विवाह कानून (संशोधन) विधेयक 2010: सरकार को पुरुष संघटनो की तरफ से कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण सुझाव

इन अपूर्ण, गलत और भ्रामक संशोधनों को वापस लिया जाए. कानून को लिंगभेद से ऊपर रखा जाए (जेंडर न्यूट्रल), पति या पत्नी शब्द को जीवनसाथी (spouse) शब्द से सम्बोधित किया जाए.
पुरुष अधिकार से जुड़े संघटनो की कुछ प्रमुख चिंताए:
* संशोधन का मूल प्रारूप (मुख्य बिन्दुएँ)- पतियो के खिलाफ पक्षपाती है.
* इस आधार पर तलाक मांग सकती है कि उसका दांपत्य जीवन ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जहां विवाह कायम रहना नामुमकिन है. ‘विवाह सम्बंध टूटने और किसी भी सूरत में रिश्ता बहाल न होने’ को भी तलाक एक आधार के रूप में मान्यता प्रदान किया गया है “हिंदू विवाह अधिनियम”, 1955, और स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 में.
* पत्नी को हक़ है पति की तरफ से पेश तलाक़ याचिका को विरोध करने का इस आधार पर कि वो गहन आर्थिक संकट से ग्रस्त है. कोर्ट इस गहन आर्थिक संकट से निज़ात दिलाने के प्रावधान अपने विवेक पर कर सकती है. (पतियो के संग पक्षपाती है)
* उन बच्चो के भरण पोषण का समुचित प्रबंध माता पिता के द्वारा उनकी आर्थिक हैसियत के अनुरूप जो अवैध संतति है.
संसदीय समिति- महिला संघटनो के द्वारा सुझाये गए प्रस्तावो से गलत तरह से प्रभावित है:
* ‘विवाह सम्बंध टूटने और किसी भी सूरत में रिश्ता बहाल न होने’ को भी तलाक एक आधार के रूप में मान्यता प्रदान करने की संस्तुति करना.
* महिला संघटनो के सुझावो से प्रेरित होकर उस वैवाहिक संपत्ति पर भी पत्नियों का अधिकार होगा जो विवाह के उपरांत अर्जित की गयी है दोनों के सहयोग से.
* पुरुष संघटनो के हर सुझावो की उपेक्षा की गयी.
कानून मंत्री द्वारा किये गए अन्य संशोधन- पुरुष हितो के विपरीत प्रावधानो की स्वीकृति:
* पत्नी का हिस्सा उस संपत्ति पर जो विवाह के पूर्व और उपरान्त अर्जित की गयी है.
* पत्नी का हिस्सा पति के द्वारा अर्जित और अर्जित करने योग्य पैतृक संपत्ति में.
हमारी आपत्तियां:
* पत्नी का कोई योगदान नहीं होता पति के द्वारा अर्जित पैतृक संपत्ति में और उस संपत्ति पर जो उसने शादी से पूर्व अर्जित की गयी है. उसको संज्ञान में लेकर प्रावधान बनाने की जरूरत नहीं.
* उस संपत्ति के बटवारे में कोई भी फैसला जो पति ने शादी के उपरांत अर्जित की है आँख मूँदकर गलत तरीक़े से नहीं होना चाहिए। पत्नी के योगदान का आकलन करना चाहिए। दो महीने की शादी और बीस साल की शादी की अवधि को एक ही मापदंड से नहीं देखा जा सकता.
* ये तर्क दोष से बाधित संशोधन है कि स्त्रियाँ शादी को नहीं तोड़ती. स्त्रियाँ ना सिर्फ शादी को तोड़ती है बल्कि कई बार शादी कर सकती है और इस तरह पूर्व में की गयी हर एक शादी से संपत्ति अर्जित कर सकती है. इस तरह के कई उदाहरण आये दिन समाचार पत्रो में प्रकाशित होते रहते है जहा लालची पत्नियों ने धोखधड़ी से शादी करने के बाद संपत्ति पे अपना दावा पेश किया या फिर झूठे 498 A के मुकदमे दर्ज कराये संपत्ति की हवस में.

