क्या भारतीय समाज में पूर्ण क्रांति या कोई सार्थक बदलाव संभव है? शायद नहीं!!
( सत्येन्द्र कुमार दूबे: बदलाव की कीमत मौत के दरवाजे तक ले गयी )
भारतीय समाज एक विचित्र समाज है! ये बदलाव तो चाहता है लेकिन ये बदलाव का हिस्सा नहीं बनना चाहती. भारतीय समाज एक ढर्रे पे चलने वाला समाज है. ये सही चीजों का हिमायती तो है लेकिन बहुमत फिर भी सार्थक बदलाव के प्रति उदासीनता, आलस और निराशा से भरा है. इसीलिए जयप्रकाश नारायण या वर्तमान में अन्ना हजारे जैसे लोग समाज को झकझोर तो सकते है लेकिन एक सार्थक मूवमेंट को जन्म नहीं दे सकते, लोगो को वैचारिक रूप से उन्नत नहीं कर सकते. गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन को गति जरूर प्रदान की लेकिन उसके मूल मे भारत को आज़ाद कराने का संकल्प था, भारतीय समाज के सोचने के तौर तरीके या उसकी कार्यशैली में बदलाव इसके मूल में नहीं था! शायद यही वजह है कि नेहरु के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के किस्से उभर आये. ये भी उल्लेखनीय है कि गांधी और नारायण जी के आन्दोलन दोनों युवा वर्ग के जोश पे ही आगे बढे लेकिन अंत में या दूरगामी परिणाम “किस्सा कुर्सी का” ही रहा.
ये भारतीय समाज ही है कि आधुनिक काल में भी सरकारी महकमे बनाम प्राइवेट का महत्त्व हावी रहता है. सरकारी चपरासी आपका होनहार दामाद हो सकता है लेकिन एक निपुण कारीगर नहीं!! ये भारतीय समाज ही है जो लड़की की शादी की चिंता से व्यथित रहता है लेकिन दहेज़ के कानून होने के बावजूद हर आदमी शादी में धूमधाम, दहेज़ के लेन देन का सबसे बड़ा उपक्रम करता है सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि समाज क्या कहेगा, लोग क्या कहेंगे! ये भारतीय समाज ही है जो अब भी पद की प्रतिष्ठा देखता है, उपरी कमाई देखता है, कलम या कुर्सी कितना फायदा पंहुचा सकती है ये सब देखता है. यही आपके वजूद के मूल्यांकन का पैमाना है और यही पैमाना रहेगा इस भारतीय समाज में. आपकी अच्छाई का कोई मोल नहीं अगर आदमी बिकाऊ नहीं है. इसे आप भौतिकता का तकाज़ा कह ले या फिर उपयोगितावाद का चरम कह ले. साधू संतो से भी मिलते है तो ये भारतीय समाज की दृष्टि है कि वो आश्रम की भव्यता से प्रभावित होता है. वहा की सादगी और दिव्यता असर ही नहीं डालती. ये भारतीय समाज ही है कि फूहड़ क्रिएटिविटी प्रचार का सहारा पाकर ( लेटेस्ट उदाहरण “दिलवाले” का राष्ट्रीय अखबारों में पहले पेज पर फुल साइज़ विज्ञापन देखे ) सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मे बनती है पर वही अच्छी फिल्मो के लिए मल्टीप्लेक्स कल्चर में कोई जगह नहीं!! ना ये फिल्मे रिलीज़ होती है. रिलीज़ होती है तो चलती नहीं, बोरिंग और बकवास कह कर खारिज कर दी जाती है!! इनके कलाकार गुमनामी के अँधेरे में दम तोड़ देते है!!
