हिंदी सिर्फ हमारी ही नहीं है: इजराइल के हिंदी प्रेमियों के संग गुज़ारे कुछ यादगार लम्हे!

शोध पत्रिका आवर्तन और हिंदी विभाग गोरखपुर के द्वारा सयुंक्त रूप से आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक संवाद गोष्ठी जिसमे इजराइल से पधारे डॉ गेनादी ने अपने दल के साथ हिस्सा लिया।
इजराइल से भारत के सम्बन्ध बहुत गहरे है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार जब बनी थी तब एरियल शेरोन पहले इजराइल के प्रधानमंत्री बने भारत की यात्रा करने वाले। इसी क्रम में जसवंत सिंह भारत के पहले विदेश मंत्री बने इजराइल की यात्रा करने वाले। इजराइल ने आज कई क्षेत्रो में भारत के साथ करार किया है जिसकी वजह से वो एशिया में भारत का एक प्रमुख आर्थिक सहयोगी बन के उभरा है और रूस के बाद मिलिट्री इक्विपमेंट्स का सबसे बड़ा सप्लायर है। इज़राइल के प्रति हमारा प्रेम यूँ ही नहीं उभरा है जो हमारे वामपंथी मित्रो को मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते बहुत अखरता है। इजराइल अपने अस्तित्व में आने के बाद ही हमारे लिए अपने अस्तित्व और राष्ट्रीयता को बचाये रखने के एक सबसे जबरदस्त मिसाल के रूप में उभरा है। इजराइल अपनी विखंडित राष्ट्रीयता को एक मायने प्रदान करता है। इस प्रतनिधिमंडल से मुलाक़ात करने के पहले मुझे ईरान का वो वक्तव्य याद आ रहा था कि इजराइल को दुनिया के नक़्शे से मिटा दिया जाएगा लेकिन इज़राइल शायद इसी बात का प्रतीक है कि “मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है वही होता है जो मंजूर-ए-खुदा होता है” ! इजराइल ना आज सिर्फ दुनिया के नक़्शे पर मौजूद है वरन विकास के नए सोपानों को हासिल करता हुआ “स्वाभिमान” शब्द को नए मायने दे रहा है। इस देश के लोगो से हिंदी के बहाने मिलना मेरे लिए एक सुखद सपने का यथार्थ में परिवर्तित हो जाने जैसा था और मिलने के उपरान्त अंदर इस भावना का उठना स्वाभाविक था कि चलो मुलाक़ात सार्थक रही!
इस मुलाक़ात की आधारशिला रखी गोरखपुर से निकलने वाली शोध पत्रिका आवर्तन ने जिसने हिंदी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर, के सौजन्य से १८ सितम्बर 2014 को एक साहित्यिक और सांस्कृतिक परिचर्चा आयोजित की । इसमें इजराइल के तेल अवीव विश्वविद्यालय के पूर्वी एशिया अध्ययन केंद्र में कार्यरत हिंदी के प्रोफेसर डॉ गेनादी श्लोम्पर अपने छात्र-छात्राओं के दल के साथ शामिल हुए। इस दल में शामिल ओफिर, एलेक्सांद्रा, यकीर, ताल, आदि फिशर और मतान मसिस्का के अनुभव को सुन के तो यही लगा कि देश भले ही भौगोलिक सीमाओ में आबद्ध हो जस्बात स्वतन्त्र होते है और एक जैसे ही होते है।
ये एक दुःखद सत्य सत्य है कि हम भले ही विदेशी विद्द्वानों को सुनकर हिंदी के समृद्ध होने का दावा करे लेकिन हिंदी को बढ़ावा तभी मिलेगा जब अपने देश में लोग हिंदी को सहज रूप से अपनाएंगे और ऐसा अपने देश में है नहीं। हिंदी विश्व में दूसरी सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा भले ही बन गयी हो लेकिन इसको प्रयोग करने वाले अभी भी एलीट क्लास के परिधि से बाहर माने जाते है। सरकारी आकाओ की भाषा और