मुझसा अंग्रेजी का लेखक हिंदी में क्यों लिखता है जी?
हिंदी से गहरा प्रेम बचपन सें है, संस्कृत और उर्दू से भी है. आप मेरे ब्लाग पर फिर से जाए तो ये सही है अंग्रेजी में अधिकतर लेख है क्योकि मुख्यतः वो अंग्रेजी लेखो के लिए बना है एक अंग्रेजी के लेखक के रोल निर्वाहन के कारण. हिंदी में लिखना प्रारंभ इसी हिंदी प्रेम और हिंदी सेवा के खातिर किया. इस के लिए अंग्रेजी के मंचो पर भी विद्वान् लोगो से काफी बहस की. तो बात साफ़ है अंग्रेजी का लेखक होने के बाद भी, समयाभाव होते हुए भी हिंदी में लेख अंग्रेजी के ब्लाग पर लिख ले रहा हूँ, या ऐसे मंचो पे हिंदी लेख पोस्ट कर देता हूँ जहाँ हिंदी पर कुछ कहने सुनने पर प्रतिबन्ध है तो किसी को मेरे हिंदी प्रेम पर कोई शक-सुबहा नहीं होना चाहिए. ये जानकर आपको आश्चर्य होगा किसी अंग्रेजी फोरम पे जहा हिंदी पे पाबन्दी थी उसी मंच पर इन्टरनेट जगत में हिंदी के राष्ट्रभाषा सम्बन्धी सवाल पर एक सबसे लम्बी बहस का आयोजन किया. लिहाजा यथाशक्ति मेरी तरफ से जो हो सकता है वो मेरी तरफ से हो रहा है जबकि ना मेरे पास आर्थिक बल है और ना ही संसाधन. मेरे बहुत से लेखो का लोगो ने जब हिंदी अनुवाद चाहा मैंने उन्हें उपलब्ध करा दिया. कितने हिंदी के पत्रकार बंधुओ के पास अपने ही अंग्रेजी लेख का अपना ही किया अनुवाद पड़ा है जो उनके आग्रह पर मैंने उनको दिया है. अब देखिये आपके ये हिंदी मित्र कब तक इसे पब्लिश कर हरियाली फैलाते है!
लेकिन इसके बाद भी मै रहूँगा अंग्रेजी का लेखक ही. उसके कई कारण है. एक तो हिंदी जगत में व्याप्त गन्दी राजनीति जिससें मुझे घिन्न आती है. एक लेखक होने के नाते मुझे लिखने में दिलचस्पी है ना कि राजनीति में जिसका हिंदी जगत से बड़ा गहरा याराना है. राजनीति मै बेहतर कर सकता हूँ पर तब लिखने के लिए समय कहा मिलेगा? खैर जो सबसे बड़ा कारण है वो आपकी व्यापक पहचान. अंग्रेजी में ना लिखता तो शायद विभिन्न देशों में मुझे इतने प्रतिभवान लेखको, मित्रो का प्रेम मुझे ना मिलता. अंग्रेजी में लिखने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि अनुवाद का भय खत्म हो जाता है क्योकि अनुवादित होते ही साहित्य रसहीन हो जाता है ऐसा मेरा मानना है. अनुवादित चीज़े मै केवल मजबूरी में पढता हूँ. सो मेरे साथ ये तो भय नहीं ना रहा कि अपनी बात सही सही लोगो तक पहुच रही है कि नहीं. किसी की इस बात से मै इत्तेफाक मै नहीं रखता कि मेरे लेखो के विषय देश काल से बाधित है. फिर से देखे मेरे लेख और आपको उसमे ग्लोबल मिलेगा लोकल की बाहें थामे.
ये बात भी महत्त्वपूर्ण है कि नीति निर्माता चाहे लोकल स्तर पे हो या ग्लोबल स्तर पर हगते मूतते कैसे भी हो पर समझते अंग्रेजी में ही है. सो जब तक आप इनसे अंग्रेजी में बकैती नहीं करेंगे तब तक ये आप की बात समझने से रहे. ये भी जानना उचित रहेगा कि अंग्रेजी मातृभाषा ना होने के कारण भाव के सम्प्रेषण के लिए कम से कम मेरे लिए तो बहुत सही नहीं लगती और भाषा की शुद्धता को ऊँचे स्तर तक ले जाने के बाद भी भाषा सम्बन्धी गलतियां रह जाती है. इसके बाद भी मुझे बहुत स्नेह मिला है विदेशी भूमि पर गुणीजन लोगो के द्वारा. और ऐसा भी नहीं कि यहाँ राजनीति नहीं हुई. जम के हुई, मेरा विरोध हुआ, भाषा प्रयोग पर कुछ वर्ग विशेष की तरफ से आपत्ति हुई, सम्मान देने के बाद मेरे साईट को ब्लाक करने जैसी अपमानजनक बाते हुई पर ईश्वर की कृपा से पूर्व में अच्छा काम इतना हो चुका था कि मेरी छवि को कुछ नुकसान नहीं पंहुचा. खैर ये सब तो लेखन जगत में आम बात है. मैंने जब डेढ़ दशक पहले लिखना शुरू किया तभी देशी विदेश अखबारों मैग्जीनो में छप चुका था, अच्छे विदेशी संपादको और लेखको से काफी विचार विमर्श कर चुका था, जिसमे जेरेमी सीब्रुक (द स्टेट्समैन, कलकत्ता से सम्बंधित स्तंभकार), रामचंद्र गुहा( द टेलीग्राफ, कलकत्ता) और बिल किर्कमैन ( द हिन्दू, मद्रास) कुछ उल्लेखनीय नाम है इसलिए जब ऑनलाइन हुआ तब ऐसी सतही बातो का मुझ पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ. हाँ थोड़ी तकलीफ जरूर हुई.
अब इतना आगे बढ़ चुका हूँ कि पीछे देखनें का कोई मतलब नहीं. अंग्रेजी में लिखना सहज और मधुर लगता है अब. मेरी हिंदी सेवा वाली बात से आप सब निश्चिंत रहे. हिंदी के लिए काम करने वाले सरकारी अफसरों से हम संसाधन विहीन अंग्रेजी के लेखक बेहतर काम कर रहे है बिना नाम-वाम के मोह या मुद्रा के लालच में पड़े. चलते चलते राज की बात सुनते चले कि ईमानदार हिंदी या अंग्रेजी बुद्धिजीवी लेखक कम से कम एक मामले में बराबर है: इनको ढंग का पैसा ना तो हिंदी के प्रकाशक देते है और ना ही अंग्रेजी जगत के प्रकाशक!
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