एक स्त्री विमर्श स्त्री से लौंडिया तक
दिल्ली में हादसे के बाद अचानक से दुष्कर्म सम्बन्धी कानून को सख्त कर देने की जरूरत पड़ने लगी है। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किये जा रहे है। उम्मीद है इन कदमो से शायद इस तरह के हादसों में कमी आ जाए। ये हमारे यहाँ कि बिडम्बना है कि हर सुधार के लिए हम न्यायालय का मुंह ताकते है। अपनी जिम्मेदारी का कुछ भी भान नहीं रहता और ना ही हम किसी मुद्दे के तह में जाकर गंभीर विश्लेषण कर के कोई कदम उठाते है। सिर्फ सरसरी आकलन के बाद कुछ तुरंत ही कदम उठा लिए जाते है। जैसा कि इस वीभत्स हादसे के बाद हुआ। लेकिन मुझे नहीं लगता कि जहा बात मानसिकता के परिवर्तन की हो वहा कानून बना देने से कोई विशेष फर्क पड़ेगा। खासकर उस देश में जहा पे न्याय या तो किताबो में सिमट के रह गया है या उनके हिसाब से होता है जिनके पास पैसा और पावर दोनों हो। फिर कानून की पेचदगी से उपजने वाली समस्या तो खैर अपनी जगह है ही।
बेहतर तो ये होता कि कानून को सख्त करने के ही साथ इस बात पर भी विचार किया जाता कि ये समस्या उपजी ही क्यों। लेकिन मुद्दा “हैंग द रेपिस्ट्स ” या महिलाओ की बेहतर सुरक्षा तक ही जा अटका। मतलब कि अगर पुरुष का सर कोई काट कर फ़ेंक दे तो वो सहज है, गंभीर मुद्दा नहीं है, मगर स्त्री का सर काट कर फ़ेंक दे तो वो गंभीर मुद्दा है और सुरक्षा तंत्र महिलाओ की बेहतर सुरक्षा कर पाने में नाकाम रहा है। जब तुरंत कदम उठाये जाते है तो बात सिर्फ सीमित दायरों में से ही उभर कर आती है। जैसा कि इस मामले में हुआ। चर्चा स्त्री अधिकारों से उभर कर, स्त्रियों की सुरक्षा तक ही सीमित रहा। ऐसा नहीं कि इन सीमित कदमों का लाभ नहीं होगा। होगा जरूर पर वो सीमित ही रहेगा।
खैर दुष्कर्म मेरी नज़रों में सेक्सुअलिटी की विकृत समझ से ज्यादा उपजा है बजाय नारीवाद की इस समझ से कि ये पुरुष की अधिकार भावना मतलब पावर का विकृत स्वरूप है। क्योकि सत्ता का विकृत स्वरुप हर जगह मौजूद है और यहाँ भी है। इसको विशेष चश्मे से देखने की जरूरत नहीं। जुर्म जब कभी होता है तो जेंडर देख कर नहीं होता। जुर्म को जुर्म की परिभाषाओ के दायरे में ही समझना चाहिए। ये सीधी सी बात प्रायोजित फेमिनिस्ट वर्ग समूह को समझ में नहीं आती। इसमें कोई पितृसत्तात्मक नाम का जिन्न ढूढने की जरूरत नहीं। दुष्कर्म एक विशेष प्रकार का जुर्म है जिसके तह में कोई साधरण कारण नहीं कि आपने कानून सख्त किया नहीं कि सब कुछ ठीक हो गया। जिस तरह के कदम उठायें जा रहे है वो बिल्कुल आधुनिक चिकित्सा पद्धति कि तरह है जिसमे तुरंत आराम तो मिल जाता है पर रोग जड़ से नहीं जाता है।
इस तरह के सेक्सुअल डिसऑर्डर्स को दूर करने के लिए हमे भारतीय समाज में व्याप्त ढोंग और विरोधाभासो को बहुत सूक्ष्म रूप से समझना पड़ेगा। सिर्फ बात बात पे कानून का चाबुक चला देने से बात नहीं बनेगी। ये हमको समझना पड़ेगा कि प्राचीन काल का भारत समय के प्रवाह में बहते बहते उस मोड़ पे आ गया है कि जहा आधुनिक समाज में फैले तथाकथित नए तौर तरीके उसके सामने मुंह बाए खड़े है। क्या विकल्प है हमारे पास? इनको पकडे कि छोड़ कर आगे बढ़े? आज का आधुनिक भारत कुछ तो नीति निर्माताओं की गलती के कारण और युग के परिवर्तन चक्र के कारण द्वंद्ध का अखाड़ा बन गया है। ये जुर्म उसी द्वंद्ध से गुत्थम गुत्था का दुष्परिणाम है। वैसे भारतीय समाज हमेशा की तरह ऐसे वैचारिक द्वंद्ध को पचाकर आगे बढ़ जाएगा ऐसा मेरा यकीन है पर अभी तो द्वंद विकृत स्वरूप है। इस समय के भारत के दो स्वरूप है जहा एक ओर तो अधिकारों और मूलभूत जरूरतों से मरहूम लोगो की दुनिया है जहा प्रसव पीड़ा से ग्रसित स्त्री को कई मील चल कर डिलीवरी करनी पड़ती है, एक आदमी को जरा सा काम कराने के लिए कई लोगो के आगे विवश होना पड़ता है तो दूसरी ओर नयी जनरेशन के लोग है जिनको बस जल्दी से पढ़ कर या बिना पढ़े नोट कमाने की धुन है नयी कार और खूबसूरत बीवी के साए में। इनको एथिक्स से ज्यादा कुछ लेना नहीं क्योकि आँखों में इनके स्वार्थ की धुंध हमेशा छाई रहती है।
