यश चोपड़ा: अवैध सम्बन्धो को प्रमोट करती इनकी भव्यतापूर्ण सफल रोमांटिक फिल्मे
यश चोपड़ा की फिल्मे मुझे कभी न रास आई।इनको रोमांटिक फिल्मो का बेताज बादशाह माना जाता रहा है। रूमानियत को एक सुनहरे कैनवास पर पूरे तामझाम के साथ उतारना इन्हें खूब आता था।ये सही है कि एक औसत दर्शक सिनेमा में असल जीवन की छाप देखने नहीं जाता बल्कि अपने अधूरे सपनो को परदे पे अवतरित होते हुए देखने जैसा अनुभव बटोरने के लिए जाता है। और दर्शको की इसी कमजोरी को यश चोपड़ा ने अच्छी तरह समझा और उसकी शानदार प्रस्तुति की। लेकिन मुझे लगता है यही पे यश चोपड़ा मात खा गये। इतना समर्थ फ़िल्ममेकर सिर्फ दर्शको की चाह पूरी करने के लिए और वक़्त के साथ चलने की धुन में बेहतरीन सिनेमा बनाने से रह गया। यश चोपड़ा की कुछ एक फिल्मे जैसे वक़्त, धर्मपुत्र, इत्तेफ़ाक, त्रिशूल, दीवार, काला पत्थर, मशाल और एक दो कुछ और फिल्मे छोड़ दे तो उनके सारी फिल्मे प्रेम त्रिकोण या कुछ कुछ अवैध संबंधो जैसे टाइप की थीम पर बनी है। मै यश चोपड़ा के इसी “तीसरा कौन” रूख पर आलोचनात्मक दृष्टि डालना चाहूँगा। “इत्तेफाक ” भी लगभग अवैध संबंधो पर है लेकिन मै इसको एक सुंदर मर्डर मिस्ट्री मानता हूँ। राजेश खन्ना ने जितने शेड्स इस फ़िल्म में दिखायें है सहज रूप से मुझे नहीं लगता कि आगे की फिल्मो में वे वैसा कर पाए। यहाँ तक कि नंदा ने भी नई ऊँचाइयों को छुआ जो कि ज्यादातर ग्लैमरस गर्ल ही रही है।
अब आते है “तीसरा कौन” के थीम पर। मुझे ये एंगल ही बहुत घिनौना लगता है फिर इस पर बनी फिल्मे देखना और इनसे उभरी सोच को आत्मसात करना तो मेरे लिए बहुत दुष्कर कार्य है। खेद की बात है यश चोपड़ा ने ऐसी विकृत एंगल को बढ़ावा दिया। इस प्रोडक्शन हाउस में बनी फिल्मे अधिकतर कही न कही विकृति को ग्लोरिफाय करती मिलेंगी। बात ये है कि यश चोपड़ा के पास किसी मुद्दे की गंभीर समझ नहीं थी जैसी बी आर चोपड़ा के पास थी। इसलिए बी आर चोपड़ा की एक अकेली “गुमराह” यश चोपड़ा की इसी विषय पर बनी दर्जनों बेकार फिल्मो से बेहतर है। यशजी के पास संवेदनशीलता का अभाव था इसीलिए राज कपूर से बहुत पीछे रह गए। भला हो साहिर साहब का कि इनके फिल्मो के लिए इतने दिल को छु लेने वाले गीत लिख गए। इनके फ़िल्म में स्टाईल का बड़ा बोलबाला था पर यहाँ भी ये फिरोज़ खान ने हमको ये बेहतर सिखाया कि स्टाईल एलिमेन्ट का कैसे इस्तेमाल करना चाहिए। यश साहब के पास बस दर्शको को बांधे रखने की कला थी भव्यता और मधुर संगीत का आवरण ओढे बेकार सी विषयवस्तु वाली थीम के साथ।
ये कहना गलत नहीं होगा कि अवैध संबंधो को जस्टिफाय और ग्लोरिफाय या विकृति को बढ़ावा देने में इस प्रोडक्शन हाउस की फिल्मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है।आप नब्बे के दशक में आई “डर” देखिये। दर्शको को इससें कुछ लेना देना नहीं था कि अंत में सनी दयोल शाहरुख के किरदार पर फाईट सीन में हावी होकर उभरता है। इस फ़िल्म का सन्देश वस्तुत: इस बात को हाईलाइट करता था कि किसी भी सभ्य औरत के ज़िन्दगी में घुस कर उसे परेशान कर सकते है। अब आप सनी दयोल बन कर रोक सकते है तो रोकिये नहीं तो आपका घर तबाह। और बिडम्बना देखिये कि इस विकृति सम्पन्न हीरो को कितना रोमांटिक दिखाया गया है। तो ये थी यश साहब की काबिलियत। आगे यश साहब ने फिल्मे तो नहीं डाइरेक्ट की लेकिन आदित्य चोपड़ा और अन्य नए निर्देशकों ने इनके बैनर तले फूहड़ पर कामयाब फिल्मे बनायी। “दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे” की अपार सफलता इस बात का प्रमाण है कि दर्शको को घटिया फिल्मो में भी मायने ढूँढने का चस्का लग चुका था। रास्ते कितने भी घटिया हो पर अगर वो मंजिल तक पहुचाते है तो ठीक है। एक आदर्शवादी बाप को चालाक और धूर्त नायक के आगे झुकना पड़ सकता है और कमाल है ये सब उसने प्रेम के लिए किया, ये इसलिए किया कि भगाना उसे पसंद नहीं था और इसलिए झूठ बोलकर घर में नौटंकी करना जरूरी था। दर्शको का टेस्ट और स्तर कितना गिर गया है वो हमे इन फिल्मो की सफलता से पता चलता है।
