अटेन्शनवा: भाई किसी को खालिस सोने के बिस्किट चाहिए तो तिवारी सर से मिले अर्जेन्टी (व्यंग्य लेख )
मेरे कुछ मित्र भी गजब ही है। बैठे बिठाये लिखने का मसाला दे जाते है। ये तिवारी जी, लखनऊ वाले, मेरा सौभाग्य कहिये या मेरा दुर्भाग्य कि मेरे बचपन के परम मित्रो से है। तब से लेकर आज तक मुझसे गठबंधन किया बैठे है। अब बचपन में तो अच्छे बुरे की पहचान तो होती नहीं वर्ना इस तरह के खतरनाक मित्रो को मै जरा भी लिफ्ट नहीं देता हूँ। खैर ये ‘सड़ी मूँगफली स्कूल’ के काबिल हस्ताक्षर थें। इस स्कूल का असली नाम पाठको को नहीं बताऊंगा क्योकि जिनको समझना है उनके लिए इतना इशारा काफी है। कभी किताब लिखने का मौका मिला तो इस स्कूल के सभी नमूनों के बारे में विस्तार से लिखूंगा लेकिन ये इसी स्कूल की देन है कि खुली आँखों से सोना मुझे आ गया। सुबह सुबह इतने उबाऊ पीरियड में कौन इतना उच्च चेतना संपन्न था कि वो पूरे होशो हवास में रह पाता। कम से कम मै तो नहीं था। और निगम, जो पूरी सर्दी में शायद तीन चार बार नहाने को महान कार्य समझते थें, तो बिलकुल नहीं था क्योकि उसको तो हमी सब उठाकर स्कूल लाते थें आँखों में नींद लिए। यहाँ भी कोई गांधी थें जिनके महाऊबाऊ विश्वशान्ति वाले भाषण सुबह सुबह असेंबली लाइन में सबसे आगे खड़ा होकर सुनने के कारण कुछ कुछ “अटेंशन डिफिसिट” सा हो जाता था, कही शान्ति आये ना आये पर मेरा मन जरूर अशांत हो जाता था। लगता था कि काश इस युग में भी धरती फट जाए सोचते ही मान तो कुछ देर के लिए वहा रेस्ट कर लूं। पर किसी शापित देव सा ना सुनने लायक भी सुनने को मजबूर था।
तो इसी तिवारी साहब ने, मेरे तमाम अशुभ ग्रहों के एक जगह आ जाने के कारण प्रतीत तो यही होता है, मुझे फोनवा करके, आवाज बदल के खालिस भयंकर डान की माफिक एक ढोंगी पाखंडी की तरह राम राम कहने के बाद मुझे सूचित किया कि “आपके सोने के बिस्कुट आ गए है। बताये कहा डिलिवेरी करनी है। जाहिर सी बात है इस दुष्ट आत्मा से, भाई मै कहा जानता था कि तब तिवारी आवाज बदल कर बोल रहे है गोपनीय नंबर से, पूछना पड़ा कि आप बोल कौन रहे है। उधर से जवाब आया कि अरे लीजिये “आप अपने एजेंटो को नहीं पहचानते”। मुझे फिर कहना पड़ा कि आप बताते है कि कौन बोल रहे है कि मै बंद कर दू नंबर। तब उन्होंने राज खोला अरे मै तिवारी बोल रहा हूं पहचाना नहीं। एक नया नंबर मिल गया था जिसमे फ्री टॉक टाइम था तो सोचा इसका इस्तेमाल कर लूं। अब गरिया तो सकता नहीं था क्योकि वो मेरी आदत नहीं और दूसरा वो इस बोली भाषा में हिट था। वैसे ये कई धंधे आजमा चुके है सो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ लगता है इनके फील्ड में रिसेशन आ जाने क्या पता ससुरा गोल्ड बिस्कुट का डीलर बन गया हो ।
