The Times Of India: Marriage Bill Is Anti-Men
It’s a matter of great satisfaction that prominent publications related with mainstream media have begun to embrace issues related with men in a fair way. The various bodies working for the cause of men across the nation have decided to ferociously protest against the recent amendments made in Hindu Marriage Laws which are not only anti-male but also do not augur well for the cause of society. I must appreciate The Times of India and its correspondents some of them whom I know personally quite well for being sympathetic towards issues sensitive in nature. The complicated issues cannot be dealt with in a proper way unless we know both the sides of story and this type of fair reporting allows us to be more informed about aspects which remain neglected owing to lack of dissemination. Right now some of the well known Men’s associations based in Bangalore, Pune, Nagpur and elsewhere are working hard to create awareness regarding misuse of laws, which they call legal terrorism. The activists right now are engaged in having dialogue with Members of Parliament with a hope to apprise them of with concerns of Men’s Associations. I am sure the day is not far when gender-neutral laws would get introduced to provide a better shape to Indian society now on the verge of disarray due to blatant misuse of power by the feminists, enjoying support of negative powers operating within the nation and in foreign lands.
हिन्दू विवाह अधिनियम में शादी के पूर्व समझौते को कानूनी मान्यता देने में हिचक क्यों है?
हिन्दू जीवन पद्धति में विवाह को एक संस्कार का दर्ज दिया है लेकिन आधुनिक जीवन शैली में ये संस्कार कम और कॉन्ट्रैक्ट ज्यादा हो गया है. ये एक दुखद स्थिति है लेकिन बदलते समय का शायद यही तकाज़ा है. कितने खेद की बात है कि जो रिश्ते विश्वास और आपसी प्रेम पे टिके रहते थे आज एक मज़ाक सा बन गए है. विश्वास और प्रेम की रक्षा अब आपसी सौहार्द के जरिये ना होकर कानूनी गणित के भरोसे होती है. लिहाज़ा जो कटुता सिर्फ बड़े शहरो में पति और पत्नी के बीच दिखती थी वो अब कस्बो और ग्रामीण क्षेत्रो में भी व्याप्त हो गयी है. सरकार की नियत यदि मान भी ली जाए कि हिन्दू विवाह अधिनियम में जो भी संशोधन किया गए है वो बदलते समय के अनुरूप है और पति पत्नी के हितो की रक्षा करते है तो भी सच्चाई यही है कि ये पति पत्नी के संबंधो का सिर्फ नाश ही करते है.
इसकी वजह ये है कि हमारे यहाँ कानून की रफ़्तार क्या है और ये किस तरह से काम करता है ये सब जानते है. स्त्रियों की पक्षधरता को आतुर सामाजिक व्यवस्था और कानूनी व्यवस्था ने कम से कम ये तो सुनिश्चित ही कर दिया है कि पुरुष हाशिये पे पड़ा सिसकता रहे. अब नया संशोधन देखे हिन्दू विवाह अधिनियम में कि ये पत्नी को तो तलाक की याचिका का विरोध करने की आज़ादी देता है लेकिन पुरुषो को ये अधिकार नहीं। अगर कुछ कसर रही गयी थी पुरुषो को शादी करने की गलती करने के लिए तो वो नए अधिनियम में संपत्ति के बटवारे से सम्बंधित कानून ने पूरा कर दिया कि अगर तलाक आपसी सहमती से होता है तो पति की संपत्ति में पत्नी की हिस्सेदारी भी बनती है.
ये लगभग तय हो गया है कि अगर अब कोई हिन्दू विवाह पद्धति से शादी करता है तो वो सुख और समृद्धि की कल्पना करना छोड़ दे. ये लगभग एक सजा सरीखा हो गया है. ये बात समझाने में दिक्कत होती है मुझे कि जिन संबंधो में विश्वास का लोप हो गया हो वहा कानूनी चाबुक चला देने भर से क्या सम्बन्ध टिके रह जायेंगे ? सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन जो पुरुषो के अधिकारों के रक्षा करने में एक अग्रणी संस्था है का कहना बिलकुल सही है कि इस तरह के दमनकारी कानून केवल स्त्री पुरुष के बीच वैमनस्यता को और घना करेंगे। प्रकाश ठाकरे जो सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन नागपुर शाखा से जुड़े एक कर्मठ कार्यकर्ता है का कहना उचित जान पड़ता है कि जिस तरह से कानून का दखल मानवीय रिश्तो में लगातार बढ़ता जा रहा है उसकी परिणिति केवल संबंधो का विनाश ही सुनिश्चित करती है. प्रकाश ठाकरे क्योकि खुद भुक्तभोगी है और दहेज़ से सम्बंधित मुकदमे में एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सफलतापूर्वक बाहर निकल आये है लिहाज़ा इनकी बातो में एक कडुवी सच्चाई झलकती है.