ये भारतीय समाज की स्याह तस्वीर है कि जो बदलाव, क्रान्ति की बात करते है वे बहुमत द्वारा शक की निगाहों से देखे जाते है! ये बदलाव अगर करते है तो उसका फायदा उठाने की चाह सबमे रहती है लेकिन ऐसे लोगो से लोग दूरी बना कर रखते है! ऐसे लोगो को खुद उसके परिवार वाले और उन्नत भारत का उन्नत समाज “सनकी”, और पागल करार देती है! ये अलग बात है ऐसे “सनकी” और “पागल” लोगो के द्वारा लाये गए बदलाव का हर कोई फायदा उठाता है!! लेकिन ये सबसे बड़ी त्रासदी है इस भारतीय समाज कि बदलाव की बात करने वालो, उसके लिए संघर्षरत रहने वालो के लिए कोई खास स्पेस नहीं. ऐसे लोगो की अंतिम परिणिति या तो असमय मौत में होती है या किसी पागलखाने में उपेक्षित मौत!! ऐसे लोग समाज की नज़रो में जैसा मेरे एक मित्र ने ठीक ही कहा “इरिस्पांसिबल” लोग होते है!! इसलिए इन बदलाव चाहने वालो के पीछे समाज, माफिया या सरकारी व्यवस्था सरकारी इंटेलिजेंस नाम के महकमे के साथ हाथ धोकर पीछे पड़ जाती है.
( मंजुनाथ की मौत ये बताती है कि आजादी हमको सिर्फ ब्रिटिश लोगो से मिली. समाज की गंदगी से आजादी अभी बाकी है. )
ऐसी व्यवस्था सिर्फ आम आदमियों को ही नहीं प्रताड़ित करती. खुद अपने ही विद्रोही सरकारी आदमी लोगो को भी नहीं छोडती, विद्रोही सामजिक कार्यकर्ताओ को भी नहीं बख्शती. सो आप सहज ही समझ सकते है कि साधारण पृष्ठभूमि वाले लोग बदलाव के बारे में कैसे सोच सकते है जब एक सरकारी अफसर को माफिया खुले आम जला डालता है, एक माफिया ट्रैक्टर के नीचे युवा IPS अफसर को रौंद डालता है, मंजुनाथ या सत्येन्द्र दुबे भयानक मौत के शिकार होते है या फिर इसी तरह के लोग और भयंकर षड़यंत्र के शिकार होते है. और फिर काल के प्रवाह के चलते ऐसे लोग विस्मृत हो जाते है. भारतीय समाज यथावत अपने समस्त तमाशे के साथ चलता रहता है इस उम्मीद के साथ अच्छे दिन आयेंगे, अच्छे बदलाव होंगे लेकिन हममे से कोई पहल नहीं करेगा, कोई बदलाव की बात नहीं करेगा और हर बदलाव की चाह करने वाले को बुरी तरह प्रताड़ित करना चाहेगा!! बदलाव की इतनी भीषण चाह पर फिर भी बदलाव की राह पे लगे लोगो की इतनी बुरी नियति! सो किसकी शामत आई है जो बदलाव के बारे में सोचे! सिस्टम का हिस्सा बनो और मौज उडाओ. ये सबसे सेफ विकल्प है.
जुडिशियल एक्टिविज्म की बात भी कर ले. वकालत के क्षेत्र से ताल्लुक रखते है तो ये बात क्यों न कहे कि जुडिशियल एक्टिविज्म की सबसे ज्यादा जरुरत तो न्यायालयों के भीतर सबसे ज्यादा है बजाय किसी और क्षेत्र में जहा पेशकार भी पैसा लेता है अगली “डेट” देने के लिए, जहा फैसले केस की मेरिट नहीं आपकी बेंच से प्रगाढ़ ताल्लुकात पे निर्भर है, जहा वकील का रुतबा या चेहरा फैसले पलट देती है, जहा कंटेम्प्ट के कानून का भय इतना है कि सारे वकील लकीर के फकीर बन कर प्रचलित व्यस्था का हिस्सा बन कर अपनी दाल रोटी को सुरक्षित करते है और सारी उम्र बस दाल रोटी को सुरक्षित ही करते रहते है ( और साथ में बदलाव करने वालो को सनकी और पागल कह कर उपहास उड़ाते है ), जहा जज साहिब को सलाम ठोकना आवश्यक है वर्ना आपके हर अच्छे केस का फ्यूचर बस “dismissed” ( खारिज ) होना तय है, और जहा जज साहिब खुद भ्रष्टाचार सहित हर कुकर्म में लिप्त है, जहा डिस्ट्रिक्ट न्यायालयों में हड़ताल/सौदेबाजी ज्यादा और न्याय कम ही होता है ( पर इसके बाद भी जनता इसी चौखट पे आकर न्याय की गुहार लगाती है और कुछ नक्सली/बागी बन कर अपने से न्याय हासिल करते है !!)
