ब्लॉगर को पत्रकार बनने की कोई जरूरत नहीं !!!
इस मुद्दे पे लिंक्डइन के एक प्रतिष्ठित फोरम में आयोजित चर्चा में विदेशी और देशी मीडिया के अति सम्मानित पत्रकार, मीडिया समूह के मालिको और पारंपरिक मीडिया से हटकर सोशल मीडिया का प्रतिनिधत्व करते सम्मानित ब्लागरो ने गंभीर चर्चा की. इस चर्चा में मुख्य मुद्दा ये रहा कि ब्लॉगर को पत्रकार माना जाए कि नहीं. पारंपरिक मीडिया से जुड़े अधिकांश लोगो ने सतही कारण गिनाते हुए ब्लॉगर को पत्रकार का दर्जा देने से साफ़ इनकार कर दिया. इनका ये कहना था कि इनमे वो प्रोफेशनल दक्षता नहीं है जो कि एक पत्रकार में पायी जाती है. इस समूह का ये भी मानना था कि पत्रकार पत्रकारिता का कोर्स करके और कार्य कुशलता हासिल करके मीडिया के क्षेत्र में आते है लिहाजा इनके पास बेहतर आलोचनात्म्क वृत्ति होती है, रिपोर्टिंग स्टाइल बेहतर होती है और ये किसी मुद्दे पे पर बहुत सुलझी हुई प्रतिक्रिया देते है. इस वजह से ये ब्लॉगर से कही बेहतर होते है. पर मेरी नज़रो में चर्चा में शामिल बड़े नामो ने इस अति महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण की उपेक्षा कर दी: एक ब्लॉगर को एक अच्छा पत्रकार बनने की जरुरत ही क्या है ?
इस बात को बहुत अच्छी तरह से महसूस किया जा सकता है कि ब्लागरो के लगातार बढ़ते प्रभाव ने पारंपरिक मीडिया में एक खलबली सी मचा दी है. खैर इस मुद्दे पे पारंपरिक मीडिया से जुड़े पत्रकारों से मै उलझना नहीं चाहता. मै तो उन ब्लागरो को जो कि एक अच्छा पत्रकार बनने की उम्मीद पाल कर ब्लागिंग आरम्भ करते है उनको यही सन्देश पहुचाना चाहता हूँ कि एक अच्छे पत्रकार के रूप में अपना सिक्का गाड़ने कि सोच से ये सोच लाख गुना बेहतर है कि ब्लागिंग में जो अद्भुत तत्त्व निहित है उनको अपना के संवेदनशील मुद्दों को बेहतर रूप से जनता के बीच पहुचाएं.
मेरा ये मानना है कि पत्रकार और ब्लॉगर में भेद बना रहे. ये अलग बात है कि एक अच्छा पत्रकार और एक सिद्ध ब्लॉगर दोनों लगभग एक सी ही उन्नत सोच और लगभग एक सी ही कार्यशैली से किसी मुद्दे पर काम करते है. लेकिन इतनी समानता के बावजूद ब्लॉगर को आधुनिक पत्रकारिता के सांचे में नहीं ढलना चाहिए जिसमे पत्रकारिता का एक धंधे में रूपांतरण हो चुका है अपने मिशनरी स्वरूप से. ये बात भी हमको नहीं भूलनी चाहिए कि पारंपरिक मीडिया से जुड़े पत्रकार और संपादक आज के समय में किसी भी मुद्दे पे भ्रामक और स्वार्थपरक रूख रखते है. नीरा राडिया जैसे लोगो का दखल और प्रायोजित सम्पादकीय इसके सर्वोत्तम उदाहरण है.
इसका दूसरा उदाहरण विदेशी अखबार और मैगजीन है. इन सम्मानित समाचार पत्रों में अगर आप भारत से जुडी खबर पढ़े तो आपको विदेशी पत्रकारों का मनमाना और पक्षपातपूर्ण रूख द्रष्टिगोचर हो जाएगा. इसके बाद भी विदेशी मीडिया समूह अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता का हर तरफ बखान करता है. अधिकाँश ब्लॉगर किसी बाहरी दबाव से मुक्त होते है. इनपे किसी का जोर नहीं कि किसी मुद्दे को ये ख़ास नज़रिए से देखे. इनको मुद्दे को किसी भी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने की आज़ादी रहती है. ये अलग बात है कि सहज मानवीय गुण दोषों से ये भी संचालित होते है और किसी के प्रभाव में आ कर स्वार्थ से संचालित हो सकते है.
इस बात को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है कि किसी को एक अच्छे लेखक या पत्रकार के रूप में उभरने के लिए पत्रकारिता संस्थान से जुड़ना अनिवार्य होता है. ये विचार हास्यास्पद है कि अच्छा लिखने की कला का विकास पत्रकारिता संस्थान से जुड़कर होता है. एक उन्नत बोध जो समाचार के तत्त्वों से वाकिफ हो उसको आप कैसे किसी के अन्दर डाल सकते है ? इस तरह के बोध का उत्पादन थोड़े ही किया जा सकता है पत्रकारिता संस्थानों के अन्दर. ये बताना बहुत आवश्यक है कि ये आधुनिक समय की देन है कि लोग पत्रकारिता की डिग्री को अनिवार्यता मान बैठे है. यही वजह है की कुकुरमुत्ते की तरह पत्रकारिता संस्थानों की बाढ़ आ गयी है भारत में जो पत्रकार बनने की आस लिए युवको का शोषण कर रहे है.
खैर इसका मतलब ये नहीं कि पत्रकारिता से जुड़े अच्छे संस्थानों का कोई मोल नहीं. मेरा सिर्फ ये कहना है कि सिर्फ इस आधार पे ब्लॉगर और पत्रकार में भेद किया जाना उचित नहीं कि एक के पास डिग्री है और दूसरे के पास नहीं है.ब्लॉगर के पास अनुभव का विशाल खज़ाना होता है जिसकी अनदेखी सिर्फ इस वजह से नहीं की जा सकती कि इसने किसी पत्रकारिता संस्थान से कोर्स नहीं किया है !
अंत में यही कहूँगा कि ब्लॉगर को पत्रकार बनने की लालसा से रहित होकर लगातार उत्कृष्ट कार्य करते रहना चाहिए, बेहतरीन मापदंड स्थापित करते रहना चाहिए. ब्लॉगर को ये नहीं भूलना चाहिए कि वे सड़ गल चुकी पारंपरिक मीडिया से इतर एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरे है. इनको पत्रकारों के समूह और मीडिया प्रकाशनों में व्याप्त गलत तौर तरीको से बच के रहने की जरूरत है. ब्लॉगर ये कभी ना भूले कि उसे पत्रकार जैसा नहीं वरन पत्रकार से बेहतर बनना है.
ये लेख मेरे कैनेडियन अखबार में छपे इस अंग्रेजी लेख पर आधारित है:
A Calling Higher Than Journalist
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मोदी के जीत के मायने कुछ अनकहे संदर्भो के दायरे में!