प्रकाश ठाकरे का ये सुझाव गौर करने लायक है कि वर्तमान संशोधन जो कि संपत्ति के बटवारे की बात करता है इससे बेहतर है विवाह पूर्व समझौते को भारत में कानूनी दर्ज दिया जाए ताकि अगर शादी के बाद तलाक की नौबत आती हो तो कई प्रकार की उलझनों और समस्याओ से बचा जा सके. ये बिलकुल सही है प्रकाश जी का कहना कि आखिर कानून ही सब बात का निर्धारण क्यों करे ? पति पत्नी ही विवाह पूर्व समझौते के तहत क्यों नहीं अपने रिश्ते को क्या दिशा देनी है तलाक के बाद वो खुद क्यों नहीं निर्धारण करते? अभी तो हालत ये है कि शादी के टूटने के बाद कोर्ट बटवारे का निर्धारण करेगी, बच्चो को कौन और कैसे संभालेगा ये भी कोर्ट बतायेगी। इतने दुश्वारियों से आसानी से बचा जा सकता है अगर विवाह पूर्व समझौते को कानूनी जामा अगर पहना दिया जाए तो.
ये बता देना आवश्यक होगा कि हिन्दू विवाह अधिनियम में जो भी बदलाव किया जा रहा है वो पश्चिमी देशो में आधारित कानूनों पे आधारित है. हैरानगी इस बात पर हो रही है कि आपसी सहमती से तलाक के बाद संपत्ति बंटवारे कैसे करना है इस जटिल संशोधन को तो अपना लिया लेकिन इससे आसान तरीका जो कि विवाह पूर्व समझौता हो सकता था उसे कानूनी शक्ल देने की जरूरत नहीं समझी गयी ? ये बताना उचित रहेगा की इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के तहत आप चाहे तो ऐसा विवाह पूर्व समझौता कर सकते है. बड़े शहरों में तो ये कुछ कुछ प्रचलन में है भी पर इसका अस्तित्व अभी कम लोकप्रिय है. उसकी एक वजह ये है कि न्यायालय अभी इस तरह के कांट्रेक्ट पर संदिग्ध रूख रखती है. अगर इस तरह के विवाह पूर्व समझौते को जो कि पश्चिमी देशो में खासे लोकप्रिय है अगर भारत में लागू हो जाए तो पति और पत्नी दोनों की फजीहत होने से बच जायेगी. कोर्ट का दखल भी ना के बराबर हो जाएगा। पश्चिमी देशो में इस तरह के समझौते से संपत्ति निर्धारण मे आसानी होती है और शादी के टूटने के बाद दोनों को सही दिशा देने में ये सहायक है. इस तरह के समझौते जो भारत में सिर्फ कॉन्ट्रैक्ट एक्ट के तहत ही किये जा सकते है अगर विवाह अधिनियम में शामिल कर दिया जाए तो बहुत से समस्याओं से बचा जा सकता है और न्यायालय का भी बोझ घटेगा.
खैर बेहतर तो यही रहेगा कि शादी एक संस्कार ही रहे जिसकी आधारशिला प्रेम और विश्वास पे टिके। अगर ये संभव ना हो तो कम से उन रास्तो को चुने जो शादी के टूटने के बाद पति और पत्नी के सम्मान की रक्षा कर सके. विवाह पूर्व समझौते इस दिशा में एक सराहनीय कदम हो सकता है जो शादी के टूटने के बाद कोर्ट में पति पत्नी का समय और इज्ज़त दोनों को तार तार होने से बचाते है.
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प्रस्तावित तलाक कानून: पुरुषो की बर्बादी और हिन्दू घरो की तबाही का औजार है!
