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चाँद पर लोग क्यों थूकते है ?

Gulzar-Rakhee

Gulzar-Rakhee


गुलज़ार पर अभी किसी ने  नाजिम हिकमत की कविता ”  मेरा जनाजा “ (लिंक पर क्लिक करे) को चोरी करने का इलज़ाम लगाया है.   अरे भाई इतना माथा को दही नही बनाने का इस मामले में.  सीधी सी बात है जिगर में इर्ष्या की आग जल रही है.  सब के अन्दर से धुँआ सा उठ रहा है.  देखिये साहब प्रोग्रेस करने के दो तरीके है.  या तो आप मेहनत करे और और लोगो से आगे निकल जाए सो ऐसा हो नहीं  सकता क्योकि मेहनत के साथ अक्ल की भी जरुरत होती है सो वो तो है नहीं.  अब सबसे आसान रास्ता बचता है उसपे थूको और उसकी रचनाओ को या तो चोरी की या तो कूड़ा बताओ,  उसको बदनाम करो और उसके बाद सब लोग संगठित होके उसकी टांग खीचो, उसका बहिष्कार करो.  साहित्यकार आजकल साहित्य कम और  जोड़ तोड़ में  ज्यादा तल्लीन है.  ऐसे अवार्ड भी मिल जाते है और आप शीर्ष साहित्यकार भी बन जाते है.   कम से कम आप जिससें इर्ष्या करते थे उससें तो आगे ही निकल जाते है.  

गुलज़ार की रचनाओ में जो मौलिकता व्याप्त है उसपे प्रश्नचिन्ह लगाना अपने मानसिक क्षुद्रता की निशानी है.  एक संवेदनशील रचनाकार जो की खुद सक्षम है लिख पाने में वो भला दुसरो की कृति को क्यों चुराने लगेगा ? गुलज़ार तो खुद ही अच्छा लिखते है वे भला दुसरो का लिखा को अपना क्यों कहेंगे ? ” इब्ने बतूता “ गीत पर भी यही हंगामा मचा था पर बात साफ़ है दुनिया में मौलिक कुछ भी नहीं और किसी के कुछ विचार दूसरे से अवश्य मिल सकते है प्रेरणा के नाम पर या फिर सिर्फ इत्तेफाक की वजह से. 

पता नहीं दुनिया में हर साहित्यकार, खासकर जो कुछ नहीं हासिल नहीं कर पाए है, वे दूसरे को एक  सर्टिफिकेट देने में पता नहीं क्यों इतनी रूचि दिखाते है ? ऐसा सिर्फ हमारे यहाँ नहीं होता बाहर भी खूब होता है. वहा भी अपने को श्रेष्ठ बता के दुसरो को कूड़ा बताने की परंपरा है. वी एस नायपाल ऐसा उदहारण प्रस्तुत कर चुके है. खैर उनका भी एक स्तर है. वे एक बार ऐसा कर सकते है पर हमारे यहाँ जो लिख रहे है वे गुलज़ार पर ऊँगली उठाने का नैतिक साहस या रचनात्मक ऊंचाई रखते है ? 

चलते चलते ये गुलज़ार की कविता पढ़े. 

किताबें झाँकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर …….
गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ….
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके ‘सेल’ कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत-सी इस्तलाहें हैं
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्क़े
किताबें माँगने, गिरने, उठाने क़े बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !

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ये गीत भी सुन ले: खामोश सा अफसाना पानी से लिखा होता, ना तुमने सुना होता ना हमने कहा होता..

चलचित्र: लिबास
संगीत: आर डी बर्मन 

 

गायक: सुरेश वाडेकर, लता


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सन्दर्भ: 

 
The great Rudolf Steiner Quotes Site

Over 1500 quotes from the work of the great visionary, thinker and reformer Rudolf Steiner

The Rudolf-Rudi doctrine of Spiritualism

Rudolf is reborn as Rudi to describe the spiritual connection between the Cell and its Energy Provider to account for the complex phenomenon called existence.

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