ये मोदी की भी जीत नहीं है। ये उस युवा सोच की जीत है जो अपने राष्ट्र को सचमुच विकास के राह पे ले जाना चाहता है तिकड़मी गन्दी राजनीति से ऊपर उठा कर। ये उस हिन्दू आस्था और स्वाभिमान की जीत है जिसके दायरे में संकीर्ण हित नहीं वरन संपूर्ण विश्व आता है।
मोदी के जीत में कुछ गहरे आयाम है। मोदी का जीतना एक विलक्षण घटना है। इसको कई संदर्भो में समझना बहुत आवश्यक है। ये समझने की भूल ना करे कि ये भारतीय जनता पार्टी की जीत है। ये मोदी की भी जीत नहीं है। ये उस युवा सोच की जीत है जो अपने राष्ट्र को सचमुच विकास के राह पे ले जाना चाहता है तिकड़मी गन्दी राजनीति से ऊपर उठा कर। ये उस हिन्दू आस्था और स्वाभिमान की जीत है जिसके दायरे में संकीर्ण हित नहीं वरन संपूर्ण विश्व आता है। ये उसी हिन्दू आस्था की जीत है जिसे सदियों से दासता के आवरण में रखकर खत्म करने की कोशिश की गयी हर तरह के आक्रमणकारियों के द्वारा लेकिन जिसने दम तोड़ने से इंकार कर दिया। मेरी नज़रो में तो प्रथम दृष्टया मोदी की जीत इस विखंडित हिन्दू आस्था को जीवंत करने के दिशा में एक शुरुआत है जिसमे अभी कई स्वर्णिम पड़ाव आने है। मोदी में लोगो को इस राष्ट्र को सेक्युलर मायाजाल से ऊपर उठाकर सचमुच के विकास को मूर्त रूप में लाने और इसे गतिमान बनाये रखने की असीम संभावना दिखी। इस कारण उन्हें पूरे राष्ट्र ने कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक उन्हें हाथो हाथ ले लिया। इस आकांक्षा में मोदी कितने खरे उतरते है ये वक़्त बताएगा लेकिन खरे उतरने के अलावा उनके पास विकल्प भी कोई और नहीं है। मोदी तो भारत के राजनैतिक पटल पर एक चक्रवर्ती सम्राट बन कर आ गए लेकिन इसके पहले आसुरी शक्तियों ने चुनावी माहौल में जो करतूतें की उस पर एक नज़र डालना जरूरी हो जाता है।
लोकसभा २०१४ के चुनाव प्रचार सबसे विकृत और बिल्कुल एक व्यक्ति विशेष के विरोध पर केंद्रित थे। ये बहुत दुखी कर देने वाली बात है। आप अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव को देखे। वह मुद्दो पे आधारित बहस होती है। राष्ट्र हित सबसे ऊपर होता है और कुछ छींटाकशी वहा पर भी होती है लेकिन इसके बावजूद वहाँ राष्ट्र हित से जुड़े हर संवेदनशील मुद्दो पर गंभीर बहस होती है। हमारे यहाँ राहुल गांधी ने जिनके पास तो अपनी एक टीम भी थी पर युवा सोच के नाम पर मोदी के पत्नी को लेकर टीका टिप्पणी की! शायद हमारे यहाँ विकास इसी तरह किसी के निजी ज़िन्दगी के बारे में इस तरह की सोच रखकर होता है। किसी भी पार्टी ने देश हित से जुड़े मुद्दो पर अपनी राय स्पष्ट रखने की जरुरत नहीं महसूस की। वामदाल प्रकाशक/समर्थक तो लगता है जब तक अस्तित्व में है तब तक वे अपने गढ़े हुए निरथर्क शब्दों के जाल में उलझे रहेंगे और हर वो दंगे जिसमे उन्हें मुसलमानो का समर्थन हासिल हो सके उनकी सहानभूति बटोरकर वे उन्हें उभारते रहेंगे। ये मनहूस पलो को हरा रखते है ताकि जब जरुरत हो इनसे वोट मिल सके। अमेरिका आदि देशो में भी ऐसे ही टाइप के लोग है जो मोदी को गुजरात दंगो के लिए जिम्मेदार ठहराने वाली बात पे बहस तभी करते है जब भारत में चुनाव जैसे महत्वपूर्ण क्षण आते है। इसके अलावा हमारे यहाँ कुछ क्षेत्रीय दल है जिनके नेताओ के पास नीति तो कुछ नहीं सिवाय जातिगत राजनीति के विकृत मोहरो के अलावा लेकिन अकांक्षा सिर्फ यही है कि प्रधानमन्त्री कैसे बने। इनके पास भी राष्ट्र को देने के लिए कुछ नहीं सिवाय सीमित लफ़्फ़ाज़ी के कि सांप्रदायिक शक्तियों को रोकना है। जबकि सबसे गन्दी सांप्रदायिक राजनीति ये छोटे क्षेत्रीय दल खुद करते है।
सो इस बार के चुनावी संग्राम में इलेक्शन दर इलेक्शन बेहतर सोच को अपनाते मतदाताओ ने जिस तरह चादर से धूल हटाते है वैसे ही कुछ दलों को भारत के राजनैतिक नक़्शे से निकाल फेंका। ये दल अभी तक केवल विष ही बोते रहे है। इनके पास विकास के एजेंडे के नाम पर लोक लुभावन नीतियों के अलावा कुछ नहीं होता था और उसे भी ठीक से क्रियान्वित नहीं कर पाते थे। इन्होंने इतने सालो तक ना ही केवल मतदाताओ को ठगा वरन देश की संप्रुभता और अखंडता को भी तकरीबन गिरवी रख कर छोड़ा। वाम मोर्चा के सदस्यों ने तो केवल फ़ासीवाद ना उभरे हर हिन्दू विरोधी गतिविधि को जीवित रखा कांग्रेस के छुपे सहयोग के दम से और सब हिन्दू समर्थक या राष्ट्र समर्थक नायको को हिटलर की संज्ञा देते रहे। सही है जिस पार्टी ने सबसे बड़े तानाशाहों को जन्म दिया हो गरीब मज़दूरों के हितो के लड़ाई के नाम पर उनका इस तरह के मतिभ्रम का शिकार होना आश्चर्यजनक नहीं लगता। इस पार्टी विशेष के लोगो का आलोचना के नाम पर आलोचना करना कौवों के कर्कश कांव की तरह जगजाहिर है और इसीलिए इनके पेट में जब तक मोदी राज रहेगा तब तक रह रह कर पेट में मरोड़े उठती रहेंगी।
मोदी की जीत सोशल मीडिया की जीत नहीं पर हां ये जरूर है कि कांग्रेस के फैलाये झूठ का पर्दाफाश करने में इसने अहम भूमिका निभायी। अब तक कांग्रेस अपने मायाजाल को, स्व-निर्मित अर्धसत्य को लोगो पर थोपते हुए लोगो को ठगती आई। लेकिन सोशल मीडिया के दमदार इस्तेमाल ने मेनस्ट्रीम के बिके पत्रकारों जो कांग्रेस के लिए झूठ बेचते थे की दाल न गलने दी। कांग्रेस की करतूत वैसे भी सबको मालूम थी लेकिन सोशल मीडिया ने इस सन्दर्भ में युवा सोच को बेहतर ढंग से जागृत किया। एंटी इंकम्बैंसी भी हमेशा सक्रिय रहती है लेकिन मोदीराज के आने में सोशल मीडिया और एंटी इंकम्बैंसी से भी ऊपर युवाओ की इस सोच ने कामयाबी दिलाई कि अब केवल उसी को सत्ता मिलेगी जो सच में विकास करेगा या विकास लाने में काबिल होगा। इसी वजह से सडको पे हर तरफ युवा धूप में बिना किसी प्रचार के मोदी को सुनने गए, सोशल मीडिया पर मोदी से जुडी हर गतिविधि को ट्रैक किया और फिर हर गली और मुहल्लों में चाहे शहर हो या गाँव उत्साह से भरे रहे। वंशपोषित राजनीति जो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस करती आई रही थी उसका इन्होने इस तरह से नाश कर दिया। ये पहली ऐसी लहर थी जिसका निर्माण किसी घटना विशेष ने नहीं किया। इस राष्ट्र प्रेम से ओतप्रोत लहर ने ही हर तरह के जहरीले प्रचार कि मुस्लिमो का पतन हो जाएगा को दबाते हुए हिन्दू सोच को सत्ता पे आसीन किया जिसने सदियों से पूरे विश्व को अपना समझा।