मानसिकता अभी भी लार्ड मैकाले नाम के प्रेत बाधा से ग्रसित है जिसकी परिकल्पना आज सच हो के उभरी है और इसीलिए देश में ऐसे लोगो की संख्या ज्यादा है जिन्हे अपनी संस्कृति और अपनी भाषा से दूरी बनाये रखने में ही गौरव का अनुभव होता है। ये कहने में कोई संकोच नहीं कि जो हिंदी के रक्षक बनते है उनकी नस्ले भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों और महंगे विदेशी कॉलेजो में ही पलती-बढ़ती है।

इजराइल का दल जिसमे आप देख सकते है सबसे बायें से एलेक्सांद्रा, यकीर (काली टीशर्ट), ताल, मतान मसिस्का और फिर मुझको 😛 😛
भारत के संविधान में हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए कई प्रावधानों का उल्लेख है लेकिन फिर भी हिंदी सिर्फ राजभाषा है राष्ट्रभाषा नहीं! आज भी देश के अनेक प्रान्त है जहा हिंदी के प्रयोग को बल देना मतलब भाषा के विवाद को जन्म देना है। हिंदी प्रदेशो में भी आपको हिंदी से ज्यादा तरजीह अंग्रेजी को मिलती जो संविधान के भावना के खिलाफ है। बिडंबना देखिये कि संस्कृत जो समस्त भाषाओ की जननी है वो आज पानी से निकाली गयी मछली के समान है लेकिन उर्दू को गंगा-जमुनी संस्कृति का उदाहरण मानकर उसको बढ़ाया जा रहा है। गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई देने वाले अक्सर ये भूल जाते है कि जिन्ना ने धर्म के आधार पर ही विभाजन करवाया और “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा” के रचियता इकबाल ने पाकिस्तान के बनने में अहम भूमिका निभायी पर हम है कि अब भी गंगा-जमुनी संस्कृति के मोह में पड़े रहकर समय में ठहरकर रह से गए है।
इसका नतीजा ये हुआ है कि शुद्ध हिंदी तो दूर की कौड़ी हो गयी है और इसकी जगह हिंग्लिश ने ली है। आज आप सोशल मीडिया पे हिंदी का इस्तेमाल देखे तो वर्तनी की अशुद्धियाँ देखकर माथा पीट लेंगे। वही हिंदी फिल्मो के कलाकार परदे पे हिंदी बोलते नज़र आएंगे लेकिन बाकी समय वे काले अँगरेज़ ही है! प्रोफेसर गेनादी का ये कहना ठीक ही है कि किसी भाषा का अन्य भाषा से शब्द लेना कतई गलत नहीं लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में अपनी भाषा में जरुरत से ज्यादा अन्य भाषा के शब्दों का समावेश कर लेना गलत है। प्रोफेसर गेनादी का ये भी मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था से आप कटकर नहीं रह सकते और इसलिए वही भाषा अस्तित्व में टिकी रह सकती है जो समय की मांग को पूरा करे। अंग्रेजी का चलन इसलिए है क्योकि वो ज्ञान के विस्तार में सहायक बनी है। प्रोफेसर गेनादी ने ये स्वीकार किया कि इजराइल के विद्यार्थी हिंदी किसी भावनात्मक कारण के तहत नहीं सीख रहे है बल्कि रोजगार की संभावना में वृद्धि के तहत ऐसा कर रहे है। प्रोफेसर गेनादी के भी हिंदी सीखने के पीछे ये एक प्रमुख कारण है।