हिन्दू विवाह अधिनियम को संशोधित करने में कांग्रेस सरकार जो अति सक्रियता दिखा रही है वो परेशानी और अचम्भे में डालती है. इस सरकार का कार्यकाल एक साल के भीतर ही ख़त्म होने वाला है लिहाज़ा ये अति सक्रियता आत्मघाती है. सम्पति के बटवारे के बारे में इसकी टेढ़ी चाल भारतीय परिवारों के विघटन का कारण बन सकती है. प्रस्तावित क़ानून में बटवारे वाले सेक्शन को लेकर जो उहापोह वाली स्थिति उत्पन्न हो गयी है सरकार के भीतर उससे स्पष्ट है कि इस सरकार के मंत्री खुद भ्रम के स्थिति में है और इस कानून में निहित संपत्ति बंटवारे और मुआवजे से सम्बंधित बिन्दुओ पर वो एकमत रूख नहीं रखते है. हिंदू विवाह अधिनियम’ की धारा 13-बी और ‘विशेष विवाह अधिनियम’ की धारा 28 आपसी सहमति से तलाक के अंतर्गत संपत्ति बंटवारे/ मुआवज़े पर जो सरकार के भीतर अन्तर्विरोध उभर कर आये है उससे ये समझ में आता है कि इस कानून के मूल तत्वों के बारे में सरकार में शामिल मंत्रियो से लेकर अन्य पार्टी के सांसदों को ज्यादा कुछ नहीं पता है . इससे ये सहज ही समझा जा सकता है कि जनता जिसका वो प्रतिनिधित्व करते है उनमे कितना भ्रम व्याप्त होगा। फिर भी ये सरकार इस संशोधन को इतनी जल्दबाजी में कानूनी जामा पहनाना चाहती है ये हैरान करता है.
ये बताना आवश्यक रहेगा कि सरकार ने संशोधन को पास कराने की हड़बड़ी में लॉ कमिशन और संसदीय स्थायी समिति को पूरी प्रक्रिया से बाहर रखा है. इसके खतरनाक दुष्परिणाम होंगे और इस तरह के कानूनों से भारत के युवक-युवतियों का भविष्य अँधेरे के गर्त में जा सकता है. ये निश्चित है कि अगर ये बिल अपने प्रस्तावित स्वरूप में पास हो गया तो ये एक और उदाहरण होगा गैर जिम्मेदाराना तरीके से प्रक्रियागत खामियों से लैस कानून को अस्तित्व में लाने का। पुरुषो एक अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली अग्रणी संस्था सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) ने इस हिंदी विवाह अधिनियम (संशोधन) बिल, २०१०, को अपने वर्तमान स्वरुप में पारित कराने की कोशिशो की तीखी आलोचना करते हुए इस खतरनाक संशोधन को पूरी तरीके से नकार दिया है.
सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) का ये भी कहना है कि न्यायधीशो को इस कानून के तहत असीमित अधिकार देना किसी तरह से भी जायज नहीं है खासकर महिलाओ से संबधित प्रतिमाह गुज़ारा भत्ता /मुआवज़े के निर्धारण में.
क्या कहता है ये कानून:
विवाह अधिनियम (संशोधन) विधेयक 2010’ “असुधार्य विवाह भंग’ को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत तलाक मंजूर करने के एक आधार के रूप में स्वीकार करता है. इसके साथ ही तलाक के मामले में अदालत पति की पैतृक संपत्ति से महिला के लिए पर्याप्त मुआवजा तय कर सकती है. विधेयक में पति द्वारा अर्जित की गई संपत्ति में से पत्नी को हिस्सा देने का प्रावधान है.