मोदी आ जरूर गए है लेकिन अब इनके सामने बेहद दुष्कर कार्य है। सो मतदाताओ को अपनी आकांक्षाओं में ना सिर्फ संयमित रहना पड़ेगा बल्कि बदलाव की अधीरता से पीड़ित ना होकर मोदी जी को अपने हिसाब से काम करते रहने देना होगा। बदलाव कोई जादू की छड़ी से नहीं आते कि आपने घुमाया और बदलाव हो गया। वर्तमान में इस राष्ट की ये दशा ये हो गयी है कि जैसे कोई गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीज़ अंतिम साँसे ले रहा हो। सो ये सोचना कि सत्ता संभालते ही एक दिन के अंदर ऐसा मरीज़ दौड़ने भागने लगेगा केवल कोरी कल्पना है। हां मोदी को इस बात को समझना जरूर है कि अब उनके पास सिवाय अच्छा करने के और कोई अन्य विकल्प नहीं है। हिन्दुओ को अगर दिग्भ्रमित करने की चेष्टा करेंगे तो उन्हें भी हाशिये पर लाने में युवा ब्रिगेड देर ना करेगी। हिन्दू तो वैसे भी अपनी निष्कपट मन के कारण हर तरह का छल का शिकार होता आया है लेकिन अब और नहीं। इसी सोच ने इस अविश्वसनीय बदलाव को जन्म दिया और यही सोच अब इस बात को भी सुनिश्चित करेगी कि राष्ट्रहित में अच्छे कार्य होते रहे। और इसीलिए ये जरूरी है कि अब आने वाले वर्षो में कोई भी हिंदू विरोधी पार्टी अस्तित्व में ही ना आये। ये तभी संभव होगा जब मोदीराज में ईमानदारी से सार्थक बदलाव होते रहे। मोदी जी ऐसा ही करेंगे हम सब राष्ट प्रेम से जुड़े लोगो का यही मानना है।

ये जरूरी है कि अब आने वाले वर्षो में कोई भी हिंदू विरोधी पार्टी अस्तित्व में ही ना आये। ये तभी संभव होगा जब मोदीराज में ईमानदारी से सार्थक बदलाव होते रहे। मोदी जी ऐसा ही करेंगे हम सब राष्ट प्रेम से जुड़े लोगो का यही मानना है।
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The Politics Of Rape In India
In early 80s one of the popular Hindi flicks revolved around a sensational theme wherein a girl accused a boy of attempting to rape her when she got caught during the seduction stage. As a result of that false accusation, the boy became victim of deep psychological disorder for lifelong. Similarly, a blockbuster Hindi movie released in early 90s shows the protagonist teaching a fitting lesson to her ladylove, who tries to take a revenge by feigning rape! The protagonist makes her very clear that a lady should not stoop down at this level wherein a sexual offence becomes a weapon to settle personal grudges. Not a long back ago the Supreme Court refused to grant relief to a girl who had feigned rape, which led to trial of two innocent youths. They had to ‘suffer the ignominy’ of being involved in such a serious offence!
The Supreme Court in his verdict, without mincing words, stated that ‘evil of perjury’ has assumed alarming proportions and, therefore, girl deserves no sympathy for maliciously setting the law in motion. “It was a settled position in law that so far as sexual offences are concerned, sanctity is attached to a victim’s statement and that the evidence of victim alone is sufficient for the purpose of conviction if it is found to be reliable, cogent and credible.” It’s ludicrous that an absurd hue and cry is being made over Mulayam Singh Yadav’s alleged rape remarks. Before entering into interpretation of his remarks, it would not be offensive to state that there are few takers, including myself, of type of caste-ridden politics played by Mulyam Singh Yadav, Lalu Yadav and Mayawati. They are icons of regressive tendencies in Indian politics, who never allowed their followers to truly embrace progressive ideals. That’s the reason why Uttar Pradesh is still struggling hard to emerge as a developed state!
One needs to be sufficiently cautious while interpreting remarks of Mulyam Singh Yadav. True, his statement “boys…make mistakes” need to be severely condemned as it trivializes the gravity of a serious offence like rape. However, that’s not the only remark he made. One of the flaws committed by Indian and foreign journalists is that they tend to rely more on sensationalism and as a result of that they misquote and misinterpret serious remarks. That’s not only against the spirit of ethics based journalism but such tendencies also lead to volatile situation in various circles of society. I am sure that an ace politician like Mulyam Singh Yadav would have got his intent right when he pointed out a disturbing trend in Indian society, wherein sexual offences have become a tool to serve vested interests.

If law makers are truly interested in equity based legal system then their prime task should be to make laws gender neutral!
The mainstream media eager to cash-in-on the controversial remark failed to highlight the other portion of his speech wherein he stated that “those filing false reports will also be taken to task” so as to stop the misuse of anti-rape law. The mainstream media, controlled by the feminist forces, very shrewdly suppressed this part of the alleged speech. He was demanding a change in anti-rape law not because “boys make mistake” but because its misuse has attained alarming proportions: “Boys and girls fall in love but due to differences they fall apart later on. When their friendship ends, the girl complains she has been raped.” This statement needs to be interpreted in light of scenario prevailing in present day Indian society marred by perverse tendencies even if one has no place for brand of politics played by likes of Mulayam and Mayawati! This time a wrong person has said a right thing. Why are we hell bent to ignore a harsh reality of present age wherein women are not hesitant to put at stake their own dignity if that suits their interests?
Interestingly, cinema is said to be the mirror of society. The filmmakers were far ahead unlike the lawmakers, having their mindset caught in time-warp, in anticipating the disturbing changes in approach of modern Indian women. Unlike the lawmakers who remained glued to perception of “abla nari” (a woman is too innocent and weak to commit any wrong), the filmmakers were bold enough to depict newer trends emerging among women fraternity (refer to movies like Undertrial, Aitraaz, Corporate and etc.). It’s a very recent phenomenon that Supreme Court has taken cognizance of misuse of dowry laws besides being worried about growing trend of perjury cases while dealing with sexual offences. However, it’s quite ironical and travesty of present day grim tendencies that new anti-rape law has no place for gender-neutral provisions. That’s quite shocking. That means law still believes that only men could be perpetrators! How long are the lawmakers going to behave like ostriches having their heads buried in sand?
