यश चोपड़ा: अवैध सम्बन्धो को प्रमोट करती इनकी भव्यतापूर्ण सफल रोमांटिक फिल्मे
यश चोपड़ा की फिल्मे मुझे कभी न रास आई।इनको रोमांटिक फिल्मो का बेताज बादशाह माना जाता रहा है। रूमानियत को एक सुनहरे कैनवास पर पूरे तामझाम के साथ उतारना इन्हें खूब आता था।ये सही है कि एक औसत दर्शक सिनेमा में असल जीवन की छाप देखने नहीं जाता बल्कि अपने अधूरे सपनो को परदे पे अवतरित होते हुए देखने जैसा अनुभव बटोरने के लिए जाता है। और दर्शको की इसी कमजोरी को यश चोपड़ा ने अच्छी तरह समझा और उसकी शानदार प्रस्तुति की। लेकिन मुझे लगता है यही पे यश चोपड़ा मात खा गये। इतना समर्थ फ़िल्ममेकर सिर्फ दर्शको की चाह पूरी करने के लिए और वक़्त के साथ चलने की धुन में बेहतरीन सिनेमा बनाने से रह गया। यश चोपड़ा की कुछ एक फिल्मे जैसे वक़्त, धर्मपुत्र, इत्तेफ़ाक, त्रिशूल, दीवार, काला पत्थर, मशाल और एक दो कुछ और फिल्मे छोड़ दे तो उनके सारी फिल्मे प्रेम त्रिकोण या कुछ कुछ अवैध संबंधो जैसे टाइप की थीम पर बनी है। मै यश चोपड़ा के इसी “तीसरा कौन” रूख पर आलोचनात्मक दृष्टि डालना चाहूँगा। “इत्तेफाक ” भी लगभग अवैध संबंधो पर है लेकिन मै इसको एक सुंदर मर्डर मिस्ट्री मानता हूँ। राजेश खन्ना ने जितने शेड्स इस फ़िल्म में दिखायें है सहज रूप से मुझे नहीं लगता कि आगे की फिल्मो में वे वैसा कर पाए। यहाँ तक कि नंदा ने भी नई ऊँचाइयों को छुआ जो कि ज्यादातर ग्लैमरस गर्ल ही रही है।
अब आते है “तीसरा कौन” के थीम पर। मुझे ये एंगल ही बहुत घिनौना लगता है फिर इस पर बनी फिल्मे देखना और इनसे उभरी सोच को आत्मसात करना तो मेरे लिए बहुत दुष्कर कार्य है। खेद की बात है यश चोपड़ा ने ऐसी विकृत एंगल को बढ़ावा दिया। इस प्रोडक्शन हाउस में बनी फिल्मे अधिकतर कही न कही विकृति को ग्लोरिफाय करती मिलेंगी। बात ये है कि यश चोपड़ा के पास किसी मुद्दे की गंभीर समझ नहीं थी जैसी बी आर चोपड़ा के पास थी। इसलिए बी आर चोपड़ा की एक अकेली “गुमराह” यश चोपड़ा की इसी विषय पर बनी दर्जनों बेकार फिल्मो से बेहतर है। यशजी के पास संवेदनशीलता का अभाव था इसीलिए राज कपूर से बहुत पीछे रह गए। भला हो साहिर साहब का कि इनके फिल्मो के लिए इतने दिल को छु लेने वाले गीत लिख गए। इनके फ़िल्म में स्टाईल का बड़ा बोलबाला था पर यहाँ भी ये फिरोज़ खान ने हमको ये बेहतर सिखाया कि स्टाईल एलिमेन्ट का कैसे इस्तेमाल करना चाहिए। यश साहब के पास बस दर्शको को बांधे रखने की कला थी भव्यता और मधुर संगीत का आवरण ओढे बेकार सी विषयवस्तु वाली थीम के साथ।