वो बहुत खुश था शोले के गब्बर की तरह मुझको डरा समझ के। लेकिन मै जिस वजह से परेशान था उसकी वजह वो नहीं थी जो तिवारी साहब समझ रहे थें। लेखनी की वजह से मै अपने नंबर सहित काफ़ी सर्कल्स में पहचाना हुआ हूँ जिसमे खाड़ी देशो के मित्र, अपना प्रिय पडोसी पाकिस्तान भी है, के लोग शामिल है, और इसके अलावा इंटेलिजेंस सर्विसेज के लोग भी है। इन साहब की नादान हरकत, जो क़ानूनी परिभाषा के तहत जुर्म की श्रेणी में आता है पर इनकी बोल्ड आत्मा इस नाजुक आत्मा की इस बात को मानने से इंकार करती थी, किसी विपत्ति को जन्म दे सकती थी। खैर इनको मुझे समझाना पड़ा कि टेक्नोलाजी के इस युग में जब भाई लोग मर्द हो के भी औरत की आवाज़ में बतिया सकते है, फर्जी स्टिंग आपरेशन होते है, मुझे इस बात की परवाह तो करनी पड़ेगी न कि उधर तिवारी ही बोल रहे थें बिना अपने किसी चमचों के। चमचा का मतलब यहाँ पे फटीचर मीडिया के लोग जो आवाज़ रिकार्ड करके खबरे बनाते है या चमचा माने वो जो फिल्मे परदे में एक मेन विलेन के पीछे पीछे चलते है। खैर मेरी बात की गंभीरता का वो आशय समझ गए पर ये बताने से नहीं चूके कि हाई प्रोफाइल नम्बरों से भी वो ऐसा ही कर सकते है और कोई उनका कुछ नहीं कर सकता या ऐसा करने से कुछ होता नहीं है।
हां आप सही कह रहे है कि कुछ नहीं होता मगर इन्ही अफवाहों के चलते सिक्योरिटी एजेंसीज की नींद हराम हो जाती है और असली वारदात के समय ये बेचारे कुछ नहीं कर पाते, महत्त्वपूर्ण ट्रेने ऐसी ही बातो के चलते समय से चल नहीं पाती, दंगो के वक्त इस तरह की बाते शोलो को और भड़काती है। अरे साहब कुछ नहीं होता है तो पीएमओ आफिस में डीलिंग कर लेते तो क्या पता तुम्हारे सोने के बिस्कुट इस देश की दरिद्रता कुछ कम कर देते! तिवारी जी हम जैसे मुद्रा विहीन के यहाँ तो तुम्हारी डीलिंग फ्लाप हो गयी लेकिन पीएमओ आफिस से भयंकर लोग तुम्हे उठाकर तो जरूर ही ले जाते, तुम्हारे सोने के बिस्कुट बिकते या न बिकते। नालायक कही का ये तिवारी कभी सुधर नहीं सकता। एक बचपन के मित्र की कायदे से मदद करने के बजाय लगा उसे सोने के बिस्किट खिलाने। पता नहीं तुम सोने के बिस्कुट बेचने की हिम्मत रखते हो कि नहीं लेकिन इतनी औकात तो रखते ही हो कि कम से एक मिनी ट्रक बिस्किट ही बच्चों के लिए मेरे घर भेजवा देते। कुछ मै खाता कुछ मोहल्ले के बच्चो को बटवा देता। उनकी दुआओं से तुम्हारी ज़िन्दगी संवर जाती। लेकिन आज जब एक ब्राह्मण ही दूसरे ब्राह्मण की धोती खीचने में लगा हुआ है तो तुम कैसे अपवाद बन जाते। लगे मुझ जैसे फक्कड़ आत्मा को ही सोने के बिस्कुट बेचने जो सदा से ही यही गीत गाता रहा हो कि “कोई सोने के दिलवाला, कोई चाँदी के दिलवाला, शीशे का है मतवाले तेरा दिल, महफ़िल तेरी ये नहीं, दीवाने कही चल”
तिवारी के बारे में मेरे गाँव की पगली लड़की, और इन तिवारी साहब को इस लड़की की बात बुरी नहीं लगनी चाहिए क्योकि वो भी तिवारी ही है, बिलकुल सही कहती थी कि जब “सौ पागल मरते है तो एक तिवारी का जन्म होता है”। पता नहीं कितनी सच थी उसकी बात लेकिन तिवारी लोगो में पायी जाने वाली अराजकता को देखता हूँ तो मन इस बात पे आकर टिक जाता है। खैर इन तिवारी साहब का निगम की ही तरह कितना बढ़िया जजमेंट सेंस है