ये अब एक प्रचलित हथियार बन गया है कि हर नाकाम वैवाहिक सम्बन्धो में स्त्रियाँ IPC 498 A और घरेलु हिंसा अधिनियम का व्यापक दुरुपयोग कर रही है संपत्ति हथियाने में. अब ये संशोधन भी एक प्रमुख औजार/ज़रिया बन जाएगा समाप्ति अर्जित करने के लिए.
इन संशोधनों के परिणाम/अंजाम:
* वैवाहिक वादो के गहन अध्ययन के बाद ये बात स्पष्ट उभर कर आई है कि ज्यादातर वैवाहिक विखंडन का कारण पत्नी का जबर्दस्ती उस संपत्ति पर हक़ जताना रहा है जो पति या उसके रिश्तेदारो ने अर्जित की होती है.
* विवाह अपने पवित्र संस्कारो से वंचित हो जायेंगे और ये सिर्फ संपत्ति अर्जित करने का श्रोत बन जायेंगे। ये अब धीरे धीरे एक परंपरा बनती जा रही है कि भौतिक लाभ की लालसा शादी के द्वारा बढ़ती जा रही है और इस तरह के गलत संशोधनों के व्यापक दुष्परिणाम उभर कर सामने आयेंगे।
* ये अब एक प्रचलित हथियार बन गया है कि हर नाकाम वैवाहिक सम्बन्धो में स्त्रियाँ IPC 498 A और घरेलु हिंसा अधिनियम का व्यापक दुरुपयोग कर रही है संपत्ति हथियाने में. अब ये संशोधन भी एक प्रमुख औजार/ज़रिया बन जाएगा समाप्ति अर्जित करने के लिए.
* संपत्ति का अर्जन कई वर्षो की मेहनत का परिणाम होते है ना कि कुछ वर्षो के वैवाहिक संग का. असफल वैवाहिक सम्बन्धो के चलते अपनी गाढ़ी कमाई से अर्जित संपत्ति से हाथ धोने के वजह से पतियो के आत्महत्या के दर में खासी वृद्धि देखी जायेगी जो कि पहले से ही पत्नियों के आत्महत्या के दर की दुगनी है. अपराध दर में भी इस वजह से वृद्धि देखी जायेगी।
हमारे प्रस्ताव/सुझाव:
* इन अपूर्ण, गलत और भ्रामक संशोधनों को वापस लिया जाए. कानून को लिंगभेद से ऊपर रखा जाए (जेंडर न्यूट्रल), पति या पत्नी शब्द को जीवनसाथी (spouse) शब्द से सम्बोधित किया जाए.
* संपत्ति में हिस्सा पति और पत्नी के वित्तीय योगदान के आधार पर किया जाए.
* अगर वित्तीय योगदान शून्य है तो एक फॉर्मूले का ईज़ाद किया जाए जो शादी की न्यूनतम अवधि का आकलन करे संपत्ति के बॅटवारे के हेतु और उस एक फॉर्मूले का ईज़ाद हो जो योगदान के बारे में सही रूप से निरूपण कर सके.
* शादी से पूर्व इक़रारनामे (pre-nuptial agreement) को कानूनी मान्यता दी जाए.
* इस बात को बहुत तीव्रता से महसूस किया जाता रहा है कि असफल वैवाहिक सम्बन्धो के चलते पत्नियों को गहरे वित्तीय संकट का सामना करना पड़ता है. विवाह एक संस्था है जो अगर ना चले तो एक लिए पुरस्कार (पत्नी) और एक लिए सजा नहीं होना चाहिए (पति). अगर पत्नी गहरे वित्तीय संकट का सामना कर रह है तो उसकी दूरी के लिए व्यापक प्रबंध किया जाना चाहिए ना कि निरीह पति को इसके लिए दण्डित किया जाना चाहिए. इस सन्दर्भ में हमारा सुझाव ये है है कि:
# हिन्दू विवाह उत्तराधिकार एक्ट 2005 का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए. स्त्री का हिस्सा जो उसके माता-पिता के घर बनता है उसको या तो शादी के दौरान या तलाक़ की अर्जी देने के समय (किसी भी पक्ष के द्वारा) अपने आप दे देना चाहिए.