Needless to state that nobody is suggesting, or rather no one wants that people guilty of sexual offences of serious types should remain above stringent punishment. However, at the same time, it’s also pertinent that fair sex involved in unfair practise of misusing laws should not be allowed to get off scot free. At the same time if law makers are truly interested in equity based legal system then their prime task should be to make laws gender neutral. What’s the point in nurturing illusions of medieval ages? They need to take clue from filmmakers, who are at least honest enough to portray real face of Indian society as it is (even if they do so to ensure flow of cash)! And the journalistic circle should better restrain themselves from viewing everything from political angle. That would augur well for the welfare of Indian society. The media should be more governed by truth than by falsehood, confusion, and twisted truth sponsored by the corrupt feminist forces! It’s really pathetic that biased mainstream media is averse to anything remotely serving the cause of men and is quick to nasty interpretations of well-meaning sentiments. And it’s even more sadder to notice that even social media remained concentrated on personal attacks rather than framing a more logical perspective!
References:
The Times of India
New York Daily News
Supreme Court On Misuse of Rape Law
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My Recent Write-Ups Which Appeared In Blogosphere As Well As In Mainstream Media!
It’s quite a strenuous affair to be sandwiched between demands of social media and mainstream media. Both the mediums in our times have attained new heights. However, it’s a great accomplishment if a writer/journalist is getting sufficient space in both the mediums at the same time. Fortunately, my writings managed to appear in mainstream publications without much canvassing on my part. I never had to heed to confrontational attitude to convince the editors from mainstream media to understand the relevance of writings which had first appeared in virtual world.
That’s because before I moved to virtual world I had already found space as Writer/Contributor/Freelancer/Letter Columnist in all leading national and International publications which include Time, Newsweek, The Hindu, The Telegraph, The Statesman, The Times of India, The Hindustan Times, India Today, Outlook, The Week, Harmony, The Sunday Indian, Hardnews, Critique, Tehelka, Northern India Patrika and Soham, to name a few. Today when I have primarily got confined to virtual space, the write-ups still appear in Northern India Patrika- a leading newspaper published from Allahabad. It’s one of the oldest newspapers published in India, being sister publication of now defunct Amrit Bazar Patrika (Kolkata) which had started in 1868.
Recent write-ups which appeared in mainstream media:
1. Vishal Bhardwaj: A Genuine Music Composer In Times When Indian Music Directors Have Become Copycats
2. Unleashing Magic Of “Triple S” Of Indian Cinema: Sahir Ludhianvi, Shakeel Badayuni and Shailendra!
3. Rape Allegation That Led To Suicide of Kurshid Anwar: A Resounding Slap On The Face Of Media!
4. Swami Vivekananda: A Spiritual Powerhouse Who Really Understood The Potential Of Youths!
5. News Item Related With Speech I Gave In Allahabad On January 12, 2014, At Jagat Taran Girls Degree College.

News Related With Speech I Delivered As A Guest Speaker In An Event Organized At Jagat Taran Girls Degree College To Celebrate The Birth Anniversary Of Swami Vivekananda. It’s The Same Venue Where Couple Of Days Back President Of India Pranab Mukherjee Addressed The Gathering Of Students! This News Item Appeared In Northern India Patrika On January 13, 2014.
5. The Times Of India’s News Coverage

The Times Of India News Item Related With Speech I Delivered. This News Item Appeared On January 21,2014
6. That’s Myself Giving Speech At Jagat Taran Girls Degree College On January 12, 2014.

Giving Speech In Allahabad Is A Great Feeling. After All, It’s A Place Associated With Great Thinkers, Intellectuals And Writers! I Gave The Speech At Jagat Taran Girls Degree College On January12, 2014. That’s The Same Venue Where President Of India Pranab Mukherjee Also Delivered A Speech Some Days Back.
कांची के शंकराचार्य की रिहाई इस बात को दर्शाती है कि वर्तमान समय में दुष्प्रचार ज्यादा ताकतवर है बजाय सत्य के!

कांची के शंकराचार्य अंततः निर्दोष और निष्पाप होकर उभरे लेकिन इस नौ साल लम्बे ड्रामे की वजह से इस अति प्राचीन हिन्दू मठ पर जो दाग लगे उसको मिटने में कई वर्ष लगेंगे.
इस नए युग के इंडिया यानि “भारत” के अगर हाल के घटनाओ को देखे तो ये आसानी से समझ आ जाएगा कि धर्मनिरपेक्ष सरकारो ने सबसे ज्यादा जुल्म ढाया है हिन्दू संतो पर. ये धर्मनिरपेक्ष सरकारे मुग़लकाल के बाद्शाहो और ब्रिटिश काल के शासको से भी ज्यादा क्रूर रही है हिन्दू धर्मं से जुड़े प्रतीकों को ध्वस्त करने और इनसे जुड़े लोगो को अपमानित करने के मामले में. हिन्दू संतो को निराकरण ही प्रताड़ित किया जा रहा है और इन्हे यौन अपराधो से लेकर देशद्रोह जैसे जघन्य अपराधो में बेवजह घसीटा जा रहा है. बिकी हुई मीडिया इन प्रकरणो का एक पक्ष दिखाती है अपने देश में और देश के बाहर विदेशी अखबारो में. ये आपको अक्सर देखने को मिलेगा कि इस प्रकार के खबरो में ज्यादातर झूठ होता है या अर्धसत्य का सहारा लेकर एक भ्रामक कहानी गाढ़ी जाती है. कोई भी मुख्यधारा का समाचार पत्र तस्वीर के दोनों पहलू दिखाने में दिलचस्पी नहीं रखता.
एक सबसे बड़ी वजह ये है कि ज्यादातर भारतीय मीडिया समूह का कण्ट्रोल विदेशी ताकतो के हाथो में है. सबके विदेशी हित कही ना कही शामिल है तब हम किस तरह से इनसे ये आशा रखे कि ये सच बोलेंगे? ये वही मुख्यधारा के समाचार पत्र है जो साध्वी प्रज्ञा के गिरफ्तारी को तो खूब जोर शोर से दिखाते है लेकिन साध्वी के साथ जेल के अंदर हुए अमानवीय कृत्यो को जो बंदियो के अधिकारो का सरासर उल्लंघन था उसको दिखाने या बताने से साफ़ मुँह मोड़ गए. ये वही मुख्यधारा के समाचार पत्र है जिन्होंने देवयानी प्रकरण में देवयानी का साथ इस तरह से दिया जैसी कि उसने भारत के नाम विदेशो में ऊँचा किया हो, जैसे उसने कोई जुर्म ही नहीं किया हो. वो इसलिए से क्योकि इसका सरकार से सीधा सरोकार है और सिस्टम इसके पक्ष में है लेकिन हर वो आदमी जिसने भी सरकार ये सिस्टम के विपक्ष में कुछ कहा उसे इस तरह की सरकारे या सिस्टम सुनियोजित तरीको से अपराधी घोषित कर देता है.