ये बताना जरूरी हो जाता है। ये बताना भी जरूरी हो जाता है कि इनको कक्षा चार से ये विलक्षण शक्ति प्राप्त थी कि कौन से लड़की किस लड़के से ज्यादा बतियाती थी। और ये न्यूज़ नमक मिर्च लगा के सब तक सर्कुलेट कर देते थें। मेरे क्लास की लड़की अगर मेरे मोहल्ले में रहती थी तो इनके पेट में दर्द जरूर होता था। और निगम का भी होगा ये तो तय था। इन दोनों की जजमेंट शक्ति कितनी उच्च थी। अभी पता चल जाएगा। खैर मै जब अपने गाँव में जाता था तो तिवारी सिर्फ यही सूंघ पाते थें कि जैसे मै इसी खतरनाक पगली लड़की से,जो तिवारी वर्ग में पाए जाने वाली सब महान शक्तियों से लैस थी, से बतियाने जाता था। ये तो कभी सूंघ नहीं सकते थे कि बरसात के कीचड भरे रास्ते, भयंकर ठण्ड से भरे दिन और राते, भीषण गर्मी में बिना किसी पंखे वाले कमरे में, किसी तरह जो भी मिला वो खाकर अपने खेतो में क्या हो रहा है देखता था। हा ये उन्होंने अनुमान लगा लिया कि गंगा नदी के तट पर स्विट्ज़रलैंड की हसीन वादियों में जैसे लोग टहलते है, वैसे ही मै लेकर उसको विचरण करता हूँगा। अब लखनऊ की चमकती रोमान्टिक गलियों में पले बढे, नाम मात्र रूप से गाँव के सामाजिक परिवेश को जानते हुए- कभी असल ब्राह्मण बहुल्य गाँव में तो कभी रहे ना होंगे-को इससे बेहतर क्या समझ में आ सकता था। मुझे इनकी समझ से कुछ लेना देना नहीं पर तिवारी साहब ये आप जान ले कि गाँव में चाहे वो गँगा के तट हो या खेत सुबह शाम नित्य कर्म करने वाले लोगो से पटे रहते है तो कोई कैसे किसी को इस तरह रोमान्टिक तरीके से घुमा सकता है? मै तो गाड़ी भी ड्राइव नहीं कर पता कि चल कही दूर निकल जाए ऐसा कुछ भी हो सकता। लेकिन इनको क्या और निगम को क्या। सोचने लगे तो यही सब सोच डाला। और सुनिए आप मेरे गाँव में आइये तो ये ट्राई भी मत करियेगा, हा किसी और के बारे में आप कुछ भी सोच ले ये अलग बात है, वर्ना गाँव के लोग कूट काट डालेंगे। गाँव वाले न शहर वालो को ठीक नज़र से देखते है और शहर वाले तो शहरीपने के चलते गाँव वालो को शुरू से ही गंवार समझते रहे है।
और निगम साहब को उस उम्र में जिसमे प्यार की भावना एक नैसर्गिक प्रक्रिया होती है ये साहब तब भी भयंकर फिल्मी अंदाज़ में मुझे समझाते थे “प्यार वो करते है जिनकी जागीर होती है”। वैसे उसकी बात में कडुवी सच्चाई थी ये मै मानता हूँ पर सच नहीं थी सोचने पर। बिल्कुल सच नहीं थी। क्योकि निगम जी जागीर वाले सब कुछ कर सकते है प्रेम नहीं कर सकते। ये ज्यादा से ज्यादा इस लड़की के साथ टहलेंगे, फिर कल किसी दूसरे के साथ टहलेंगे और अंत में आपको पता चलेगा इन्होने माता पिता का सम्मान करते हुएं रीति रिवाजों के साथ किसी जागीरवाली लड़की के साथ शादी कर ली। अपवाद हो कोई वो अलग बात है पर ज्यादातर तक जागीर वालो का इतिहास ऐसा ही रहता है प्रेम के नाम पर। वैसे निगम तिवारी से बतिया लेना क्योकि मुझसे कह रह था कि “अलीगंज सेक्टर डी” से कपूरथला काम्प्लेक्स की दूरी कोई लन्दन से पेरिस तक जितनी नहीं थी कि जो आके अपने बचपन के मित्र का हाल चाल भी न ले सके। ये कायस्थ वर्ग के चरित्र की निशानी है कि अपने सीमित स्वार्थ से ज्यादा दूर तक नहीं सोच पाते। ये अलग बात है बाभनो से पटती भी बहुत है जो इस सोच के ठीक विपरीत होते है।