रास्ते अपवाद स्वरूप गलत हो सकते है लेकिन सिर्फ धूर्तता और मक्कारी से कामयाबी सुनिश्चित होती अगर लोगो ने इस बात को स्वीकार कर लिया है तो निश्चित ही भारतीय समाज पतन के रास्ते पर है। भारतीय समाज इस बात को समझे या न समझे लेकिन इस प्रोडक्शन हाउस ने समय की नब्ज को पकड़ा कि अब मार्केट से फिल्मो का सीधा कनेक्शन है मूल्य या आदर्श गए तेल लेने। इसलिए इस बैनर ने तमाम बौड़म फिल्मे बनायीं ओवरसीज मार्केट को ध्यान में रखकर जैसे “हम तुम” , “सलाम नमस्ते”, तथाकथित राष्ट्रीयता का तड़का लिए “चक दे इंडिया” इत्यादि। कुल मिला के भव्यता और दर्शकोको बांधे रखने की कला ने ऐसी फिल्मो को जन्म दिया जिनका यथार्थ से कुछ लेना देना नहीं। इनकी फिल्मे उस क्लास के लिए ज्यादा थी जिनके दिमाग में लगभग भूसा भरा हो और साथ में पेट से भी टंच हो। इनकी बाद की फिल्मो का सामजिक मूल्य कुछ नहीं सिर्फ आत्मकेंद्रित किरदारों का ये बताना कि “बैटल फॉर सर्वाइवल” में धूर्तता और मक्कारी बहुत जरूरी है। हो सकता है “तीसरा कौन” आपके जीवन का थीम बन जाए पर इस दर्द को जिस जेन्युइन दर्द और एहसास के साथ आप महेश भट्ट की फिल्मो या अन्य कला फिल्मो के निर्देशकों में पाते है उनसे शायद यश साहब की फिल्मे कोसो दूर थी। और साथ में दूर थे यश साहब के फिल्मो के शौक़ीन दर्शक वर्ग जो दूर तक सोचने को गुनाह मानते थे। चलते चलते सिर्फ मै ये कहूँगा कि यश चोपड़ा एक कामयाब फ़िल्म निर्देशक थें पर अच्छे नहीं। यश साहब को देखकर ये समझ में आता है कि कामयाब होना मतलब अच्छा ही हो ऐसा नहीं होता।
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एक सार्थक संगीत चर्चा के झरोखे से: हम क्यों आज के शोर को संगीत समझे ?
[ पाठको से अनुरोध है कि इस लेख को बेहतर समझने के लिए इस चर्चा को अवश्य देखे जो कि इस लेख पे हुई है श्रोता बिरादरी पर : की बोर्ड पे बोल फिट कर गीत रचने वाले ये आज के बेचारे संगीतकार. इस लेख के कमेन्ट बॉक्स में चर्चा को डाल दिया गया है. यदि उसे पढ़कर इस लेख को पढेंगे तो ज्यादा आनंद आएगा ]
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इस बात को देख के मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि जिस स्तर कि ये चर्चा हो रही है वो बहुत दुर्लभ है. दिलीपजी की जितनी भी प्रसंशा की जाए वो कम है क्योकि मुझे लगता है कि वो ना सिर्फ समस्या क्या है उसको समझ रहे है या उसको बहुत इमानदारी से समझने की कोशिश कर रहे है बल्कि नए नए तथ्यों के साथ और नए एंगल से चीजों को समझा रहे है. मै कुछ नयी बातें कहूँ इसके पहले जो कुछ बाते कही गयी है उनको समेटते हुए कुछ कहना चाहूँगा. सजीव सारथी जी की बातो को संज्ञान में लेना चाहूँगा. सजीवजी आप बेहद अनुभवी है और आपकी समझ की मै दाद देता हूँ. आप बहुत नज़दीक से संगीत जगत में हो रहे बदलाव को नोटिस कर रहे है. लिहाजा आपकी बात को इग्नोर करना या फिर इसके वजन को कम करके तोलना किसी अपराध से कम नहीं और मै तो इस अपराध को करने से रहा. बल्कि मै तो खुश हूँ इस बात से कि आपने कितने गंभीरता से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. मै चूँकि किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य में व्यस्त था लिहाज़ा कमेन्ट कर नहीं पाया पर रस बहुत ले रहा था आप के, दिलीपजी, अरुणजी और संजयजी की बातो का. मै कुछ बातो को अपने स्टाइल से कहूँगा जो सरसरी तौर से देखने वालो को ऊँगली करना लग सकता है पर यदि आप मनन करे तो उसके छुपे आयाम आपको नज़र आ सकते है. कृपया सम्मानित सदस्य इसे एक हेअल्थी रेजोएँडर (healthy rejoinder) के ही रूप में ग्रहण करे और चूँकि आप लोग बेहद काबिल है संगीत के सूक्ष्म पहलुओं को ग्रहण करने में तो उम्मीद करता हूँ कि इन बातो को सही आँख से देखने की कोशिश करेंगे..