ये कहने में कोई संकोच नहीं कि आज के युग मे सत्य से ज्यादा असरदार किसी के खिलाफ सुनियोजित तरीके से फैलायी गयी मनगढंत बाते है. समाचार पत्रो का काम होता है सत्य को सामने लाना सही रिपोर्टिंग के जरिये लेकिन हो इसका ठीक उल्टा रहा है: मीडिया आज सबसे बड़ा हथियार बन गयी है झूठ और भ्रम को विस्तार देने हेतु. इसका केवल इतना काम रहा गया है कि हर गलत ताकतो को जो सत्ता में है उनको बचाना, उनको बल देना. एक बाजारू औरत की तरह अपनी निष्ठा को हर बार बदलते रहना मीडिया का एकमात्र धर्मं बन गया है. साधारण शब्दो में ये सत्ता पे आसीन शासको की भाषा बोलता है. कांची के पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी की गिरफ्तारी के प्रकरण के रौशनी में इस प्रकरण को देखे जिन्हे २००४ में बेहद शर्मनाक तरीके से शंकर रमण के हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. शंकर रमण कांची के एक मंदिर में मैनेजेर थें. उस वक्त के तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए और ये जताने के लिए कि कानून से ऊपर कोई नहीं होता इनकी गिरफतारी सुनिश्चित की. कांची के शंकराचार्य के ऊपर “आपराधिक षड्यंत्र, अदालत को गुमराह करने गलत सूचना के जरिये, धन का आदान प्रदान आपराधिक गतिविधि को क्रियांवित करने के लिये” आदि आरोप लगाये गए.
इस एक हज़ार साल से भी ऊपर अति प्राचीन ब्राह्मणो के अत्यंत महत्त्वपूर्ण केंद्र के मुख्य संचालक को इस तरह अपमानजनक तरीके से एक दुर्दांत अपराधी के भांति गिरफ्तार करना और फिर मुख्यधारा के समाचार पत्रो के द्वारा अनर्गल बयानो के आधार पर उनको दोषी करार कर देना अपने आप में मीडिया की सच्चाई बयान कर देता है. ये बता देना आवश्यक रहेगा कि कांची कामकोटि पीठ हिन्दुओ का अति प्राचीन मठ है जिसको हिन्दू समुदाय में दुनिया भर में बेहद श्रद्धा के साथ देखा जाता है. कांची के पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी बहुत सम्मान की दृष्टि से देखे जाते रहे है हिन्दू शास्त्रो के मर्मज्ञ होने के कारण. इन्होने नवी शताब्दी में स्थापित कांची कामकोटि पीठ के गरिमा को नयी ऊंचाई प्रदान की, जिसकी हिन्दू समुदाय में वेटिकन चर्च सरीखी पकड़ है. जयललिता और ब्राह्मण विरोधी नेता डीएमके प्रमुख करूणानिधि के आपसी मतभेदों के चलते इस हिन्दू मठ के माथे पर कालिख लग गयी.

ये बता देना आवश्यक रहेगा कि कांची कामकोटि पीठ हिन्दुओ का अति प्राचीन मठ है जिसको हिन्दू समुदाय में दुनिया भर में बेहद श्रद्धा के साथ देखा जाता है. कांची के पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी बहुत सम्मान की दृष्टि से देखे जाते रहे है हिन्दू शास्त्रो के मर्मज्ञ होने के कारण. इन्होने नवी शताब्दी में स्थापित कांची कामकोटि पीठ के गरिमा को नयी ऊंचाई प्रदान की, जिसकी हिन्दू समुदाय में वेटिकन चर्च सरीखी पकड़ है. जयललिता और ब्राह्मण विरोधी नेता डीएमके प्रमुख करूणानिधि के आपसी मतभेदों के चलते इस हिन्दू मठ के माथे पर कालिख लग गयी.
उस वक्त के प्रमुख समाचार पत्रो ने ये दर्शाया कि पुलिस इस तरह से गिरफ्तार करने का साहस बिना पुख्ता सबूतो के कर ही नहीं सकती. उस वक्त अभियोजन पक्ष के वकील इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि शंकराचार्य को दोषी साबित करने के लिए उनके पास पर्याप्त पुख्ता सबूत थें. विवेचना अधिकारी प्रेम कुमार का ये बयान प्रमुखता से छपा कि हमारे पास ठोस साक्ष्य है स्वामी जयेन्द्र सरस्वती के खिलाफ और ये कि शंकर रमण और इनके बीच करीब चार सालो से आपसी मनमुटाव था जिसको सिद्ध करने के लिए पर्याप्त सबूत इकठ्ठा किये जा रहे है.
खैर ईश्वर के यहाँ देर भले हो पर अंधेर नहीं है. सत्य की अंततः विजय हुई जब पांडिचेरी की विशेष अदालत ने सत्ताइस नवंबर २०१३ को उन सभी लोगो को जो शंकर रमण हत्याकांड में आरोपी बनाये गए थें उनको बाइज्जत बरी कर दिया. इसी के साथ नौ साल से हो रहे ड्रामे का पटाक्षेप हो गया. उन पर लगाये गए सभी आरोपो से उन्हें मुक्त कर दिया गया. जितने भी प्रमुख गवाह थें उन्होंने अभियोजन पक्ष के वर्णन को समर्थन देने से इंकार कर दिया। अभियोजन पक्ष के विरोध में करीब ८० से अधिक गवाहो ने अपने बयान दर्ज कराये।
कांची के शंकराचार्य अंततः निर्दोष और निष्पाप होकर उभरे लेकिन इस नौ साल लम्बे ड्रामे की वजह से इस अति प्राचीन हिन्दू मठ पर जो दाग लगे उसको मिटने में कई वर्ष लगेंगे. हिन्दुओ के आस्था और प्रतीक के साथ जो बेहूदा मजाक हुआ उसके निशान कई वर्षो तक संवेदनशील मनो को कटोचते रहेंगे. लेकिन हिन्दू ब्राह्मण के उदार मन को देखिये कि इतना होने के बाद भी किसी के प्रति कोई कटुता नहीं. इस परिपेक्ष्य में शंकराचार्य के वक्तव्य को देखिये जो उन्होंने बरी होने के बाद दिया: ” धर्म की विजय हुई. सत्य की जीत हुई. सब कुछ खत्म हो जाने के बाद अंत में केवल यही बात मायने रखती है. मुझे मेरे गुरु ने सब कुछ सहन करने को कहा है. इसलिए ये कहना उचित नहीं होगा कि हालात मेरे लिए असहनीय थें. हा कुछ दिक्कते जरूर आयी वो भी उस वजह सें कि हम लोग नयी तरह की परिस्थितयो का सामना कर रहे थें. हमने पूर्व में देखा है कि किस तरह आक्रमणकारियों ने हिन्दू मंदिरो पर हमले कर उनको विध्वंस किया। आज जब हम मंदिरो पर पड़े उन हमलो की निशानियाँ देखते है तो हमे वे आक्रमणकारी और उनकी क्रूरता याद आती है. आज जो कुछ भी मठ के साथ हुआ ( मेरे पर जो आरोप लगे) वे बहुतो की नज़र में पूर्व में किये गए आक्रमणकारियों के द्वारा किये गए विध्वंस सरीखे ही है.”
ये बहुत दुःख की बात है कि जैसे ही किसी हिन्दू संत पर कोई आरोप लगते है सारे मुख्यधारा के मीडिया समूह उस संत को बदनाम करने की कवायद में जुट जाते है पूरी ताकत से इस बात से बिल्कुल बेपरवाह होकर कि मीडिया का मुख्य काम किसी भी घटना की सही-२ रिपोर्टिंग करनी होती है ना कि न्यायिक ट्रायल करना। उससे भी बड़ी बिडम्बना ये है कि अगर संत पर लगे आरोप निराधार और झूठे पाये जाते है तो जो अखबार या फिर न्यूज़ चैनल आरोप लगने के वक्त पूरे जोर शोर से संत को दोषी ठहरा रहे थे वे ही अखबार और न्यूज़ चैनल पूरी तरह से कन्नी काट लेते है. संत को बेगुनाह साबित करने वाली खबर कब आती है और कब चली जाती है ये पता भी नहीं चलता है. यही वजह है कि कांची के शंकराचार्य की बेगुनाही और बाइज्ज़त बरी होना किसी भी शीर्ष अखबार के सुर्खियो में नहीं आया. शायद सेकुलर मीडिया ने ये सोच कर इस खबर को प्रमुखता से नहीं बताया क्योकि हिन्दुओ से जुडी कोई भली खबर सेक्युलर भावना के विपरीत होती है!