नीति निर्माता जो ये सख्त कानून बना कर दुष्कर्म रोक देने का ख्वाब देख रहे है ग्रामीण भाषा में कहे तो लंठनमति बुद्धि की परिचायक है। लंठनमति बुद्धि से अभिप्राय काठ के उल्लुओं से है। जब आपने ग्लोबल संस्कृति के लिए द्वार खोल दिया है तो सिर्फ उपभोग के सामान जिसमे शैम्पू से लेकर सेंट तक है तो सिर्फ सामान ही नहीं बल्कि एक ख़ास प्रकार के मूल्यों का भी प्रवाह होगा। आपने सामान तो खरीदा ही पर साथ में कुछ सूक्ष्म विकृत मूल्य भी आप लेकर चले आये जिसको तो आप ना अपना पा रहे है और ना ही तज पा रहे है। इसको आपने इग्नोर किया जिसका दुष्परिणाम आप आज देख रहे है।इसको स्त्री पुरुष के अधिकार संघर्ष के आइने में देखने के बजाय सेक्सुअल भावनाओ को सही दिशा देने का मामला है। लेकिन हो ठीक उल्टा रहा है। जहा पे पुरुष तो ट्रैक से भटके हुए ही थें स्त्री ने भी राह अपना ली जहा देह से परे उसके कुछ भी नहीं। जहा उसे अपने को सेक्स ऑब्जेक्ट में परवर्तित होता हुआ स्वरूप अपना एक मूलभूत अधिकार सरीखा बन गया है। सो इस देश में बच्चे से लेकर स्त्री तक सब ने अपने अधिकारों की अजीब सी परिभाषायें गढ़ ली है और सब उसे अपनी तरह से जस्टिफाय कर रहे है। और कुछ नहीं कर और समझ रहे है तो वो ये कि आपके अपने कर्त्तव्य क्या है या आपको कौन से बेहतर त्याग करने है समाज को बेहतर रूख देने के लिए। सब के सब अपने क्षुद्र सीमाओ में सीना फुला कर जी रहे है। अपने सीमित सफ़लताओ-असफलताओ को ढ़ोते तोपची बने फिर रहे है।
तो एक तरफ “लौंडिया मिस काल से पट रही है” और दूसरी तरफ़ अगर आप के पास ख़ास तरह का मोबाईल है तो वो आपकी मर्दानगी का सिम्बल है और इसके एवज में आप एक खूबसूरत स्त्री से छुट्टे पैसे के नहीं बल्कि कॉन्डोम के हकदार है। तो एक तरफ इस प्रकार का भारत है, इस तरह का समाज है जहा इस तरह के बोल्ड दृश्य विद्यमान है। एक तरफ वो संस्कृति है जिसमे बॉयफ्रेंड/गर्लफ्रेंड आम बात होते हुए भी ऑनर किल्लिंग्स होती है, चमकते घरो में भी भ्रूण हत्या होती है, हर तरह के अपकर्म होते है। लेकिन इसके परे एक भारत और भी है जहा आम स्त्री पुरुष, वास्तविक धरातल पर जीते हुए हर तरह का संघर्ष कर रहे है। इनके पास बनावटी अधिकार चेतना का विमर्श नहीं बल्कि इनके अपने साधारण से ख्वाब है, साधारण सी जद्दोजहद है। और तकलीफ की बात है इनके बारे में कोई बात नहीं करता। जबकि सारी सरकारी नीतियों का ये दुष्परिणाम ये चुपचाप झेलते है। ख़ास वर्ग से आती समस्यायों को भी यही वर्ग झेल रहा है चाहे वो किसी अमीरजादे की गाडी के नीचे आकर कुचल जाने का मामला हो, किसी के हवस का शिकार बन जाना हो, या जरूरी वस्तुओ के आसमान छूने के कारण आभाव में जीने का दुःख हो, ये सब एक बड़े माध्यम वर्ग- आम लोगो का निरीह समूह- की किस्मत बन गयी है। कडुवी सच्चाई यही है कि इनके बारे में कोई बात नहीं करता है पर इनका इस्तेमाल करके आगे जरूर बढ़ जाता है।
उम्मीद है इन पे भी विचार करके देश को सार्थक दिशा देने का प्रयास किया जाएगा। इनकी भी किस्मत संवारने का सार्थक प्रयास किया जाएगा ग्लोबल भारत में जहा हर प्रकार के जायज़-नाजायज़ अधिकारों के साथ बहुत से संघर्ष चल रहे है। इस अंतर्द्वंद में इस उपेक्षित वर्ग, आम पुरुषो।औरतो का समूह, की भी बात सुनी जायेगी जिनके बल पर देश टिका हुआ है।
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