सजीवजी आपकी कुछ बातो की तरफ आपका ध्यान खीचना चाहूँगा. एक बात तो संगीत के विविधता के सन्दर्भ में है और वो ये है कि ” उस आलेख से आप वाह वाही लूट सकते हैं पर समय के साथ हमारे संगीत में आ रही विविधताओं पर भी कुछ लिखिए “. देखिये साहब हम बहुत युवा है इतने उम्रदराज़ नहीं हुएँ है कि आज के बदलाव से बेखबर पुराने काल में नोस्टैल्जिया से ग्रस्त होकर भटक रहे है. ऐसा कुछ है नहीं और ना ही ऐसा है कि मार्क्सवादी विचारको की तरह विशुद्ध बौद्धिक बकैती करके ध्यान खीचना या वाह वाही लूटना है. काहे कि ईश्वर की कृपा से दुनियाभर के अति सम्मानित पत्र पत्रिकाओ में, प्रतिष्ठित वेबसाइट्स पर मेरे आलेख छपे है विभिन्न विषयो पे और इतनी प्रसंशा मिली [धन नहीं 🙂 ] कि ना अपनी प्रसंशा सुनने का मन होता है और ना सिर्फ बात कहने के खातिर बात करने का मन करता है…Enough is enough ,at least, in this regard. मै कोई बात तभी कहता हूँ जब लगता है कि कहना बहुत जरूरी हो गया है. मै कोई सर्वज्ञ नहीं पर मेरी भरसक कोशिश यही रहती है कि जितने भी दृष्टिकोण या बदलाव मेरे सामने हो रहे मान लीजिये संगीत के क्षेत्र में ही उनको समझने या आत्मसात करने की पूरी कोशिश करता हूँ . यही देख लीजिये कि आप लोगो अभी इतने सारे अनछुए पहलुओं पर इतने विस्तार से प्रकाश डाला..
बहरहाल संजयजी हम मर्ज़ को बताते है अभी. ठहरिये जरा सा. मुद्दा ये है कि आज के गीतों में इतना सतहीपना क्यों आ गया है गीत ना सिर्फ बेसुरे, कानफोडू है बल्कि संगीत के साथ बलात्कार भी है. कुछ अच्छा हो रहा है या कुछ यूथ कैसे भी हो पीछे का संगीत एन्जॉय कर रहे है , कुछ नए प्रयोग कर रहे है ये सब ठीक है पर क्या ये पर्याप्त है कि हम आँख मूँद कर उपेक्षा कर दे जो संगीत के नाम पे शोर मच रहा है ? ये संगीत कि ध्वनी कैसे उत्पन्न हो रही और क्या नए एफ्फेक्ट पैदा हो रहे है ये संगीत के शास्त्रीय जानकारों को भा सकता है पर जरा आम धारणा पे भी तो जाए. जिनके लिए संगीत बन रहा है उनमे क्या सन्देश है. हमारा क्या एक बड़ा तबका इन सतही सिंथेसाईज़र के नोट्स से उत्पन्न गीतों को अपना रहा है कि नहीं ? सीधा सा जवाब है नहीं. दिलीपजी ने इस बात को बात को समझा है और तभी वो मूल वाद्यों के उपयोग पर बल दे रहे है..
