जगजीत सिंह: तुम चले गए तो गुमसुम सा ये जहाँ है !!!
“अब यादों के कांटे इस दिल में चुभते हैं
ना दर्द ठहरता है ना आँसूं रुकते हैं” .
इस वक्त जगजीत सिंह के सुननेवालो और चाहनेवालो का यही हाल होगा. सबको अपने गीतों, ग़ज़लों और भजनों से एक रूहानी शान्ति प्रदान करने वाले की आत्मा आज खुद इंसानी चोला छोड़कर परम शान्ति में विलीन हो गयी. इस सत्य से हम सब परिचित है कि एक दिन हम सबको जाना है पर सब के दिलो पे राज करने वाले का यूँ चले जाना तकलीफ देता है. कोई जड़ भरत की तरह इतना निर्लिप्त तो नहीं रह सकता ना कि कोई अपना चला जाए और आप की आँख से दो आंसू भी ना गिरे. गुलज़ार जी कहना बिल्कुल सही है कि “जगजीत का जाना, एक पूरी दुनिया का उठ जाना है इक पूरे दौर का उठ जाना है .” उनके चले जाने के बाद जिस रिक्तता का अनुभव हम सब को हो रहा है उसकी पूर्ती करना आसान नहीं.
जगजीत सिंह ने जब गायकी की दुनिया में प्रवेश किया तो उनको भी उन्ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा जो हर एक सच्चे कला के पुजारी के सामने आ खड़ी होती है. नाकामी और असफलताओ से खिन्न आकर वे अपने घर जालंधर को लौट आये मुंबई से जहा पे वे उस वक्त पढ़ते थे और एक प्रोफेशनल गायक के तौर पे रेडिओ से जुड़े भी थे. पर किस्मत ने इनके लिए कुछ और ही सोच रखा था. कुछ अंतराल के बाद ये फिर मुंबई लौटे और एच एम वी के साथ कुछ एक दो गाने रिकार्ड कराने के बाद इसी कंपनी द्वारा इनका पहला एल पी “द अनफ़ोरगैटेबल्स ” ( The Unforgettables) निकला. इसके बाद जगजीत ने पीछे मुड़ के नहीं देखा और मौत के पहले तक इतना काम किया कि गुलज़ार ने अपनी श्रद्धांजली में इस बात को महसूस किया कि शायद जगजीत सिंह ने अपने शरीर को आराम नहीं दिया.
जगजीत सिंह काफी सचेत रहते थे और इसलिए वे काफी बेबाक भी थे. उन्होंने एक विदेशी चैनल को दिए साक्षात्कार में इस बात को साफ़ साफ़ कहा कि ग़ज़ल गायिकी का स्तर भारत और अन्य जगह काफी गिर रहा है और जिस तरह से हर माध्यम से घटिया चीज़ संगीत के नाम पे बांटी जा रही है उससें समझ में आता है कि कुछ ना कुछ गलत तो है ज़रूर. वे आजकल के संगीत को शोर मानते थे. यही वजह है कि ऐ आर रहमान के यांत्रिक संगीत की उन्होंने साफ़ तौर पे आलोचना की. और ये सच भी है कि आइटम नंबर के दौर में कम्पूटर आधारित संगीत बिल्कुल टीन कनस्तर पीटने के समान हो गया है. संगीत की आत्मा लगता है इस लोक से निकलकर दूसरे लोक में चली गयी है..
चलते चलते अपने अंतर्मन में दबी गहरी संवेदनाओ को उभारना चाहूँगा जिसको निखारने में जगजीत सिंह की गज़लों ने उत्प्रेरक का काम किया. जगजीत सिंह की गज़ले सम्पूर्ण जीवन दर्शन को अच्छी तरह से परिभाषित करती है. बचपन से शुरू करे तो क्या आपको लगता है ” वो कागज़ की कश्ती” से भी बेहतर कोई संगीतमय रचना हो सकती है जो बचपन को इतना यादगार बनाती हो ? ये रचना देखी जाये तो अलग से मील का पत्थर है. यौवन काल की तरफ बढे तो उस दौर को याद करे जब हम प्रेम के पहले अहसास को महसूस करते है और उसे प्रेम पत्र के रूप में उभारते है तो क्या हमको ये ग़ज़ल नहीं याद आती “प्रेम का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है ” या ये बात नहीं याद आती ” तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है ” . दोस्ती के ही बदले हुए स्वरूप को हम याद करे तो क्या इस ग़ज़ल में जो सीख है उसकी हम उपेक्षा कर सकते है “दोस्ती जब किसी से की जाये, दुश्मनों की भी राय ली जाये” ..और जब ये दोस्ती टूट जाए तो क्या हम ये ग़ज़ल नहीं गुनगुनाते : “ तुमने दिल की बात कह दी ये बड़ा अच्छा किया, हम तुम्हे अपना समझते थे बड़ा धोखा हुआ“.
जीवन में जब हम और आगे बढ़ते है और जीवन की कडुवी सच्चाइयो से आमना सामना होने पर हमारे सपने टूट कर बिखरते है तो क्या हम ये नहीं महसूस करते ” दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है ” और फिर यही एहसास हमारे साथ रह जाता है ” शायद मै ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया…अंजाम ये के गर्दे सफ़र ले के आ गया“. इन आत्माओ के संपर्क में रहने से ही शायद मै आज कह पाने में सक्षम हूँ “बदला ना अपने आपको जो थे वोही रहे”
इस बहुत भली सी आत्मा को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि ..आपके लिए जगजीतजी इस वक्त मेरे मन में कुछ और नहीं बस आपकी यही ग़ज़ल कबसे गूँज रही है : “ सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मै”
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इसमें मैंने बहुत सी ग़ज़लों का जिक्र किया है. ये सब तो मेरे दिल के करीब है पर ये रहे कुछ और ग़ज़ल /भजन जो मुझे बहुत पसंद है.
१. या तो मिट जाइए या मिटा दीजिये
८. जय राधा माधव
९. तुम ढूंढो मुझे गोपाल
१०. अँखियाँ हरी दर्शन की प्यासी
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