लोग मुझसे अक्सर ये पूछते है अरे समस्याए तो सब गिना देते है, कोई हल हो तो बताइए! हम उनसे यही कहते है हल बहुत साधारण है पर क्या आप जैसे जटिल दिमाग इस साधारण से हल को आत्मसात कर सकते है कि पहले बदलाव की सोच रखने वालो का सम्मान करो और उन्हें उचित सरंक्षण दो. सारे अच्छे बदलाव अपने आप खुद हो जायेंगे!! किसी बदलाव करने वाले को आप शक की निगाहों से देखेंगे, उन्हें मुख्यधारा से बहिष्कृत कर देंगे, उन्हें प्रताड़ित करेंगे तो किस मुंह से भारतीय समाज बदलाव की आशा रखता है. ये भारतीय समाज खुद सोचे क्या उसे वास्तव में बदलाव की दरकार है? तब कही वो “हल” के बारे में चिंतित हो! हमारे यहाँ तो सभी सिस्टम का हिस्सा बनना चाहते है दिमाग को बंद करके! लकीर का फकीर बने रहना ज्यादा मुनासिब है इस देश में, सिस्टम में सेट होने के जुगाड़ में ही सारी उम्र चली जाती है यहाँ पर! सो क्रांति या असल बदलाव इस देश में इस मानसिकता के चलते संभव नहीं.
इस पोस्ट के आशय को जो हमने दो कविताये अभी पढ़ी वे बहुत अच्छी तरह से उभारती है. पहली कविता तो “अर्द्ध सत्य” फ़िल्म से है और उस चक्रव्यूह की तरफ इशारा करती है जो बदलाव करने वालो को अपनी गिरफ्त में ले लेती है. दूसरी छोटी कविता रमा शंकर यादव “विद्रोही” द्वारा रचित है जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) से निकाल दिए गए थे कैंपस में धरने इत्यादि में शामिल होने के लिए.
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चक्रव्यूह मे घुसने से पहले
कौन था मैं और कैसा था
यह मुझे याद ही ना रहेगा
चक्रव्यूह मे घुसने के बाद
मेरे और चक्रव्यूह के बीच
सिर्फ़ एक जानलेवा निकटता थी
इसका मुझे पता ही न चलेगा
चक्रव्यूह से निकलने के बाद
मैं मुक्त हो जाऊँ भले ही
फ़िर भी चक्रव्यूह की रचना मे
फर्क ही ना पड़ेगा
मरुँ या मारू
मारा जाऊं या जान से मार दूँ
इसका फ़ैसला कभी ना हो पायेगा
सोया हुआ आदमी जब
नींद से उठ कर चलना शुरू करता हैं
तब सपनों का संसार उसे
दुबारा दिख ही नही पायेगा
उस रौशनी में जो निर्णय की रौशनी हैं
सब कुछ समान होगा क्या?
एक पलडे में नपुंसकता
एक पलडे में पौरुष
और ठीक तराजू के कांटे पर
अर्द्ध सत्य
Source: गोविन्द निहलानी की अर्द्ध सत्य
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मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥”
कवि: रमा शंकर यादव “विद्रोही”
Source: Kafila
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( सरकारी लोग भी माफिया के आतंक से त्रस्त है. नरेन्द्र नाम के इस आईपीएस अफसर की मौत तो यही समझाती है. )
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