जब आम आदमी से आतंकवाद का फासला कम हो तो एक कसाब के हलाक़ होने पे जश्न व्यर्थ है

आम आदमी उतना ही डरा, सहमा है और आतंकी निशाने पे उसी तरह है जैसा कि पहले था। तो ये हम खुश किस बात पर हो रहे है?
हम भारतीयों का तीज त्योहारों से लगता है जी नहीं भरता है तभी तो एक दो कौड़ी के शख्स के मरने पर इतनी ख़ुशी व्याप्त है जैसे सिकंदर को विश्व विजय पर भी न हुई होगी। उस पर ये फटीचर भारतीय मेनस्ट्रीम मीडिया, जिसमे हिंदी के अखबार तो प्रमुख रूप से शामिल है, इस खबर को ऐसे कैश कर रहे है, जो कि इनकी आदत है, जैसे प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने चुप्पी तोड़कर दमदार आवाज में बोलना प्रारंभ कर दिया हो। क्यों हम व्यर्थ के खुश होने के आदी हो चुके है। खुश होने के बजाय हमे पूरे प्रकरण को बहुत ही गंभीरता और सूक्ष्मता से समझने की जरूरत है। हमे उस तरह से इस को सनसनीखेज तरीके से नहीं समझना चाहिए जैसा कि मेनस्ट्रीम मीडिया चाहता है कि हम समझे। आप देखे कि मेनस्ट्रीम मीडिया इस खबर को, खासकर हिंदी के अख़बार जो ग्रामीण परिवेश में ज्यादा पढ़े जाते है, इस खबर को मुख्य पृष्ठ पर इस तरह छापा है जैसे कि बैराक ओबामा ने लादेन को ढूंढकर मार डालने वाली कारवाई की थी अपने निगरानी में।
लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था। बल्कि एक लचर न्यायिक प्रक्रिया के चलते एक ऐसे आदमी को जिसको चार साल पहले ही मर जाना चाहिए था को फांसी चार साल बाद हुई। इस चार साल में न जाने कितना सरकारी पैसा इसको खिलाने पिलाने और इसकी तगड़ी सुरक्षा व्यस्था में खर्च हुआ होगा जो कुछ और नहीं आप और हमसे लिया गया टैक्स था। लेकिन दर्शाया ये जा रहा है जैसे कांग्रेस सरकार कितनी प्रतिबद्ध है आतंकवाद के खात्मे के प्रति कि उसके लगभग हर मोर्चे पे नाकाम प्रधानमंत्री ने कोई बहुत बढ़ी फतह हासिल कर ली हो। अगर इतनी ही प्रतिबद्ध है तो अफज़ल को इसके पहले मर जाना चाहिए था, हमारी सुरक्षा व्यवस्था को पहले से और सुदृढ़ किया जा चूका होता पर हमारा सुरक्षा तंत्र आज भी उतना ही लचर है जितना बम्बई पर हमले के समय था। आम आदमी उतना ही डरा, सहमा है और आतंकी निशाने पे उसी तरह है जैसा कि पहले था। तो ये हम खुश किस बात पर हो रहे है?
ये बिका हुआ मीडिया हमें असल मुद्दों से हटाकर गुमराह कर रहा है। आपको स्वीट पाइजन देकर इन भ्रामक खबरों के जरिये आपसे असल सवालात करने की काबिलियत को छीन रहा है। बाल ठाकरे से हम भले ही नफरत करते हो, मै भी उग्र विचारधारा का होने के कारण समर्थक नहीं हूँ ठाकरे की विचारधारा का, पर उसकी ये बात पते की है कि इन आतंकवादियों को पकड़ो और वही शूट कर दो। जो खुले आम गोली चलाता दिख रहा हो, जिसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी लोगो को छलनी करते वक्त उसको आपने ट्राइल के जरिये चार साल बाद मारा और वो भी तब जब राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज कर दिया तब। और ये भी तब संभव हुआ जब उज्जवल निकम जैसे वकीलों ने रात दिन एक कर डाला कि कोई बिंदु छूटने न पाए। ये हमारी कमजोरी को दर्शा रहा ना कि हमारी प्रतिबद्धता को। प्रतिबद्धता तब झलकती है जब लादेन को अमेरिका मारता है ढूंढ के बिना किसी ट्राइल के, जब सद्दाम को मारा जाता है अपने कितने सैनिको की कुर्बानी के बाद, जब आप दूसरे के देश में ड्रोन हमले करते है क्योकि इनको मारना आपकी जरुरत बन गयी है, और हमले फिर ना हो आपके यहाँ सुरक्षा तंत्र इतना सख्त हो कि वक्त पड़ने पर दूसरे देश के राजनयिक को भी नंगा करके तलाशी लिया जा सके और कोई कुछ ना कर सके। ये कहलाती है प्रतिबद्धता!