वैसे बात सोने के बिस्किट से शुरू हुई थी तो समापन भी ऐसे ही होगा। भाई तिवारी अमीनाबाद चले जाना वहा अपने सड़ी मूंगफली स्कूल के ही एक परम मित्र रहते है अपने ही बचपन के जिनसे जब मै बातचीत करने का इच्छुक होता हूँ तो इस भय से नहीं करता हूँ कि कोई फायदा नहीं क्योकि आपने फ़ोन किया नहीं कि उधर से आवाज़ आएगी कि अरे वो तो मजलिस में गए है। बहुत अच्छा उसका बिज़नस सेन्स है। वो जरूर बिकवा देगा तुम्हारे बिस्कुट। नहीं तो इसी स्कूल के एक सज्जन खुर्रम नगर में रहते है जो फेसबुक मित्रो मे एक बेहतर क्लासिक पोज़ में मौजूद है चश्मे सहित। वहा चले जाना तुम्हारा काम हो जाएगा। ये लोग बहुत काबिल है। मेरे जैसे साधन विहीन लेखक वर्ग के जरिये तुम अपने सोने के बिस्किट कभी नहीं बेच पाओंगे। अब ये भी धंधा चालु कर दिया है तो कम से कम धंधे में तो थोडा से बेहतर जजमेंट सेंस रखो कि कहा तुम्हारा माल बेहतर बिक सकता है। ऐसे तो तुम दिवालिया हो जाओगे। आया समझ में। और मुझसे मिलने आना तो कम से कम पारले जी वाला बिस्कुट लेते आना। बचपन से इसी बिस्कुट की लत जो लगी है। सोने के बिस्कुट हज़म करने की लत मुझे कभी नहीं पड़ी और न पड़ेगी। और निगम तुम्हारे लिए तो यही लाइन उपयुक्त रहेगी: सोना नहीं, चांदी नहीं, अरे यार तो मिला जरा प्यार कर ले।
Pics Credit:
अक्ल नहीं नक़ल के सहारे पास होते बच्चे और लाइनों में सडती जवानी
मुझे याद आते है स्कूल के दिन जब चीटिंग करने के नायाब तरीके लोगो हम लोगो ने इजाद कर रखे थे. ये एक बहुत गौड़ रूप में छोटे स्तर पर व्याप्त था. मतलब इतनी ही नक़ल हम कर पाते थे कि इशारे से आगे वाले से कुछ पूछ लिया और अगर ईश्वर मेहरबान रहा और आगे वाला बंदा अच्छे मूड में रहा तो एक दो सूत्र बता देता था. इससें ज्यादा कुछ नहीं क्योकि इंग्लिश मीडियम के स्कूल में जल्लाद रूपी मैम के चलते इससें ज्यादा जुर्रत किसी की नहीं होती थी और यदि धर लिए गए तो फिर तो खैर नहीं. अब जैसे एक वाकया याद आता है कि फिजिक्स टेस्ट में कुछ नहीं आ रहा था. इज्ज़त बची रहे इस खातिर हिम्मत जुटा के अपने ठीक पीछे बैठी पढने में तेज़ लड़की से कुछ पूछा तो इस कदर आँख दिखाई कि फिर किसी से कुछ पूछ नहीं पाया. मामला इतना आसान रहता तो मै भूल गया होता हुआ. हुआ यही कि टीचर ने उस दिन कापी आगे पीछे एक्सचेंज करके चेक करवा दी. जिस लड़की से पूछा था उसी के पास कापी भी चेक करने चली गयी. जो नंबर मिल सकते थे वे भी चले गए. खैर इस मासूम से माहौल से गुज़रते हुए हम सब ने आगे चलकर मेहनत के बल पे सफलता हासिल की. पर आज का परिदृश्य बहुत बदला सा नज़र आता है. गुरु और शिष्य के समीकरण विकृत तो हुए ही है पठन पाठन का माहौल भी बहुत रसातल में चला गया है.