इस भ्रम को ना पाले कि माडर्न बीट्स कोई बहुत लोकप्रिय है. तकलीफ ये है कि इन्हें हमारे अन्दर ठूसा जा रहा है बदलाव के नाम पर.. संजयजी ने मर्ज को ना समझने कि बात को कह के कम से कम ये रास्ता खोल दिया कि हम पहले उस गणित को समझे जिसके चलते तहत ए आर रहमान के एक बेहद औसत दर्जे गीत को आस्कर दे दिया गया है ? ये पूंजीवादी संस्कृति की गहरी चाल है कि किसी भी देश कि मूल संस्कृति से काट कर उस को परोसो जो कि ग्लोबल है. नतीजा ये हुआ कि मैनहैटन से लेकर मुंबई तक एक ही तरह का बीट्स वाला संगीत हावी हो गया. नतीजा ये हुआ कि रहमान के औसत दर्जे के संगीत को या इनके ही समकक्ष और भी फूहड़ संगीतकारों के गीतों को जबरदस्ती ग्लोबल का नाम देके प्रमोट किया जाने लगा. ठीक है रोजा में ठीक संगीत दिया या बॉम्बे में अच्छा संगीत दिया पर ए आर रहमान नब्बे के दशक के खत्म होते होते ही “मोनोटोनस” (monotonous) का खिताब पा चुके थे और आश्चर्य है कि यही ऑस्कर कि श्रेणि में जा पहुंचे वो भी ” जय हो ” के लिए !!! इसका कारण आप समझने कि इमानदारी से कोशिश करेंगे तो ही समझ पायेंगे कि गीत इतने बेसुरे क्यों बन रहे है ?
बात साफ़ है कि जहा पहले फ़िल्म संगीत के मूल में भारतीय संगीत की आत्मा बसती थी वहा पे वेस्टर्न संगीत के तत्त्व आ गए बदलाव के नाम पे . ऐसा करने से पहले ऍम टीवी के जरिए हमारे यूथ्स को ऐसा बना दिया गया की वो बीट्स आधारित संगीत को ही असली समझे पैव्लोव के कुत्ते की तरह. पहले जहा गीत फ़िल्म के थीम को ध्यान में रखकर बनते थे. हफ्तों या महीनो लग जाते थे धुन बनाने में और फिर उतनी ही लगन से गीत में अर्थपूर्ण शव्द आते थे.. इन दोनों के बेजोड़ संस्करण से एक मधुर गीत का जन्म होता था. आज ठीक उल्टा है.. आज पहले ये देखा जाता है कि क्या बिक सकता है. कहा कहा म्यूजिक के राइट्स डिस्ट्रीबुउट हो सकते है. इनका आकलन करने के बात ही गीत संगीत बन पता है. मै पूछना चाहूँगा कि क्या शंकर जयकिशन, खैय्याम या कल्यानजी आनंदजी भी इसी प्रोसेस को ध्यान में रखकर संगीत रचते थे? क्या पूर्व में यही एक पैमाना था संगीत को रचने का ?
सजीवजी ठीक है हम कॉन्सर्ट में जाकर मूल वाद्यों या अपनी पसंद का संगीत सुन सकते है या वो जमाना नहीं रहा कि तमाम साजिंदों को इकठ्ठा करके सुर निकले तो क्या हम इनके आभाव में ठूसा जा रहा है उसको चुप मार के निगल ले ? कहा जाता है कि भारतीय संगीत में वो जान होती है कि रोग भाग जाते है या फिर दीपक जल उठता है और तकरीबन यही जान “हीलिंग एफ्फेक्ट” के सन्दर्भ में पुराने फिल्मी गीतों में भी होती थी. क्या आज के शोरनुमा फिल्मी गीत भी इसी “हीलिंग एफ्फेक्ट” का दावा कर सकते है ? वो इसलिए नहीं कर सकते क्योकि वे आपको शांति या ख़ुशी देने के लिए नहीं वरन पैसो की झंकार से लय बनाने के लिए बने है. आपने कभी गौर किया आपने कोई अच्छी धुन की तारीफ की ये सोचकर बहुत बढ़िया बना है फिर पता चलता है अरे ये तो मूल स्पैनिश गीत की नक़ल है. अरे ये तो फला गीत की नक़ल है इंसपिरेशन के नाम पे. तो ये तमाशा होता है गीत रचने के नाम पे.
सजीवजी अच्छा अब भी हो रहा है और हो सकता है इससें किसे इंकार है. उसकी हम भी तारीफ करते है. ये भी महसूस होता है कि सिंथेसाईज़र के नोट्स इतने प्रचलन में आ चुके है कि अतीत के गोल्डन एरा को याद करना और उसके फिर से आ जाने कि उम्मीद करना बहुत ठीक नहीं. क्योकि बदलाव फिर आखिर बदलाव है. पर मुद्दा ये नहीं है. मुद्दा ये है कि हम इस बदलाव को और विकृत होने से ना रोके? वे कोशिशे करना भी बंद कर दे जिनसे कि उन तत्त्वों की वापसी की संभावना बन सके जो कभी भारतीय संगीत की जान हुआ करते थे. एक संयमित मिलन हो पूरब का पश्चिम से मुझे परहेज़ नहीं पर नकली को ही असली बताना इससें मुझे सख्त ऐतराज़ है. कम से कम मै तो अपनी आपत्ति सख्त रूप से दर्ज करूंगा भले मै अकेला ही क्यों ना हूँ.