सरकार की प्रतिबद्धता को लगभग चुनौती देते हुएँ लश्करे-ए-तोइबा के कमांडर ने फ़ोन पर एक न्यूज़ एजेंसी को ये बताया कि कसाब उनका हीरो है और भविष्य में ऐसे और हीरो पैदा होंगे। पाकिस्तान में तालिबान मूवमेंट के संचालक को भी गहरा सदमा लगा है कि एक मुसलमान भारत की धरती पर इस तरह हलाक़ हो गया है। और इधर पाकिस्तान की विदेश मंत्री अभी भी इस नौटंकी में लिप्त है कि हमको भारत वो सबूत दे जो कोर्ट में साबित किये जा सके तो हम किसी ठोस कार्यवाही को अंजाम दे। और इधर भारत का कहना है कि हमने तो सब सबूत पहले ही उपलब्ध करा दिया है। इन सब के बीच इमरान खान की पार्टी ने कसाब की मृत्यु को दिल पर लेते हुएं“टेरोरिस्ट” सरबजीत सिंह को तुरंत फांसी पर लटकाने की मांग कर डाली है। ये देखिये पाकिस्तान की आतंकवाद से लड़ने की दृढ़ इच्छाशक्ति का नमूना कि सरबजीत सिंह “टेरोरिस्ट” है पर कसाब सिर्फ “गनमैन” था। और भारतीय सेक्युलर अखबार द हिन्दू की माने तो भूख और गरीबी से पैदा हुआ बेचारा।
द इकनोमिक टाइम्स में छपे कैबिनेट स्तर के भूतपूर्व भारतीय अधिकारी बी रमन का लेख आतंकवाद से लड़ने के हमारे दावो की पोल खोल के रख देता है।इस वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि हम 26/11 के पहले भी सॉफ्ट स्टेट थें, 26/11 के बाद भी है और कसाब के मृत्यु के बाद भी वही है। ये सरकार सिर्फ इसका राजनैतिक लाभ लेगी ये भूलकर कि इंडियन मुजाहिदीन के द्वारा हर प्रमुख शहरों में स्लीपर सेल्स आज भी ऑपरेट कर रहे है। इस अधिकारी का ये कहना है जब तक इस षड़यंत्र से जुड़े सारे दोषियों को नहीं सजा दी जाती, उस पूरे ढाँचे को ध्वस्त नहीं किया जाता जिसके आका पाकिस्तान में बैठे है तब तक एक कसाब के मरने से क्या होगा और अफ़सोस यही है कि इस सरकार ने पाकिस्तान पर कोई कारगर दवाब नहीं बनाया।
सो एक कसाब के मरने पर हम खुश क्यों है? इतना मुझे पता है कि इस आतंकवाद नाम के दानव को खत्म करने के लिए जिसको ईधन पाकिस्तान से मिलता है तब तक नहीं खत्म होगा जब तक इंदिरा गांधी जैसी बोल्ड राजनयिक का साथ जनरल सैम मानेकशा/ के पी एस गिल/जगमोहन जैसे कुशल अधिकारी के साथ गठजोड़ नहीं होता है। इस ढुलमुल नीति वाले सरकार जो एक घोटाले से दूसरे घोटाले तक बिन पैंदी के लोटे की तरह लुढ़क रही है इससें कोई क्या उम्मीद रखे? तब तक जनता जनार्दन ऐसे ही किसी हमले के लिए तैयार रहे। या फिर उस सरकार को चुने जो कसाबो और अफ्ज़लो को पनपने का मौका ही ना दे।

तो ये है इस देश का माहौल कि ऐसे बुद्धिजीवी है जो कसाब की मौत को असंवैधानिक तक बता डाल रहे है। आप आतंकवाद से क्या ख़ाक लड़ेंगे?
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