इस पूंजीवादी व्यस्था में चीन, जापान और जर्मनी जैसे देश आज बड़े खिलाडी के रूप में उभरे है और ऐसा उन्होंने बिना अंग्रेजी के बैसाखी के सहारे किया। इन देशो में हालात ये है कि अगर आप अंग्रेजी भी जानते हो तो वो किसी काम की नहीं क्योकि इनके सारे काम अपनी मूल भाषा में ही होते है। इसराइल के छात्र-छात्राओं को मैंने देखा अंग्रेजी नहीं हिब्रू भाषा में बात कर रहे थे। अगर अपनी मातृ भाषा में बात करने या इसे इस्तेमाल करने से देश पिछड़ जायेगा तो फिर इन देशो ने कैसे सिर्फ अपनी भाषा का इस्तेमाल करके इतनी लम्बी छलांग लगा ली? इसका जवाब प्रोफेसर गेनादी के इस बात से मिल जाता है कि हिब्रू में जिन शब्दों का अभाव था तकनीकी ज्ञान या किसी अन्य चीज़ के ज्ञान को ग्रहण करने के लिए उनके लिए हिब्रू में समान शब्दों का सृजन किया गया। हमारे यहाँ तो क्योकि हिंदी आपके पिछड़ेपन का प्रतीक बन गयी ऐसी कोई कोशिश नहीं की गयी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए। हमारे यहाँ तो हालत ये है कि राष्ट्राध्यक्ष/ प्रधानमन्त्री/ बड़े अफसर दूसरे देशो में छोड़िये अपने ही देश में ज्यादातर सम्बोधन अंग्रेजी में देते है! इसी का नतीजा है कि जब वाजपेयी जी ने जब संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण दिया तो वो हमारे लिए एक ऐतिहासिक क्षण था! बचपन से मै इस चीज़ पे गौर करता आया था कि चीन, जापान, रूस और जापान के बड़े नेता हमारे यहाँ अपनी भाषा में बोलते थे और हमारे यहाँ के नेता अपने और अन्य देशो में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में बोलते थे! इसी कथनी और करनी के भेद ने इस महान देश का बेडा गर्क कर दिया है!
हमारे यहाँ जितने भी कान्वेंट स्कूल है उन्होंने ये माहौल बना रखा कि हिंदी में बोलना जुर्म है! जब अपने ही देश में हालात ऐसे है तो आप अन्य मुल्को से कैसे ये उम्मीद कर सकते है कि वे आपको सम्मान दे? मुझे अच्छी तरह याद है कि एक नामी संस्था ने मुझे फ़ोन किया जिनका कार्यालय भारत में था और जिसमे कर्मचारी भी भारत के ही थे पर बात इसलिए नहीं हो पायी कि जैसे ही मैंने उनके अंग्रेजी अभिवादन का जवाब हिंदी में दिया तो फ़ोन कट गया! इसी का नतीजा है कि जिस प्रतिष्ठित विदेशी वेबसाइट ने मुझे अच्छी लेखनी के लिए कई बार विशेष सम्मान दिया मेरे लेखो का उल्लेख करके उसने भी हिंदी में लिखे लेखो को “स्पैम” मानते हुए स्पष्टीकरण माँगा जबकि उस देश विशेष में लोग हिंदी के लिपि से अच्छी तरह परिचित थे! खैर इन्ही परिस्थितयो में इसराइल के इस प्रोफेसर को सुनना एक सुखद अनुभव रहा। जिस समय गेनादी जी ने रूस में हिंदी सीखने का मन बनाया उस वक्त हिंदी का कोई विभाग नहीं था। इसलिए पहले उन्होंने उर्दू सीखा। भाषा कैसे अनुभव को समेटने का माध्यम बन सकती है इस प्रक्रिया को समझने में गेनादी जी को गहरी दिलचस्पी थी। इसी का नतीजा था कि इन्होने पंजाबी भी सीखी। इजराइल में गेनादी जी हिंदी की मशाल जलाने वाले पहले शख़्श है और इसका नतीजा ये हुआ कि इन्हे विश्वविद्यालय में अपने हिसाब से पाठ्यक्रम तय करने की छूट है। हिंदी का विभाग येरुशलम विश्वविद्यालय और तेल अवीव विश्वविद्यालय दोनों जगह है। संस्कृत भी उन एक भाषाओ में है जिसका अध्ययन आप कर सकते है। खैर हिंदी के ही बदौलत न्यूयॉर्क में हुए हिंदी के विश्व सम्मलेन में इन्हे सम्मानित किया गया।