उम्मीद करता हू की संजय वर्मा जी को अब थोडा आसानी होगी ये समझने में कि माजरा क्या है. अंत में सजीव सारथी , दिलीप जी, अरुण सेठी जी, संजय वर्मा, प्रभु चैतन्यजी और मंगेश्जी और सागर जी को विशेष धन्यवाद कि मुझे चिंतन करने का नया आधार दिया. आशा है कि थोडा सा अंदाज़ में जो तल्खी आ जाती है इसको इग्नोर करके जो बातो का मूल सार है उसी को ध्यान में रख के आप मेरे लेख पर नज़र डालेंगे. आप सब संगीत को परखने वाले लोग है सो किसी को कम बेसी करके आंकने का मेरा कोई इरादा नहीं और ना भविष्य में होगा. बात संगीत से शुरू होके संगीत पे खत्म होनी चाहिए संगीत की बेहतरी के लिए यही मेरा एकमेव लक्ष्य रहता है हर बार. उम्मीद है आप इसको महसूस करेंगे मेरे अंदाज़ के तीखेपन से ऊपर उठकर.
संगीतकार : रवि
गीतकार: साहिर
गायक: महेंद्र कपूर
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एक छोटी सी चर्चा सत्तर, अस्सी, नब्बे और आज के दशक के फ़िल्म संगीत की
अस्सी के शुरुआत में सिलसिला, लव स्टोरी, लावारिस, नमक हलाल, एक दूजे के लिए, सागर और बेताब जैसे थोड़ी बहुत संगीत प्रधान फिल्मे आई पर ज्यादातर हिस्सा फूहड़ संगीत से भरा रहा. अच्छे रोमांटिक गीतों ने जोड़ पकड़ा अस्सी के दशक में खत्म होते होते जब क़यामत से कयामत तक, तेजाब और आशिकी जैसी फिल्मे आई. फिर अच्छे रोमांटिक गीतों की लाइन लग गयी. ये अलग बात है कि आप गौर करे बोल कोई बहुत उच्च श्रेणि के नहीं थे लेकिन संगीत बहुत कर्णप्रिय होता था. इतना कि ह्रदय “धक् धक् ” करने लगता था. कुछ याद आया !
अस्सी के दशक की ही कुछ और उल्लेखनीय संगीतमय फिल्मे थी उमराव जान, बाज़ार, उत्सव , निकाह , तवायफ , नदिया के पार, इजाजत , अर्थ और साथ साथ. सत्तर के ही दशक में गीतों का जनाज़ा निकालना शुरू हुआ. पर फिर भी इस दशक में गुलज़ार, मजरूह और आर डी बर्मन, वनराज भाटिया, श्यामल मित्रा, ऍम जी हशमत, गुलशन बावरा ,कल्यानजी आनंदजी, इन्दीवर के सक्रिय रहने के कारण आंधी, अभिमान ( एस डी बर्मन) ,अमर प्रेम, गमन (जयदेव ) ज़ंजीर इत्यादि फिल्मो में अच्छा गीत संगीत सुनने को मिला.
बहरहाल हम नब्बे के दशक के गीतों के स्तर की बात कर रहे थी कि वे बहुत स्तरीय नहीं थे. ये तो गनीमत है कि आनंद बक्षी , गुलज़ार, मजरूह ,फैज़ अनवर, रहत इन्दोरी और कतील शिफाई जैसे गीतकार सक्रिय थे नहीं तो और डी के बोस नब्बे वाले पैदा होते. अब तो हालात और बुरे है. आज के गीत सुने तो लगता है कोई हथौड़े से आपके सर पे प्रहार कर रहा है. गीत के बोलो कि तो खैर डी के बोस ही हो गया है. आजकल तो इन गीतों में जिस तरह से लोग सीधे सीधे वर्णन करने लगे है उससें तो ये भ्रम हो जाता है कि क्या वाकई सेंसर बोर्ड नाम की कोई संस्था काम कर रही है? एक गीत तो आजकल ऐसा बज रहा है जिसे सुनिए तो लगता है कि जैसे बीयर उद्योग वालो ने गीत को लिखा हो. और शर्मनाक बात ये है कि ये गीत युवाओ को खुले आम प्रेरित करता है बीयर पीने को! हद हो गयी है. एक वक्त ऐसा था जब धूम्रपान और शराब पीने के दृश्य वर्जित थें परदे पर पर आज देखिये कि खुले आम ऐसे कई गीत है जो प्रेरित कर रहे है पीने पिलाने को.