# अगर स्त्री बेरोजगार है या जिसका कैरियर एक लम्बे अंतराल से बाधित हो गया हो तो इस तरह के महिलाओ के भरण पोषण की जिम्मेदारी और उन्हें रोजगार मुहैय्या कराने की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए बजाय इसके कि पति पर इस तरह का भार डाला जाए. इस तरह की पत्नियों के वित्तीय संकट दूर करने के लिए “तलाकशुदा पत्नी कल्याण कोष” का गठन किया जाना चाहिए।
Reference/Credit:
This is Hindi version of a letter addressed to the Parliamentarians prepared by the Men’s Rights Association.The Hindi version has been prepared by the author of this blog post.

संपत्ति का अर्जन कई वर्षो की मेहनत का परिणाम होते है ना कि कुछ वर्षो के वैवाहिक संग का. असफल वैवाहिक सम्बन्धो के चलते अपनी गाढ़ी कमाई से अर्जित संपत्ति से हाथ धोने के वजह से पतियो के आत्महत्या के दर में खासी वृद्धि देखी जायेगी जो कि पहले से ही पत्नियों के आत्महत्या के दर की दुगनी है. अपराध दर में भी इस वजह से वृद्धि देखी जायेगी।
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हिन्दू विवाह अधिनियम में शादी के पूर्व समझौते को कानूनी मान्यता देने में हिचक क्यों है?
हिन्दू जीवन पद्धति में विवाह को एक संस्कार का दर्ज दिया है लेकिन आधुनिक जीवन शैली में ये संस्कार कम और कॉन्ट्रैक्ट ज्यादा हो गया है. ये एक दुखद स्थिति है लेकिन बदलते समय का शायद यही तकाज़ा है. कितने खेद की बात है कि जो रिश्ते विश्वास और आपसी प्रेम पे टिके रहते थे आज एक मज़ाक सा बन गए है. विश्वास और प्रेम की रक्षा अब आपसी सौहार्द के जरिये ना होकर कानूनी गणित के भरोसे होती है. लिहाज़ा जो कटुता सिर्फ बड़े शहरो में पति और पत्नी के बीच दिखती थी वो अब कस्बो और ग्रामीण क्षेत्रो में भी व्याप्त हो गयी है. सरकार की नियत यदि मान भी ली जाए कि हिन्दू विवाह अधिनियम में जो भी संशोधन किया गए है वो बदलते समय के अनुरूप है और पति पत्नी के हितो की रक्षा करते है तो भी सच्चाई यही है कि ये पति पत्नी के संबंधो का सिर्फ नाश ही करते है.
इसकी वजह ये है कि हमारे यहाँ कानून की रफ़्तार क्या है और ये किस तरह से काम करता है ये सब जानते है. स्त्रियों की पक्षधरता को आतुर सामाजिक व्यवस्था और कानूनी व्यवस्था ने कम से कम ये तो सुनिश्चित ही कर दिया है कि पुरुष हाशिये पे पड़ा सिसकता रहे. अब नया संशोधन देखे हिन्दू विवाह अधिनियम में कि ये पत्नी को तो तलाक की याचिका का विरोध करने की आज़ादी देता है लेकिन पुरुषो को ये अधिकार नहीं। अगर कुछ कसर रही गयी थी पुरुषो को शादी करने की गलती करने के लिए तो वो नए अधिनियम में संपत्ति के बटवारे से सम्बंधित कानून ने पूरा कर दिया कि अगर तलाक आपसी सहमती से होता है तो पति की संपत्ति में पत्नी की हिस्सेदारी भी बनती है.