मेनस्ट्रीम मीडिया को प्रोपगेंडा ज्यादा रास आता है बजाय सत्य के. सेक्युलर ताकतो ने और इनके द्वारा संचालित मीडिया समूहो ने कांची के शंकराचार्य के गिरफ्तारी के वक्त ये बहुत जोरदार तरीके से ये दर्शाया कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं होता. तो क्या यही सेक्युलर ताकते जो कानून की बात करती है शाही ईमाम सैय्यद अहमद बुख़ारी को गिरफ्तार करने की हिम्मत रखते है जिन पर कई धाराओ में देश के विभिन्न थानो में एफ आई आर दर्ज है? क्या यही सेक्युलर ताकते उन क्रिस्चियन मिशनरीज को बेनकाब करने की ताकत रखती है जो देश के पिछड़े और दूर दराज के इलाको में लोगो को बहला फुसला कर उनका धर्म परिवर्तन कर रही है? लेकिन ये सबको पता है कि सेक्युलर मीडिया ऐसा कभी नहीं करेगा. ऐसा इसलिए कि इन सेक्युलर लोगो की निगाह में कानून के लम्बे हाथ केवल हिन्दू संतो के गर्दन तक पहुंचती है. ये हिन्दू संतो को केवल बदनाम करने तक ही सीमित है और हिन्दू आस्था को खंडित और विकृत करने भर के लिए है. ये दुष्प्रचार के समर्थक है सत्य के नहीं.

हिन्दू संत अपनी जाने गंवाते रहे है लेकिन ये खबरे कभी भी सेक्युलर मीडिया की सुर्खिया नहीं बनी. ये स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की तस्वीर है जिनकी हत्या क्रिस्चियन ताकतो ने कर दी थी.
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खुर्शीद अनवर की आत्महत्या: समाज, कानून और मीडिया के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा!

गम्भीर मुद्दा ये है कि सतही मीडिया ट्रायल के चलते जिस भीषण मानसिक कष्ट से गुजरना होता है और जो सरेआम अपमान सहन करना पड़ता है क्या उसका कोई अस्तित्व नहीं? क्या इसका कोई मोल नहीं? क्या ये बिलकुल उपेक्षित कर देने वाली बात है?
खुर्शीद अनवर की आत्महत्या कई गम्भीर सवाल खड़े कर गयी आज के समाज के बारे में, पत्रकारिता के स्तर के बारे में और कानून के उपयोग और दुरुपयोग के सन्दर्भ में. खुर्शीद अनवर एक प्रसिद्ध सामजिक कार्यकर्ता थें जो नई दिल्ली में इंस्टिट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी नाम की संस्था चलाते थें. इसके अलावा वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र भी थें. खुर्शीद अनवर ने पिछले साल १८ दिसम्बर २०१३ को आत्महत्या कर ली थी जब उनपे एक मणिपुरी औरत ने अपने साथ दुष्कर्म का आरोप लगाया था. ये खबर कुछ एक समाचार चैनलों पर प्रमुखता से दिखायी गयी और इसके बाद सोशल नेटवर्किंग साईटस पर अंतहीन बहस छिड़ गयी. पहले तो खुर्शीद इस आरोप से हिल गए और इसके बाद मीडिया चैनलो द्वारा कीचड़ उछालने के बाद सदमे से ग्रस्त खुर्शीद ने आत्महत्या कर ली. बाद में उनके पास से बरामद सुसाइड नोट में इस बात का उल्लेख था कि मणिपुरी लड़की के साथ उन्होंने बलात्कार नहीं किया था बल्कि आपसी सहमति से शारीरिक सम्बन्ध बनाये थे.
इस घटना ने मुझे श्रीनिवास सिरास के आत्महत्या की याद दिला दी जो प्रोफेसर थे अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में. इस प्रकरण में न्यूज़ चैनलो नें इस प्रोफेसर के निजता के साथ खिलवाड़ किया था और उनकी गोपनीयता को सरेआम उजागर करके उनके समलैंगिक सम्बन्धो को विकृत स्वरूप दे दिया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस प्रकरण में सुनवाई करते हुए प्रोफेसर को थोड़ी राहत प्रदान की थी पर मीडिया चैनलो द्वारा की गयी गुस्ताखी उन पर भारी पड़ गयी और उन्होंने आत्महत्या कर लिया. कोर्ट इस तरह के मीडिया ट्रायल पर अक्सर चेतावनी देती रही है पूर्व में कि न्यूज़ चैनल जब केस ट्रायल स्टेज में हो तो किसी भी निष्कर्ष पर अपनी तरफ से पहुचने की हड़बड़ी ना दिखाए और न्यायालय की कार्यवाही को प्रभावित करने की कोशिश ना करे लेकिन बड़े कॉर्पोरेट संस्थानो द्वारा संचालित ये न्यूज़ चैनल न्यायालय के द्वारा इन पारित आदेश को सिर्फ कागज़ का एक टुकड़ा समझते है और उन्हें किसी प्रकरण में निहित संवेदनशीलता से कुछ नहीं लेना देना होता सिवाय इसके कि उसका माखौल किस तरह उड़ाया जाए. ये सही है मीडिया ट्रायल एक जटिल मुद्दा है लेकिन उससे बड़ा सच ये है कि सनसनीखेज मीडिया ट्रायल के चलते किसी के इज्जत और उसके आत्मसम्मान के साथ जो खिलवाड़ होता है और इससे जो अपूर्णीय क्षति होती है उसकी भरपाई असंभव होती है. मीडिया किसी दोषी व्यक्ति के अधिकारो के हमेशा अतिक्रमण करती आयी है और समय आ गया है कि सही तथ्यात्मक रिपोर्टिंग और रिपोर्टिंग जो गलत इरादो से की गय़ी हो सिर्फ न्यूज़ चैनल के टी आर पी या फिर अखबार की बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से की गयी हो दोनों में एक स्पष्ट रेखा का निर्धारण हो.