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डेल्ही बेल्ली एक घटिया दिमाग से उपजी गन्दी और बकवास फ़िल्म
शातिर दिमाग आमिर को ये कला अच्छी तरह आती है कि कैसे समाज में व्याप्त सड़ी गली चीजों को सजा के परोसा जाए. नकारात्मकता का सफल व्यवयसायिक उपयोग करना ये आमिर खान जैसो की ही बस की बात है. भूमंडलीकरण ने ये काम आसान कर दिया नकरात्मक चीजों को जीवन के आकर्षक तत्त्वों में प्रतिष्ठित कर के. डेल्ही बेल्ली देखा जाए तो इसी सोच की उपज है. नकारात्मकता का जीवन में सहज रूप से स्थापित हो जाना आधार है डेल्ही बेल्ली के अस्तित्व का. नब्बे के दशक से नकारात्मकता के प्रति आकर्षण का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वो डेल्ही बेल्ली में आकर लगभग पूर्णता को प्राप्त होता है. शाहरुख की बाज़ीगर ने जो इरा लेविन के उपन्यास ए किस्स बिफोर डाईंग से प्रेरित थी नकारात्मकता को एक ट्रेंड के रूप में स्थापित किया हिंदी चलचित्र जगत में. इस कहानी का नायक अपनी प्रेमिका का बेरहमी से क़त्ल करता है अपने हुए अत्याचारों का हिसाब चुकाने के लिए पर इस नए ट्रेंड के आगमन के तहत वो हमारी सहानभूति प्राप्त करने में सफल हो जाता है. जहा पहले के नायक नायिकाओ के चरित्र में चाहे अच्छा हो या बुरा एक स्पष्ट विभाज़न होता था बाज़ीगर के साथ अच्छे बुरे का विभाजन धूमिल होने के साथ नायको के चरित्र में दोगलापन आ गया. इसके बाद आने वाले नायको का मूल मंत्र हो गया सफलता किसी कीमत पर और इसके लिए मूल्यों की बलि चढ़ानी पड़े तो शौक से चढ़े. मूल्य अब प्रेरक तत्त्व नहीं विध्नकारी तत्त्व के रूप में अवतरित हुआ इन नायको में.
इन नए नायको का आदर्शवादी चरित्र से मोहभंग और नकारात्मकता से प्रेम कितना गहरा हुआ ये इसी बात से बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जहा अस्सी के अंत में नायक पिता के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हुए कहता है “पापा कहते है बड़ा नाम करेगा ” यही नायक अब पिता के प्रति लगाव को ये कह कर प्रदर्शित कर रहा है ”डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी ” . भारतीय समाज में जहा बच्चे का जन्म एक शुभ और पवित्र कर्तव्य रूप में मान्यता प्राप्त है वहा पिता पुत्र को एक गलती माने ऐसा कम ही मुमकिन है. शायद ये डेल्ही बेल्ली के अन्दर दिखाए समाज में व्याप्त हो पर भारतीय समाज में अभी भी ऐसी नौबत नहीं आई है. कुछ अति उत्साही समीक्षकों का मानना है कि आज के युवको द्वारा इस प्रकार की बोल्ड स्वीकरोक्ति ये दर्शाता है कि भारतीय समाज पहले से परिपक्व हुआ है जिसकी वजह से आज के युवा कडुवे सच को जस का तस सब के सामने कहने में जरा भी नहीं हिचकिचाते. मेरी नज़र में इस तरह की शर्मनाक बेबाकी भारतीय समाज के पतन को दर्शाती है पाश्चात्य मूल्यों के प्रभाव में आकर ना कि परिपक्वता को जैसा हमारे कुछ मूढ़ समीक्षकों का मानना है. हमने पश्चिमी देशों के अच्छे मूल्यों के साथ गठबंधन करने के बजाय उनके द्वारा चालाकी से थोपे गए निम्न कोटि के आदर्शो को सब कुछ मानकर गलत हरकतों के दास बन बैठे. इसलिए रुपयों और स्त्री के पीछे भागना हमारा परम ध्येय बन गया.
