक्री जरूर करेगा. इस फ़िल्म की विलक्षण बात ये है कि इस फ़िल्म के हर किरदार ने शानदार अभिनय किया और जिसका सीधा सम्बन्ध कहानी को नया मोड़ देने सा था. इसका नतीजा ये हुआ कि एक बहुत सामान्य सा दर्शक भी अच्छी तरह याद रखता है कि किस किरदार ने किस वक्त पे क्या संवाद बोला है. सो इस फ़िल्म के मशहूर चरित्र तो लोगो ने याद रखे ही रखे लेकिन इसके गौड़ चरित्र भी उतने ही यादगार साबित हुए. अब जैसे ए के हंगल का बोल हुआ ये संवाद भी लोग बड़ी गंभीरता से याद रखते है ” इतना सन्नाटा क्यों है भाई?”
महबूब खान दुबारा फिर ना कभी “मदर इंडिया” जैसी कोई फ़िल्म बना पाए और ना रमेश सिप्पी “शोले” जैसी कोई और यादगार फ़िल्म दे पाए. कही ना कही प्रकति में चीज़े अव्यक्त भाव से छुपी रहती है और वक्त आने पे कोई ना कोई उनका माध्यम बन जाता है उनको यथार्थ के धरातल पे लाने का. कम से कम “शोले” जैसी फिल्मे इसी रहस्यमय बात की साक्षी है. शोले चाहे अपने ट्रीटमेंट में विदेशी गुणों से ओतप्रोत रही हो, संगीत भी पाश्चात्य धुनों से प्रभावित था लेकिन ये अन्तत: भारतीय परंपरा के बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाती है, पवित्र प्रेम को दर्शाती है और मित्रता के महत्व को प्रक्षेपित करती है.
रेफरेन्सेस:
पिक्स क्रेडिट:
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