ये कहना गलत नहीं होगा कि अवैध संबंधो को जस्टिफाय और ग्लोरिफाय या विकृति को बढ़ावा देने में इस प्रोडक्शन हाउस की फिल्मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है।आप नब्बे के दशक में आई “डर” देखिये। दर्शको को इससें कुछ लेना देना नहीं था कि अंत में सनी दयोल शाहरुख के किरदार पर फाईट सीन में हावी होकर उभरता है। इस फ़िल्म का सन्देश वस्तुत: इस बात को हाईलाइट करता था कि किसी भी सभ्य औरत के ज़िन्दगी में घुस कर उसे परेशान कर सकते है। अब आप सनी दयोल बन कर रोक सकते है तो रोकिये नहीं तो आपका घर तबाह। और बिडम्बना देखिये कि इस विकृति सम्पन्न हीरो को कितना रोमांटिक दिखाया गया है। तो ये थी यश साहब की काबिलियत। आगे यश साहब ने फिल्मे तो नहीं डाइरेक्ट की लेकिन आदित्य चोपड़ा और अन्य नए निर्देशकों ने इनके बैनर तले फूहड़ पर कामयाब फिल्मे बनायी। “दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे” की अपार सफलता इस बात का प्रमाण है कि दर्शको को घटिया फिल्मो में भी मायने ढूँढने का चस्का लग चुका था। रास्ते कितने भी घटिया हो पर अगर वो मंजिल तक पहुचाते है तो ठीक है। एक आदर्शवादी बाप को चालाक और धूर्त नायक के आगे झुकना पड़ सकता है और कमाल है ये सब उसने प्रेम के लिए किया, ये इसलिए किया कि भगाना उसे पसंद नहीं था और इसलिए झूठ बोलकर घर में नौटंकी करना जरूरी था। दर्शको का टेस्ट और स्तर कितना गिर गया है वो हमे इन फिल्मो की सफलता से पता चलता है।
रास्ते अपवाद स्वरूप गलत हो सकते है लेकिन सिर्फ धूर्तता और मक्कारी से कामयाबी सुनिश्चित होती अगर लोगो ने इस बात को स्वीकार कर लिया है तो निश्चित ही भारतीय समाज पतन के रास्ते पर है। भारतीय समाज इस बात को समझे या न समझे लेकिन इस प्रोडक्शन हाउस ने समय की नब्ज को पकड़ा कि अब मार्केट से फिल्मो का सीधा कनेक्शन है मूल्य या आदर्श गए तेल लेने। इसलिए इस बैनर ने तमाम बौड़म फिल्मे बनायीं ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर जैसे “हम तुम” , “सलाम नमस्ते”, तथाकथित राष्ट्रीयता का तड़का लिए “चक दे इंडिया” इत्यादि। कुल मिला के भव्यता और दर्शकोको बांधे रखने की कला ने ऐसी फिल्मो को जन्म दिया जिनका यथार्थ से कुछ लेना देना नहीं। इनकी फिल्मे उस क्लास के लिए ज्यादा थी जिनके दिमाग में लगभग भूसा भरा हो और साथ में पेट से भी टंच हो। इनकी बाद की फिल्मो का सामजिक मूल्य कुछ नहीं सिर्फ आत्मकेंद्रित किरदारों का ये बताना कि “बैटल फॉर सर्वाइवल” में धूर्तता और मक्कारी बहुत जरूरी है। हो सकता है “तीसरा कौन” आपके जीवन का थीम बन जाए पर इस दर्द को जिस जेन्युइन दर्द और एहसास के साथ आप महेश भट्ट की फिल्मो या अन्य कला फिल्मो के निर्देशकों में पाते है उनसे शायद यश साहब की फिल्मे कोसो दूर थी। और साथ में दूर थे यश साहब के फिल्मो के शौक़ीन दर्शक वर्ग जो दूर तक सोचने को गुनाह मानते थे। चलते चलते सिर्फ मै ये कहूँगा कि यश चोपड़ा एक कामयाब फ़िल्म निर्देशक थें पर अच्छे नहीं। यश साहब को देखकर ये समझ में आता है कि कामयाब होना मतलब अच्छा ही हो ऐसा नहीं होता।
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