मै इस बात से सख्त असहमति जताता हूँ कि मुख्यधारा में शामिल व्यवयसायिक सिनेमा जो मारधाड़ और घिनौने विचारो से भरी पड़ी है हमारे भारतीय समाज का असल आइना है. हकीकत ये है कि इस पॉपुलर सिनेमा का सब कुछ मायावी है जिसमे तथ्य कम और फतांसी ज्यादा है जिसका सिर्फ इतना सा काम है कि सिक्को की झंकार ना रुके. बॉक्स ऑफिस की ज्यादा फिक्र है इस सिनेमा को बजाय विषयवस्तु की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता की. मेलोड्रामा की प्रचुरता और एक भव्य लटके झटको से भरी स्क्रिप्ट भारतीय व्यवयसायिक सिनेमा की जान है जिसमे नायक पानी की टंकी पर दौड़ता हुआ चढ़ जाता है. अब इन जैसी फिल्मो को भारतीय समाज का आइना कहना कहा की अक्लमंदी है. इनको भारतीय समाज को समझने का माध्यम नहीं माना जा सकता और ना ही ये आदर्श माध्यम है भारतीय समाज का असली चेहरा देखने समझने का.
इस तरह की फिल्मे नकारात्मक गन्दी सोच, मूल्यों और अवधारणओ को प्रक्षेपित करने में सहायक साबित हुई है बजाय समाज को कुछ देने या समाज का असली रूप सब के सामने लाने में कारगर सिद्ध होने के. इनका मुख्य उद्देश्य केवल दर्शको का पूरा पूरा मनोरंजन करना और नोट काटना होता है. इसलिए मै डेल्ही बेल्ली के बनाने वालो के इस मिथ्या प्रचार का जोरदार विरोध करता हू कि डेल्ही बेल्ली में जो दिखाया गया है वो हमारे समाज से ही लिया गया है. इस बात को समझने के बाद कि इस तरह की फिल्मो का मुख्य ध्येय पैसा कमाना होता है इस बात में कोई दम नहीं की हम डेल्ही बेल्ली जैसी फिल्मो में दिखाई गयी विचारधाराओ को सहज रूप से स्वीकार कर ले. मुझे कहने में ये कोई संकोच नहीं कि ये हमारे समाज के सच को तो कम ऐसी घटिया फ़िल्म बनाने वालो के खोखले दिमाग में बसे शैतानी सोच को ज्यादा दिखाती है.
इस बात का भी जोर शोर से डंका पीता जाता है कि डेल्ही बेल्ली जैसी बकवास फिल्मे यथार्थवाद पर आधारित होने के कारण गन्दी और अश्लील हो गयी है. कहने का मतलब डी के बोस जैसा गीत यथार्थवादी सोच की परिचायक है. भाई वाह कितना गूढ़ यथार्थवाद है! क्या ऐसे ही अश्लील गालियों से भरे गीतों और संवादों से यथार्थवाद का सम्मान होता है ? ऐसे ही फिल्मो में यथार्थ का प्रवेश होता है? जो ऐसे यथार्थ पे लट्टू हो रहे है उन्होंने शायद ना तो यथार्थ को भोग है और ना ऐसी फिल्मो से उनका वास्ता रहा है जो की वाकई में यथार्थ का सही चित्रण करती है. ऐसे फिल्मकारों में गुरुदत्त, बिमल रॉय , गुलज़ार ,शेखर कपूर और ऋषिकेश दा के नाम उल्लेखनीय है. इन्होने यथार्थ को बहुत संवेदनशील तरीके से प्रस्तुत किया नाकि आज के निर्देशकों की तरह ठूंस दी अश्लीलता और गली गलौज यथार्थ के नाम पर. इनको क्यों नही आखिर जरूरत पड़ी इस तरह के भौंडे तमाशे की अपनी फिल्मो में जिसको ये फिल्मकार आवश्यक मानते है यथार्थ के नाम पर और क्यों इन्होने ये ख्याल रखा कि सामाजिक मर्यादाओ की धज्जिया ना उड़े यथार्थ के नाम पे ? राज कपूर जरूर कुछ सीमाओ का उल्लंघन कर गए पर क्योकि उनकी फिल्मो की स्क्रिप्ट इतनी जोरदार होती थी और प्रस्तुतिकरण इतना कलात्मक कि उनका उल्लंघन करना कभी ज्यादा खला नहीं.
लेकिन राज कपूर की महानता देखिये कि कोई दबाव ना होते हुए भी बड़ी शालीनता से उन्होंने स्वीकारा कि कही ना कही अतिश्योक्ति का शिकार वे भी हुए और ये भी इन्होने बताया कि क्यों ऐसा हुआ उनसे. इसके ठीक विपरीत आचरण है आज के फिल्मकारों का जो कि उजड्डता और दर्प की मूर्ती है. ये ना अपने सतही आचरण को सही साबित करेंगे बल्कि आप पर भी दबाव डालेंगे की आप इन्हें इनके सड़े गले विचारो के साथ अपनाये. आप गुलजार को देखे. क्या इन्होने आंधी और हू तू तू में भारतीय राजनीति के विकृत स्वरूप को नहीं दिखाया है बिना किसी बकवास ट्रीटमेंट के साथ? आप ऋषिकेश दा की फिल्मे देखे और पाएंगे कि उन्होंने असल भारतीय सोच को कितनी सादगी के साथ लगभग हर फ़िल्म में दर्शाया है कि मुस्कुरा के हर मुसीबत का सामना करो और कभी भी उम्मीद ना हारो. अब आज देखिये कि आज का यथार्थवादी चरित्र गा रहा है “गोली मार भेजे में कि भेजा शोर करता है”. ये है आज के नायक का आशावादी चरित्र उस भारतीय समाज में जहा आशावाद का हर युग में सम्मान हुआ और हम ही आज इस बात को प्रचारित कर रहे है कि अवसाद जीवन का सत्य है नहीं तो भेजे को भूनने (भेजा फ्राई ) की जरुरत क्यों आन पड़ी ?
