भारतीय फिल्मो में नायिकाओ का रोल मार्फ़त मनीषा कोईराला और उर्मिला मातोंडकर

मनीषा कोईराला: इस बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री को भी खराब समझौते करने पड़े और फिर भी हाशिये में जाना पड़ा!
भारतीय फिल्मो ने सौ सालो का फासला तय कर लिया है। ये अवधि काफी है इसके कुछ गुण दोषों पर नज़र डालने के लिये। भारतीय फिल्मी नायिकाओ के उत्थान पतन का जिक्र करना जरूरी है। भारतीय नायिकाओ के इस चरित्र को आधुनिक काल के दो अभिनेत्रियों मनीषा कोईराला और उर्मिला मातोंडकर के अभिनय ग्राफ पर नज़र डालने से बेहतर समझा जा सकता है। इसके पहले इस बात का जिक्र करना जरूरी हो जाता है कि जबसे भारतीय फिल्मे बन रही है तब से नायिकाओ का काम केवल पेड़ के आस पास टहल घूम कर नाचने कूदने का भर का ही था। अब भी कुछ नहीं बदला है। झरने की जगह स्विमिंग पूल आ गया है। पहले नायिकाएं कूल थी अभिव्यक्ति के मामले में पर जब से “वुमन ऑफ़ सब्सटेंस” का अवतरण हुआ तब से वो और अधिक बोल्ड हो चली है। कम कपड़ो में भी शालीनता की रक्षा की वकालत हो रही है। पहले महिला निर्देशकों, गीतकारो का अकाल सा था लेकिन अब ऐसा नहीं है। लेकिन इसके बाद भी ये कहा नहीं जा सकता कि नायिकाओ के स्पेस में कोई गुणात्मक परिवर्तन आया हो। जो स्थिति पहले थी वो अब भी है। या यूँ कहे कि अब जब पैसा बनाने की हवस, कॉर्पोरेट और माफियाओ का गठजोड़ अपने चरम उफान पर है तो गुणात्मक परिवर्तन की अपेक्षा रखना तारो का दिन में उगने का ख्वाब देखने के सामान है।
उर्मिला मातोंडकर और मनीषा कोईराला के करियर पर दृष्टि डालने से फ़िल्म में नायिकाओ के महत्त्व की एक दिलचस्प तस्वीर उभर कर आती है। मै मूलतः मेनस्ट्रीम सिनेमा की बात कर रहा हूँ। कला फिल्मो में तो हम देखते है शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल, सुहासिनी मूले इत्यादि अभिनेत्रियों ने अच्छा काम किया और इसके साथ ही मेनस्ट्रीम सिनेमा में अच्छा काम किया। ये अलग बात है स्टार वैल्यू प्रधान मुख्य धारा के सिनेमा में इनके लिए ज्यादा कुछ करने के लिए था नहीं। सुष्मिता सेन जो कि एक्टिंग टैलेंट में ऐश्वर्या से कही आगे थी उनको तो आज के महिला निर्देशकों के उपस्थिति के बाद ज्यादा कुछ करने को नहीं मिला लेकिन फूहड़ अभिनय करने वाली ऐश्वर्या राय की झोली में कई बड़े बैनर की फिल्मे आयी। हर फ़िल्म में बकवास अभिनय करने के बाद भी आप बदन उघाड़े ऐश्वर्या को कैनंस फ़िल्म समारोह में देख सकते है। इसी से समझ में आ जाता है कि पॉपुलर सिनेमा में टैलेंट कम काम आता है कुछ और सतही समीकरण ज्यादा काम आता है।
उर्मिला ने मुमताज़ की तरह ही बचपन से फिल्मो में काम करना शुरू कर दिया। पिंजर और सत्या जैसी फिल्मो में काम कर चुकी उर्मिला एक बेहद समर्थ अभिनेत्री है लेकिन कैसी बिडम्बना है कि हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री ने इन्हें बदन प्रधान अभिनेत्रियों में अग्रिम पंक्तियों ला खड़ा किया। इसके बाद वो राम गोपाल वर्मा कैम्प तक ही सिमट के रह गयी है। लेकिन आप उर्मिला की फिल्मे देखे तो समझ में आएगा कि वेस्टर्न वर्ल्ड ने जो एक्टिंग के मापदंड तय किये है उनमे उर्मिला शानदार रूप से खरी उतरती है। बल्कि उनसे बीस ही है क्योकि डांसिंग टैलेंट में अभी विदेशी अभिनेत्रियाँ इतनी सक्षम नहीं है जितनी की उर्मिला है। ये आपको तब दिखता है जब आप चमत्कार फ़िल्म में ट्रेन कम्पार्टमेंट में फिल्माया बिच्छू गीत देखते है।
अभिनय की जिस बारीकियो को उर्मिला ने “कौन” फ़िल्म में प्रदर्शित किया वो किसी साधारण टैलेंट से ओतप्रोत अभिनेत्री के बूते के बाहर है। इसलिए खेद होता है कि इतनी सक्षम अभिनेत्री को मुख्यधारा सिनेमा में बदन दिखाऊ दौड़ में शामिल होना पड़ा। एक सक्षम अभिनेत्री को रेस में बने रहने के लिए क्यों बदन दिखाने की कला में आगे रहना पड़ता है? ये परिपाटी किसने स्थापित की? आप कह सकते है बाज़ार की बड़ी पूँजी लगी होती है पर पूँजी तो हालीवुड की फिल्मो में हमसे अच्छी लगती है पर टैलेंट से वो तो समझौता नहीं करते! खैर आज की नयी अभिनेत्रियों को देखे तो कुछ एक नामो को छोड़ दे तो अधिकतर के पाद टैलेंट तो कुछ नहीं लेकिन बिकनी पहनने में संकोच ना करने के कारण वो मुख्य धारा में कामयाब है। यहाँ तक कि एक हाल की अभिनेत्री ने जिसने पहली फ़िल्म में साधारण औरत का किरदार किया था उसने भी अपनी अगली ही एक अन्य फ़िल्म में बिकनी में आगाज़ किया!
मनीषा कोईराला के उदाहरण से आपको ये समझ में आ जाएगा कि हमारे यहाँ टैलेंट की समझ और परख कितनी है। मनीषा ख़ामोशी, बॉम्बे, गुप्त, मन और अकेले हम और अकेले तुम में शानदार अभिनय करने के बाद हाशिये पर चले गयी। यहाँ तक कि उनको अपने को सुर्खियों में रहने के लिए निम्न स्तर की फिल्मो में काम करना पड़ा। साफ़ है कि उगते सूरज को सलाम करने वाली इस इंडस्ट्री ने मनीषा को तज दिया। आज कैंसर से जूझती मनीषा को इंडस्ट्री संज्ञान में लेना उचित नहीं समझती। स्पष्ट है ग्लोबल वर्ल्ड में जो पैसा पैदा कर सकता है चाहे चमड़ी बेचकर ही क्यों न बस उसी की क़द्र है। टैलेंट है तो ठीक और नहीं है तब भी ठीक अगर आप पैसा पैदा करने के समीकरण में फिट बैठते है तो। सनी लियोन और वीना मालिक का चमकता सितारा तो यही बताता है। उर्मिला और मनीषा के प्रतिभा को सलाम कि इस अंधे युग में भी टैलेंट के महत्त्व को बरकरार रखा।
पिक्स क्रेडिट:
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