ये लगभग तय हो गया है कि अगर अब कोई हिन्दू विवाह पद्धति से शादी करता है तो वो सुख और समृद्धि की कल्पना करना छोड़ दे. ये लगभग एक सजा सरीखा हो गया है. ये बात समझाने में दिक्कत होती है मुझे कि जिन संबंधो में विश्वास का लोप हो गया हो वहा कानूनी चाबुक चला देने भर से क्या सम्बन्ध टिके रह जायेंगे ? सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन जो पुरुषो के अधिकारों के रक्षा करने में एक अग्रणी संस्था है का कहना बिलकुल सही है कि इस तरह के दमनकारी कानून केवल स्त्री पुरुष के बीच वैमनस्यता को और घना करेंगे। प्रकाश ठाकरे जो सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन नागपुर शाखा से जुड़े एक कर्मठ कार्यकर्ता है का कहना उचित जान पड़ता है कि जिस तरह से कानून का दखल मानवीय रिश्तो में लगातार बढ़ता जा रहा है उसकी परिणिति केवल संबंधो का विनाश ही सुनिश्चित करती है. प्रकाश ठाकरे क्योकि खुद भुक्तभोगी है और दहेज़ से सम्बंधित मुकदमे में एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सफलतापूर्वक बाहर निकल आये है लिहाज़ा इनकी बातो में एक कडुवी सच्चाई झलकती है.
प्रकाश ठाकरे का ये सुझाव गौर करने लायक है कि वर्तमान संशोधन जो कि संपत्ति के बटवारे की बात करता है इससे बेहतर है विवाह पूर्व समझौते को भारत में कानूनी दर्ज दिया जाए ताकि अगर शादी के बाद तलाक की नौबत आती हो तो कई प्रकार की उलझनों और समस्याओ से बचा जा सके. ये बिलकुल सही है प्रकाश जी का कहना कि आखिर कानून ही सब बात का निर्धारण क्यों करे ? पति पत्नी ही विवाह पूर्व समझौते के तहत क्यों नहीं अपने रिश्ते को क्या दिशा देनी है तलाक के बाद वो खुद क्यों नहीं निर्धारण करते? अभी तो हालत ये है कि शादी के टूटने के बाद कोर्ट बटवारे का निर्धारण करेगी, बच्चो को कौन और कैसे संभालेगा ये भी कोर्ट बतायेगी। इतने दुश्वारियों से आसानी से बचा जा सकता है अगर विवाह पूर्व समझौते को कानूनी जामा अगर पहना दिया जाए तो.
ये बता देना आवश्यक होगा कि हिन्दू विवाह अधिनियम में जो भी बदलाव किया जा रहा है वो पश्चिमी देशो में आधारित कानूनों पे आधारित है. हैरानगी इस बात पर हो रही है कि आपसी सहमती से तलाक के बाद संपत्ति बंटवारे कैसे करना है इस जटिल संशोधन को तो अपना लिया लेकिन इससे आसान तरीका जो कि विवाह पूर्व समझौता हो सकता था उसे कानूनी शक्ल देने की जरूरत नहीं समझी गयी ? ये बताना उचित रहेगा की इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के तहत आप चाहे तो ऐसा विवाह पूर्व समझौता कर सकते है. बड़े शहरों में तो ये कुछ कुछ प्रचलन में है भी पर इसका अस्तित्व अभी कम लोकप्रिय है. उसकी एक वजह ये है कि न्यायालय अभी इस तरह के कांट्रेक्ट पर संदिग्ध रूख रखती है. अगर इस तरह के विवाह पूर्व समझौते को जो कि पश्चिमी देशो में खासे लोकप्रिय है अगर भारत में लागू हो जाए तो पति और पत्नी दोनों की फजीहत होने से बच जायेगी. कोर्ट का दखल भी ना के बराबर हो जाएगा। पश्चिमी देशो में इस तरह के समझौते से संपत्ति निर्धारण मे आसानी होती है और शादी के टूटने के बाद दोनों को सही दिशा देने में ये सहायक है. इस तरह के समझौते जो भारत में सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के तहत ही किये जा सकते है अगर विवाह अधिनियम में शामिल कर दिया जाए तो बहुत से समस्याओं से बचा जा सकता है और न्यायालय का भी बोझ घटेगा.
खैर बेहतर तो यही रहेगा कि शादी एक संस्कार ही रहे जिसकी आधारशिला प्रेम और विश्वास पे टिके। अगर ये संभव ना हो तो कम से उन रास्तो को चुने जो शादी के टूटने के बाद पति और पत्नी के सम्मान की रक्षा कर सके. विवाह पूर्व समझौते इस दिशा में एक सराहनीय कदम हो सकता है जो शादी के टूटने के बाद कोर्ट में पति पत्नी का समय और इज्ज़त दोनों को तार तार होने से बचाते है.
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