दीप्ति नवल को हम हमेशा, रैकेट चलाने वाली के रूप में नही, वरन एक बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री के रूप में याद रखेंगे।
दीप्ति नवल प्रकरण से मुझे काफी झुंझलाहट हुई। ये समझ में आने लगा है कि मीडिया का स्तर ना सिर्फ रसातल में चला गया है बल्कि ये अब किसी के साफ़ सुथरे दामन में कीचड पोतने का सबसे कारगर तरीका बन गया है। नहीं तो मीडिया को क्या जरुरत थी कि इस बात को प्रचारित करने कि दीप्ति को आख़िरकार “प्रोष्टिट्यूशन डेन” से मुक्ति मिली। जबकि मामला सिर्फ ये था कि उसने अपना पुराना घर कालोनी की सोसिएटी के कर्ता-धर्ता लोगो की बदसलूकी की वजह से छोड़ा जो उसकी निजता का सम्मान नहीं कर रहे थें।
दीप्ति नवल ने शायद बातो ही बातो में अपना दुखड़ा किसी पत्रकार सें क्या शेयर किया कि उसकी बाते तोड़ मरोड़कर मीडिया की सुर्खियाँ बन गयी। आप कह सकते है कि ऐसी बात चश्मे-बद्दूर के दौरान होने का सीधा सा मतलब ये है कि फ़िल्म को प्रमोट करने का ये स्टंट भर था। इस सरलीकरण के पीछे तर्क सिर्फ ये हो सकता है कि पब्लिसिटी कैसी भी हो फलदायी होती है। तो क्या एक समर्थ अदाकारा के इतने बुरे दिन आ गए कि चाहे सही में या झूठ में उसे अपने अस्तित्व के लिए ऐसे खबरों के दम पर निर्भर रहना पड़े?
माना कि ये भी एक कडवी सच्चाई है कि फ़िल्म एक्ट्रेस या एक्टर्स को बुरे दिनों में हर तरह के समझौते करने पड़ते है लेकिन ये स्वीकारने में बेहद तकलीफ है कि नियति ने दीप्ति को भी गलत राहो पर धकेल दिया। दीप्ति की कठोर प्रतिक्रिया मिलने के बाद ये समझ में आ रहा है कि ऐसा कुछ भी नहीं जैसा मीडिया दर्शा रहा है। ये मीडिया का सुर्खिया बटोरने की कला का नमूना भर था। दीप्ति नवल हमेशा साफ़ सुथरी फिल्मो में बहुत शशक्त अभिनय के लिए ही याद रखी जायेंगी। ये वाकई कलियुग है कि कोई किसी के उजले चरित्र से कुछ सीखता तो नहीं लेकिन उसके उजले दामन में कालिख पॊतने के सौ बहाने ढूंढ लेता है। ऐसे पत्रकार जो दूसरों की बदनामी पर पलते है ऐसे लोगो को पत्रकारिता जगत से बाहर कर देना चाहिए। इनसे पत्रकार नाम से उपजने वाले समस्त सरोकारों से कोई सम्बन्ध ना रखने दिया जाए। अगर मार्कंडेय काटजू कि बात माने तो ऐसे लोगो से उनके पत्रकार सम्बन्धी लाइसेंस को खारिज कर देना चहिये। बहरहाल पत्रकारिता के नाम पर जो तमाशे हो रहे है वो दुखद है।
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