कुछ आवश्यक बिंदु:
इस कानून को महिलाओ के पक्ष में बताना खतरनाक है क्योकि भारत में सत्तर प्रतिशत परिवार गरीब वर्ग में है जो ज्यादातर क़र्ज़ में डूबे है और जिनके पास संपत्ति नाम की कोई चीज़ नहीं है, जिनके ऊपर पहले से ही बेटी बेटो के भरण पोषण और उनके शादी ब्याह जैसी जिम्मेदारियां है. ये कानून केवल एक ख़ास वर्ग में सिमटी सम्पन्न महिलाओ को ध्यान में रखकर अस्तित्व में आया है लिहाज़ा मुख्य धारा के राजनैतिक दलों को इसके विरोध में खड़े होकर इसके खिलाफ वोटिंग करनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि इस कानून के पारित होने के बाद तलाक के प्रतिशत में अगले दस सालो में लभग तीस प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
प्रस्तावित हिन्दू विवाह संशोधन को सम्पूर्णता में देखे जाने की जरूरत है जैसे कि संयुक्त रूप से बच्चो का पालकत्व या बच्चों की जिम्मेदारियों के वित्तीय वहन से सम्बंधित कानून की इसमें क्या भूमिका रहेगी. सिर्फ मासिक भत्ते के निर्धारण में सक्रियता दिखाना उचित नहीं। क्या पति ताउम्र भत्ता गुज़ारा देता रहेगा संपत्ति बंटवारे के बाद भी जिसका हिस्सा खुद की संपत्ति और विरासत में मिली संपत्ति से मिलकर बनता है? ये कुछ अति महत्त्वपूर्ण बिंदु है जिनको संज्ञान में लेना आवश्यक है और इन्हें उनके बीच चर्चा में शामिल करना है जो इन कानूनों से प्रभावित हो रहे है. अव्यवस्थित रूप से निर्धारित बिन्दुओ को कानून बना के पास करना बेहद गलत है.
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सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन (SIFF) का सरकार को निम्नलिखित सुझाव:
सरकार इस कानून को तुरंत वापस लें और मौजूदा संसदीय अधिवेशन में इसे ना पेश करे. सरकार इस कानून की भाषा में परिवतन करे और इस लिंग आधारित भेदों से ऊपर करे जिसमे पति (husband) और पत्नी (wife) को ” जीवनसाथी” ( spouse) और स्त्री (man) और पुरुष (woman) को ” व्यक्ति” (person) में परिवर्तित किया जाए. इसके साथ ही किसी भी जीवनसाथी को तलाक़ अर्जी का विरोध करने की छूट हो कानून की समानता के रौशनी में. सरकार इस बात का भी निर्धारण करे कि अर्जित संपत्ति के निर्माण में पत्नी का क्या सहयोग रहा है या पति के परिवार के भौतिक सम्पदा के विस्तार में क्या योगदान है. इसको निर्धारित करने का सूत्र विकसित किया जाए. इसके निर्धारण में शादी के अवधि को ध्यान में रखा जाए, बच्चो की संख्या का ध्यान रखा जाए, और क्या स्त्री कामकाजी है या घरेलु. अगर स्त्री तीन बच्चो की माता है, वृद्ध सदस्यों की देखरेख का जिम्मा ले रखा है, तो उसका योगदान अधिक है बजाय उस स्त्री के जो कामकाजी है और जिसके कोई बच्चे नहीं है एक साल की अवधि में.
इस सूत्र के मुताबिक ही किसी व्यवस्था को संचालित किया जाए जीवनसाथी को प्रतिमाह भत्ते के सन्दर्भ में, मुआवज़े के सन्दर्भ में या किसी और समझौते के सन्दर्भ में. न्यायधीश महोदय इस सूत्र की रौशनी में अपने विवेक का इस्तेमाल कर उचित फैसले लें. लिहाज़ा इस सूत्र के अंतर्गत अगर स्त्री के सहयोग का अनुपात पति या उसके परिवार के संपत्ति के अर्जन में पूरी संपत्ति के मूल्य से अधिक है तो उसे पूरी संपत्ति पर हक दिया जा सकता है. अगर पत्नी इसको लेने से इनकार कर सकती है तो वो मासिक गुज़ारे भत्ते वाले विकल्प को अपना सकती है. कहने का तात्पर्य ये है कि संपत्ति में हिस्सेदारी के बाद उसका मासिक गुज़ारे भत्ते को लेते रहने का अधिकार ख़त्म हो जाता है. दोनों विकल्पों का लाभ लेने का हक जीवनसाथी को नहीं मिलना चहिये.
सरकार को इस सूत्र को अस्तित्व में लाने के लिए एक कमेटी या योजना आयोग का गठन करना चाहिए.