“सनसनीखेज रिपोर्टिंग तो हमेशा होगी क्योकि सनसनीखेज घटनाये भारत में हमेशा रहती है. सुप्रीम कोर्ट इस पर लगाम लगाने में असमर्थ है. ये सही है कि रिपोर्टिंग सही होनी चाहिए पर इसका ये मतलब निकालना कि ये मीडिया के द्वारा ट्रायल है एक निन्दात्मक अभिव्यक्ति है. कोर्ट या किसी के पास कोई स्पष्ट मापदंड नहीं है जो ये निर्धारित कर सके कि मीडिया ट्रायल क्या होता है.” (सीनियर अधिवक्ता राजीव धवन, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया). खैर इस बात से इंकार करना असम्भव है कि मीडिया के द्वारा किसी भी दोषी व्यक्ति के अधिकारो का हनन और किसी के भी निजता के साथ खिलवाड़ करने के कृत्य का अपने तरफ से दूषित स्पष्टीकरण कोई भी मतलब नहीं रखता। ये सिर्फ एक व्यर्थ का प्रलाप होता है, बेवजह अपने को सही ठहराना होता है. उसकी स्पष्टीकरण से उस अपूर्णीय क्षति की भरपाई असम्भव है जो इस वजह से होती है. इन दोनों प्रकरणो में दो व्यक्ति ने अपनी जान ले ली इस वजह से और अब हम ये कभी नहीं जान पाएंगे कि सच्चाई क्या थी. क्या ये दो जाने वापस मिल जाएंगी? क्या खोया सम्मान वापस मिलेगा? शायद कभी नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार सईद नक़वी शायद सच के ज्यादा करीब है जब ये कहते है कि “पत्रकारिता में शायद निष्कर्षो पर पहुचने की हड़बड़ी है. ये उसी दिन किसी को मुजरिम ठहरा देता है जिस दिन किसी पे आरोप लगते है, इसके पहले कि कोर्ट किसी बात का निर्धारण करे. ये बहुत दुखी कर देने वाली बात है. कैसे मीडिया इतनी जल्दीबाज़ी में किसी निष्कर्ष पर पहुच सकती है और किसी को इतनी हड़बड़ी में दोषी करार दे सकती है? मीडिया को इस बात का इन्तजार करना चाहिए कि कम से कम प्राथमिक रिपोर्ट तो दर्ज हो, कम से कम जांच तो पूरी हो जाए” (डी एन ए न्यूज़ रिपोर्ट) ये बिलकुल चकित कर देने वाली बात है कि मीडिया कभी भी इस तरह के सनसनीखेज मीडिया ट्रायल के दौरान अपूर्णीय क्षति और इनके अंजामो के बारे में कभी भी ईमानदारी से आकलन नहीं करती. गम्भीर मुद्दा ये है कि सतही मीडिया ट्रायल के चलते जिस भीषण मानसिक कष्ट से गुजरना होता है और जो सरेआम अपमान सहन करना पड़ता है क्या उसका कोई अस्तित्व नहीं? क्या इसका कोई मोल नहीं? क्या ये बिलकुल उपेक्षित कर देने वाली बात है? ये बिलकुल स्पष्ट है कि मीडिया ट्रायल अधिकतर एकतरफा, भ्रामक और तथ्यो के साथ खिलवाड़ होता है जिसमे इस बात की बिलकुल परवाह नहीं की जाती कि कम से कम तथ्यो के असलियत का तो निर्धारण कर लिया जाए सूक्ष्मता से.
इस पूरे प्रकरण में दो बहुत गम्भीर पहलू शामिल है. पहला तो ये कि ये समाज के इस विकृत बदलाव को दर्शाता है कि समाज में हड़बड़ी में निष्कर्षो पर पहुचने की लत लग गयी है अधकचरे दिमाग के साथ. इसे चाहे वो प्रशंसा हो या फिर आलोचना दोनों को बिना किसी आधार के आत्मसात करने की आदत सी हो गयी है. ना आलोचना का स्तर विकसित हो पाया और ना ही प्रशंसा के आयाम निर्धारित हो पाये. आलोचना अगर हो रही है तो तो वो भी तब जब कि कोई भी तथ्यात्मक या तार्किक आधार आलोचना के पक्ष में मौजूद नहीं है. दूसरा पक्ष ये है कि जिन कानूनो को स्त्री की अस्मिता की रक्षा करने के लिए बनाया गया है वे अब निर्दोष लोगो को प्रताड़ित करने का अस्त्र बन गए है. ये कितने तकलीफ की बात है कि जहा किसी स्त्री के सेक्सुअल हरस्मेंट का मामला उभरता है वही पे समाज का एकपक्षीय भेदभाव ग्रस्त दिमाग उभर कर सामने आ जाता है और मीडिया हमेशा की तरह दोषी के ऊपर हर तरह का लांछन जड़ देता है और इसके पहले वो अपने बेगुनाही को साबित करे वो मुजरिम साबित करार कर दिया जाता है. ये सर्वविदित है कि जो नए कानून की परिभाषा है सेक्सुअल हरस्मेंट को रोकने कि उसके प्रावधान इस तरह के है कि आप तकरीबन मुजरिम ही है और इस बात को गौण कर दिया गया है कि आप के पास भी बचाव के सही रास्ते होने चाहिए. और सबसे घातक ये है कि एकतरफा मीडिया ट्रायल शुरू हो जाने के बाद जो उसके पास अपने को बचाने के जो रास्ते होते है वे भी बंद हो जाते है क्योकि मीडिया आपके विपक्ष में माहौल खड़ा कर देता है हर तरफ.
“भारत में और अन्य देशो में जहा इस तरह के कानून पास हुए है औरतो के साथ होने वाले अपराधो को रोकने के लिए उसमे बर्डेन ऑफ़ प्रूफ को सुनियोजित तरीके से बदल दिया गया है. अब दोषी के ऊपर ये जिम्मा है कि वे अपनी निर्दोषता साबित करे. ये परिवर्तन निहित रूप से बहुत गलत है पर शायद ये इसलिए किया गया है कि ताकि इन प्रकार के अपराधो में स्त्री के पास सामान स्तर के अवसर हो अपने साथ हुए अन्याय के भरपाई के लिए. लेकिन जो अब नए कानून बने है सेक्सुअल हरस्मेंट रोकने के लिए उसमे ये बर्डन ऑफ़ प्रूफ इस सख्त स्वरूप में है कि जहा दोषी (पुरुष) के पास बचाव के सारे रास्ते बंद हो जाते है. अगर एक बार आप पर आरोप लगे तो इस बात की सम्भावना कम है कि आप अपने को निर्दोष साबित कर सके या आपको बेहद मशक्कत के बाद ही कोई रास्ता दिखायी पड़े. ये शायद नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत है.” (वरिष्ठ पत्रकार प्रेम शंकर झा, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया)
संक्षेप में समाज और मीडिया दोनों का स्तर रसातल में चला गया है क्योकि ये दोनों भावनाओ के प्रवाह में बहने के आदी हो गए है और इन दोनों को तथ्यो और तार्किक सोच से कुछ लेना देना नहीं रह गया है. दोनों को इस विकृत खेल में रस आने लगा है जहा किसी निर्दोष के भावनाओ के साथ खिलवाड़ होता है, उसके आत्मसम्मान के जब टुकड़े टुकड़े किये जाते है. लेकिन खेद कि बात ये है कि न्याय परंपरा/व्यवस्था भी इसी विकृत रस का शिकार हो गयी है, इन्ही घातक प्रवित्तियों का शिकार सा हो गयी है, खासकर उन मामलो में जहा स्त्रियों से जुड़े अपराधो के निष्पक्ष अवलोकन की बात आती है. खैर सब की जिम्मेदारी बनती है कि भावनात्मक प्रवाह में बह कर लिए गए निर्णयो के बजाय सोच समझकर तार्किक रूप से लिए गए निर्णयो को प्राथमिकता दी जाए. ये बहुत आवश्यक हो गया है समाज के बिखराव को रोकने के लिए, एक मूल्य आधारित समाज के निर्माण के लिए.
References:
Activist Khurshid Anwar’s suicide: Was media trial responsible?