आज नक़ल सुनियोजित होती है जिसमे माफिया पैसे लेकर ठेके पे नक़ल कराते है ना करने देने पर प्रिंसिपल से लेकर गुरूजी तक को ठोक दिया जाता है. आज मास्टर साहब की सक्षमता इस बात से मापी जाती है कि वे नक़ल करा पाने में काबिल है कि नहीं. कापिया बदल दी जाती है. चेले लोग गुरु से सफा सफा पूछते है नक़ल की क्या व्यवस्था है जैसे कि नक़ल पे उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो. जो नक़ल करके पास हो गया वो सिकंदर और जो ना कर पाया वो सड़क पे मदारी के हाथो नाचने वाले बन्दर सी शक्ल वाला हो जाता है. हालात ये है कि जो कभी उन हालातो में पास हुएँ है जब नकल नहीं हुई बोर्ड में तो कहते है साहब हम तो कल्याणजी के ज़माने में बोर्ड परीक्षा पास किये है. एक वक्त ऐसा आया कि नक़ल की इतनी छूट मिली कि गोबर गणेश टाईप के बहुत सारे पप्पू भी अस्सी परसेंट से पास हो गए. बात थोड़ी गंभीर है. इतने झुण्ड के झुण्ड बच्चे इस तरह थोक के भाव पास हो रहे है और उतने ही थोक के भाव कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इंजिनीयरिंग कालेज में एडमिशन भी ले रहे है. जो नहीं पैसा जुटा पाए वे यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिए फिर लग गए आई ए एस की तैयारी में!! य़ूजीसी इस बात से हैरान परेशान है कि रिसर्च की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है. अब ये नहीं समझ में आता कि इस तरह की प्राथमिक और उच्च शिक्षा हासिल करने वाले अच्छे शोध पत्र कैसे तैयार करेंगे ?
प्राथमिक का हाल ये है कि मिड डे मील कैसे बने प्रिंसिपल साहब इसी में उलझे रहते है. नए कानून के मुताबिक बच्चो के स्कूल में रहना अनिवार्य है अब इस अनिवार्यता को पूरी करने की धुन में सब परेशान है. जो बच्चे अंग्रेजी मीडियम में अन्य बोर्ड से पढ़ रहे है उन पर ज्यादा बोझ ना पड़े इसलिए ग्रेडिंग सिस्टम आ गया है. अब बच्चे आसानी से पास हो सकते है. ऐसे पास होके आगे क्या करेंगे राम जाने पर हा जो सक्षम है वे अच्छी महंगी कोचिंग करके किसी एम एन सी में आगे जाके खप जायेंगे. पर बाकी क्या करेंगे ? वे चेन छीनेगे, उत्पात मचायेंगे, राजनैतिक कार्यकर्ता बनके लूटपाट करेंगे, छेड़छाड़ करेंगे और इसके सिवा ना खप पाने वाले बच्चो और युवको का क्या भविष्य है ? अभी अखिलेश सिंह ने सेवायोजन नाम का जिन्न पैदा किया और इतने सारे युवक युवतियां इसे अपने वश में करने निकल पड़े की प्रशासन के पसीने छूट गए. क्या ऐसी मारा मारी नहीं बताती कि हमने किस तरह कि शिक्षा व्यवस्था कायम की है कि जिसमे इस तरह से लोग नौकरी के लिए मरकट रहे है? रोज ही पढ़ता हूँ मिलिटरी भर्ती के दौरान भदगड मची, लाठीचार्ज हुआ, या लोग फार्म लेने या जमा करते वक्त लाइन में बेहोश हो गए, भर्ती परीक्षाओ में इतने परीक्षार्थी आये कि सब जगह अव्यवस्था फैल गयी. इस देश में लोग तब तक सरकारी नौकरी का फार्म भरते रहते है जब तक उम्र से मजबूर ना हो जाए. और सरकारी नौकर बनकर किस तरह मानव से दानव बनते ये एक अलग दास्तान है. या कॉल सेंटर टाईप संस्थान में घुस के “पिराईवेट” ( प्राइवेट) गुलाम बन के किस तरह जीवन यापन कर रहे है ये एक अलग कहानी है.
क्या हमको नहीं लगता ये रोज़ी रोटी के लिए पैदा की गयी शिक्षा व्यवस्था से हमने सिर्फ शोषण को जन्म देने वाली व्यवस्था पैदा की है ? क्या शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य ये नहीं होना चाहिए कि मानवीय मूल्यों की रक्षा हों और मनुष्य के आत्मसम्मान के साथ खेलवाड़ ना हो ? क्या फायदा इस शिक्षा व्यस्था का जिसने इस व्यवस्था को जन्म दिया हो कि लाशो पर भी दलाली चल रही हो ? शिक्षा रुपैया पैदा करने का साधन नहीं मनुष्य को बेहतर बनाने का साधन है. जब तक नहीं समझेंगे तब जवानी लाइनों में सडती रहेगी!!!
Pics Credit:
RECENT COMMENTS