भाषा चुनने के पीछे उन्होंने ये स्पष्ट किया कि इसके पीछे कोई राजनैतिक और सांस्कृतिक कारण नहीं है। ये केवल एक आर्थिक सोच से उपजा फैसला है। राजनैतिक मुदद्दो पे गेनादी जी ने कोई वक्तव्य नहीं दिया ये कह कि भाषा के प्रोफेसर से राजनीति से जुड़े प्रश्न को जवाब देने की बाध्यता नहीं। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ये बताया कि जिस तरह से विदेशी मीडिया में इजराइल के अन्य देशो से युद्ध को लेकर देश के अंदर एकरसता दिखाई जाती है वैसा कुछ है नहीं। इजराइल के अंदर युद्ध का विरोध करने वाली ताकते बहुत है। कुल मिला के उनका कहना ये था कि जैसा सरकार सोचती है उससे प्रजा थोड़ी अलग ही सोचती है। हिंदी के भविष्य के वे अच्छा मानते है पर उनका यही कहना है कि हिंदी सहित इस महान राष्ट्र को अभी बहुत विकास करना है। इजराइल के छात्र छात्राओं को ध्यान से सुनना एक दिलचस्प अनुभव था। इन्हे हिंदी फिल्मो से प्रगाढ़ प्रेम तो है ही पर इसके अलावा हिंदी गीतों के माध्यम से हिंदी सीखना इनके पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसकी एक बानगी देखिये कि यकीर को अमरीश पुरी का “मोगेंबो खुश हुआ” और शोले का गब्बर सिंह अच्छी तरह याद है। यकीर ने तो अमिताभ बच्चन से मिलने के जुगाड़ के उपक्रम में महंगा मोबाइल खरीदने की भी योजना बना ली है जिसमे अमिताभ से मिलाने का स्कीम है! गोरखपुर स्टेशन पे यकीर को कोई सज्जन राष्ट्र प्रेम का मायने समझने के लिए “ग़दर” फ़िल्म देखने की सलाह दे रहे थे कि यकीर उन सज्जन की बात को काटते हुए बोले “वो सनी देओल वाली”!

आदि फिशर ने ये समझाया कि युवाओ की जिंदगी चाहे वो इजराइल हो या भारत आर्थिक समीकरणों में उलझ कर रह गयी है और रिश्ते पैसो से तौले जाने लगे है!!!
गंभीरता से सुनने पे इन नए ऊर्जावान दिमागों में वही बेचैनी दिखती है जो हमारे यहाँ के युवाओं में भी दिखती है। भ्रष्टाचार के दानव से ये भी जूझ रहे है और मंहगाई नाम की सुरसा इनके यहाँ भी रिश्तो को निगल जा रही है। भारत को ये सिर्फ ताकने नहीं निकले है। ये यहाँ पर भारत की संस्कृति का अध्ययन करने आये है क्योकि भाषा का संस्कृति से गहरा अन्तर्सम्बन्ध है। उम्मीद करते है कि भारत से वापस जाने पर इनके दिलो पर भारतीय संस्कृति की अमिट छाप पड़ चुकी होगी। गेनादी जी मानते है कि भाषा दिलो को जोड़ती है पर हमारी भारतीय संस्कृति मन-बुद्धि के परे जाकर आत्माओ का मिलन करा देती है। उम्मीद है भारत से लौटने पर इन छात्र छात्राओं कि ना सिर्फ हिंदी बेहतर होगी बल्कि भारतीय संस्कृति के बदौलत विश्व को एक नयी दृष्टि से देखने के भी सीख विकसित हो चुकी होगी इनमे। गेनादी जी का कहना सही है कि अभी इस राष्ट्र को और ऊँचा उठना है और ये तभी संभव है जब हम संस्कृति और विकास के मायने को अपनी मातृ भाषा के छाँव में बैठकर समझे।

मिल के बिछड़ना भी एक रीत है! उम्मीद है जो अनुभव हमने साझा किये वे अंदर सदा ही रहेंगे। ओफिर जिनकी हिंदी सबसे अच्छी थी वे भी है सबसे दाए किसी सूचना को पढ़ते हुए 🙂
इस अंग्रेजी लेख को भी देखे:
Gorakhpur: A City That Showed Israeli Students Ideal Merger Of Cultural And Literary Values (Photo Feature): http://wp.me/pTpgO-162
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