सच है कि वक्त बदल गया है. नयी टेक्नोलाजी के आगमन से एक नयी सोच और नए तौर तरीको का आगमन हुआ है. ये भी बिल्कुल सच है कि इस युग की अपनी कुछ नयी सी समस्याए है जो पहले के लोगो ने शायद नहीं देखी और इसलिए इन समस्याओ से पुराने तौर तरीको से नहीं निबटा जा सकता. इनका प्रस्तुतिकरण भी रूपहले परदे पर नए तरीको से ही संभव है मतलब नए प्रतीकों के जरिए. अब बैलगाड़ी युग के लटको झटको को बाइक युग में तो नहीं दिखा सकते ना ? पर इसकी आड़ लेकर कि युग बदल गया है क्या हम शैतानी विचारधाराओ को जो विकृत सोच का समर्थन करती है उनको अपना ले? शाहरुख़ खान की दो फिल्मो पे गौर करे डर और अंजाम और देखे कि किस तरह एक नायक दुष्टता का अवतार बन के उभरा है. इस फ़िल्म से सन्देश यही गया कि कैसे अपने स्वार्थ की खातिर आप किसी की दुनिया तबाह कर दे.
एक ऐसे ही शैतानी फ़िल्म और आई “रहना है तेरे दिल में” में और ये जान के आश्चर्य ये हुआ कि ये युवाओ की पसंदीदा फ़िल्म है. इसमें दिखाया ये गया है कि कैसे एक दिलफेंक नौजवान एक युवती को धोखे में रखकर जिसकी शादी किसी और से तय हो चुकी है उसको अपने जाल में फसा कर उससें तथाकथित सच्चा प्यार करने लगता है. इसका अंत इसके बहिष्कार के रूप में नहीं होता बल्कि ऐसे होता है कि धोखे में रखी गयी युवती से इसकी शादी हो जाती है और जिससें होने वाली होती वो अपने हक की कुर्बानी देकर महान बन जाता है. मजेदार बात देखिये चरित्र का असली नाम है माधव पर ये नाम “मैड्डी” में परवर्तित हो जाता है. जाहिर है ऐसी ओछी हरकत करने वाला “मैड्डी” ही हो सकता है माधव नहीं. इस नाम परिवर्तन से ही जाहिर है कि हर वस्तु या नाम के अपने संस्कार होते है.मैड्डी से त्याग और समपर्ण के बारे में सोचना मूर्खता ही कहलाएगी ना! बाहरी मूल्यों पे चल के आप शानदार सफलता के मालिक तो हो जायेंगे पर बहुत मुमकिन है कि यशः आपके पहुच से बाहर हो जाये.
मेरा मन तो अभी भी उसी युग में रमा है जिसमे नायक अपने बेटे के लिए ये गाता है:
तुझे सूरज कहू या चंदा तुझे दीप कहूँ ये तारा
मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा
मैंने इस ख्याल को मन में जरा भी प्रवेश नहीं करने दिया कि पुत्र भी कभी पिता के द्वारा एक गलती करार दिया जा सकता है. यह एक बहुत बड़ी वजह है कि हमे शाहरुखो और आमिरो का पूरी तरह से बहिष्कार करना पड़ेगा जो खेद की बात है हर दूषित विचारधारा को भारतीय समाज में थोपने के दोषी है अपने आचरण और फिल्मो के द्वारा. ये घमंड की जीती जागती शिलाए है जो ना सिर्फ अपनी उजड्डता को उचित ठहराते है बल्कि ऐसे फूहड़ तौर तरीको से उपजी सफलता में चूर होकर मौज मानते है. अब समय आ गया है कि डी के बोस का कत्ल करके उन चरित्रों को लाये जो हमारे संस्कृति में छुपे संस्कार रूपी रत्नों को दुनिया के सामने लाये ताकि आने वाले लोगो के लिए एक अच्छे आदर्शमय भविष्य की कल्पना एक सच के रूप में उभर कर आये.
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