सरकार को सयुंक्त भरण पोषण का अधिकार बच्चे के बायोलॉजिकल अभिभावक द्वारा और बच्चे के ग्रैंड पेरेंट्स से स्थायी संपर्क को अनिवार्य कर दिया जाए, जब तक कि कोर्ट इसके विपरीत राय ना रखती हो. इसके अनुपालन के अभाव को आपराधिक जुर्म के श्रेणी में रखा जाए। अगर कोई अभिभावक इस सयुंक्त के जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है या ग्रैंड पेरेंट्स से संपर्क में बाधा डाल रहा है तो इसको अपराध माना जाए.
सरकार ये सुनिश्चित करे कि न्यायालय को अपने विवेक के अधिकार का इस्तेमाल करने की सीमित आज़ादी हो संपत्ति बटवारे के निर्धारण में, मासिक गुज़ारे भत्ते के सन्दर्भ में और बच्चे के पालन पोषण सम्बन्धी मामलो में. बहुत ज्यादा अधिकार न्यायालय को देने का मतलब ये होगा कि कोर्ट का अवांछित हस्तक्षेप मामले को और जटिल बना देगा या कोर्ट का गैर जिम्मेदाराना रूख स्थिति को और विकृत कर देगा। अधिकतर पुरुष फॅमिली कोर्ट पे भरोसा नहीं करते, क्योकि इस तरह की कोर्ट पुरुषो के अधिकार के प्रति असंवेदनशील रही है. न्यायालय वर्षो लगा देती है पति को अपने बच्चो से मिलने का फैसला देने में और तब तक बच्चे की स्मृति पिता के सन्दर्भ में धूमिल पड़ जाती है.
सरकार ये सुनिश्चित करे कि महिला पैतृक संपत्ति और वहा अर्जित संपत्ति में जो हिस्सेदारी बनती हो उसे अधिग्रहित करे. उसे अपने कब्जे में लें. सरकार को हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करके महिला को अपने पिता के घर में रहने का स्थान सुनिश्चित करे , ताकि कम अवधि वाली शादी में अलगाव की सूरत में उसे रहने की जगह उपलब्ध हो. अगर माता पिता इस सूरत में उसे पति के घर जाने के लिये विवश करते है तो इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाए. इसी प्रकार अगर महिला के माता पिता या महिला के भाई उसे पैतृक संपत्ति/ अर्जित संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार करते है तो इसे असंज्ञेय प्रकार का अपराध माना जाए.
उन्होंने कहा कि अगर पति-पत्नी में से कोई भी एक व्यक्ति अगर संयुक्त आवेदन देने से इनकार करता है, तो दूसरे को आपसी सहमति के बजाय अन्य आधार पर तलाक के लिए आवेदन देने की अनुमति दी जानी चाहिए.
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इस देश में कानून बना देने ही को सब समस्यायों का हल मान लिया गया है. और इस तरह के दिशाविहीन कानून जो प्रक्रियागत कमियों से लैस है उनका अस्तित्व में आना तो और भी खतरनाक है. वो इसलिए कि न्यायालय हमारे यहाँ किन दुराग्रहो से अधीन होकर काम करते है वो सब को पता है. एक तो सिस्टम गलत तरीके से काम करता है और दूसरा न्याय के रास्ते में इतने दुराग्रह मौजूद है कि सिर्फ लिखित कानून बना देने से सही न्याय मिल जाएगा ये सिर्फ एक विभ्रम है. इस तरह के पक्षपाती कानून सिर्फ भारतीय परिवार का विनाश ही करेंगे जैसा कि दहेज कानून के दुरुपयोग से हुआ है. सिर्फ मंशा का सही होना ही काफी नहीं बल्कि आप किस तरह से उनका सही अनुपालन करते है ये आवश्यक है. ये तो सब थानों में बड़े बड़े अक्षरों में लिखा रहता है कि गिरफ्तार व्यक्ति के क्या अधिकार है पर क्या थानेदार साहब इन सब बातो की परवाह करके कभी थाने में काम करते है? नहीं ना! यही वजह है कि इस तरह के अपूर्ण कानून न्याय का रास्ता नहीं वरन तबाही का मार्ग खोलते है. हिन्दू विवाह अधिनियम में इस लापरवाही से संशोधन करके पहले से इन कानूनों से त्रस्त हिन्दू परिवारों पर एक और घातक प्रहार ना करे.
( प्रस्तुत लेख सेव इंडिया फॅमिली फाउंडेशन के नागपुर शाखा के अध्यक्ष श्री राजेश वखारिया से बातचीत पर आधारित है)
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