AMU’s ‘gay’ prof commits suicide
पिक्स क्रेडिट:
Rape Allegation That Led To Suicide of Kurshid Anwar: A Resounding Slap On The Face Of Media!
(Also Appeared in Northern India Patrika On January 07, 2014)
The suicide by a prominent social activist Khursid Anwar, executive director of NGO Institute for Social Democracy and also a JNU scholar, has given rise to some pretty disturbing questions. Khurshid Anwar allegedly committed suicide in the aftermath of rape allegation by a Manipuri lady. This news got flashed on several news channels, followed by intense discussion on several social media networking websites including Facebook. Unable to bear this unwarranted media trial, this well known social activist committed suicide by jumping from his third floor residence in Vasant Kunj, New Delhi, on December 18, 2013. As per suicide note found at his home it was not a rape but consensual sex.
This tragic incident reminds me of suicide committed by Sriniwas Siras, who happened to be a professor at Aligarh Muslim University. In this particular case, news channels were found guilty of invading his privacy by making public his homosexual affair in blown out of proportion way. The professor was granted relief by the Allahabad High Court, but he was not able to cope up with harassment in the form of bizarre media coverage. That made him to end his life. Of late, courts have regularly come up with strict reminders for media channels not to indulge in media trials when the case is in its trial phase. However, influential media houses have always adopted care-a-damn, leading to mockery of the sensitivity involved in any issue under trial. It’s true that need to control media trial remains a complicated issue but it’s an undisputed fact that there is no dearth of cases, wherein sensational media trial caused irreparable damage to one’s reputation. The media has always taken for granted “rights of the accused” and it’s high time to make clear demarcation between accurate reporting and reporting done with malicious intent to increase the sale or ensure high TRP ratings.
“Sensational reporting will take place because sensational incidents keep happening in India. The Supreme Court will not be able to stop it. Yes, reporting must be accurate. But to say it amounted to trial by media is only a pejorative expression. Neither the court nor any one has provided parameters to define what constitutes trial by media.” (Senior Advocate Rajeev Dhavan in The Times of India) However, media’s pervert justification of its breach of privacy and rights of accused would never be enough to clear the huge mess caused by its unwanted intervention. Two lives of reputed individuals came to meet untimely end because of media trial. Can it bring them back to life? Can it restore the loss of reputation?
In fact, senior journalist Saeed Naqvi has framed a perfect perspective regarding media trail: ” There is a tendency in journalism – it convicts a person on the day allegation is leveled against him, even before the court convicts him. That is sad. How can media reach a conclusion so quickly and start showing one as an accused? At least, it should wait for lodging of an FIR, completion of investigation” (DNA News Report) It’s really amazing that media always never takes into account serious repercussions involved in unfair trial. Is “mental trauma and public humiliation” in the wake of seriously flawed “media trial” is thing of lesser concern? It’s so evident in media trials that reporting is misleading and one-sided with scant respect for cross-checking of the facts.
This whole issue involves two other serious concerns. The first one brings to the fore love of the society to reach at conclusions in one go with a prejudiced mindset. It loves to criticize or, for that matter, endorse any issue even if there are no concrete material evidence to support its beliefs. The other aspect involves abuse of laws meant to protect sexual harassment of women. It’s simply not an issue pertaining to rights of men that laws meant to protect women have lead to harassment of innocent men. It’s so pathetic that moment an issue involving sexual harassment of women gets highlighted, the media enters in caricature of the accused, portraying him guilty. Worse, if you analyze the laws meant to prevent sexual harassment of women, it’s evident that men are virtually assumed to be guilty. Tragically, the attempt of the accused to prove himself innocent becomes further bleak in wake of such pervert media trials.
“The disconcerting answer is that it will not matter. In India, and several other countries where laws have been passed to punish crimes against women, the burden of proof has been consciously reversed: it is the accused who has to prove his innocence. This reversal is bad in principle, but probably necessary to create a level playing field for women in cases pertaining to sex crimes. But the new rape law has carried the reversal to a point where, if implemented as drafted, it will defeat the very purpose of justice . For once a man is accused, it leaves him with no way whatever of proving his innocence.” (Senior Journalist Prem Shankar Jha in The Times Of India)
In nutshell, both society and media have lost the ability to be governed by reason and logic. Both of them have given way to pervert pleasure of playing havoc with the dignity and reputation of individuals. However, it’s baffling that even legal jurisprudence appears to have adopted same line of action, more so in cases involving sexual harassment of women. It’s time for everybody to upheld logical thinking over thinking governed by rash emotions. That’s essential to stop the fragmentation of society, to create a value-oriented society.
Activist Khurshid Anwar’s suicide: Was media trial responsible?
AMU’s ‘gay’ prof commits suicide
Beginning Of A New Era: Men’s Rights News Reports Which Featured In Newspapers Published From Lucknow And Allahabad

Author Of This Post At Fifth Men’s Rights National Conference Held In Nagpur, Maharashtra, From August 16- August 18, 2013.
The Fifth Men’s Rights National Conference, held in Nagpur in the second week of August 2013, got tremendous coverage in mainstream media in Allahabad and Lucknow. It’s matter of self-pride since newspapers in this region are still not that familiar with concept of men’s rights. It’s a new phenomenon for them. In fact, issues pertaining to rights of men are still taken in lighter vein. Even the ones who are supposed to be more informed than ordinary class of people like reporters, editors and lawyers remain nonchalant when they come to hear about exploitation of men.
Fortunately, the extensive coverage of news related with Men’s Rights National Conference held in Nagpur marks a beginning of new era in this part of India. I am sure in coming days talks related with rights of men will not evoke irresponsible remarks. Have a look at the various news reports which appeared in Allahabad region’s prominent newspapers. It proved to be a herculean task to make them find meaning in talks related with men’s issues.I am happy that I was able to shatter the inertness prevalent in the minds of people who are supposed to be the custodians of human rights and made them understand the seriousness attached with cause of men. Many thanks to those reporters, editors and lawyers who responded positively as I spoke about the rights of men. Hope the cause of men’s attain new heights in coming days
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Link Related To This News Report: The Times Of India, Allahabad Edition
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Northern India Patrika: Oldest English Newspaper In Allahabad Region Gave Enough Coverage To Rights Of Men…
Link To This News Report: Northern India Patrika
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3. Daily News Activist Published From Lucknow
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4. Jansandesh Times Published From Allahabad, Varanasi, Gorakhpur And Lucknow.
Links Related To This News Report Published On October 03, 2013: Visit The Archives Section Of Jandsandesh Times
And yes, many thanks to Amlesh Vikram Singh, Correspondent associated with Jansandesh Times, who made sincere efforts to get this news report published.
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An Important News Item Related With Rights Of Men:
Deciphering The Significance Of Men’s Rights On Indowaves
Deciphering The Significance Of Men’s Rights Movement Published In Northern India Patrika
Deciphering The Significance Of Men’s Rights Movement On Website 498.in
हिंदी पत्रकारिता की धज्जिया उड़ाते आजकल के सबसे ज्यादा बिकने वाले हिंदी के समाचार पत्र!!
हिंदी पत्रकारिता की धज्जिया उड़ाने वाले कोई और नहीं हिंदी के तथाकथित पत्रकार खुद है. ये पत्रकारिता नहीं मठाधीशी करते है. कम से कम उत्तर भारत के सबसे ज्यादा बिकने वाले एक प्रसिद्ध हिंदी दैनिक के कार्यालय में जाने पर तो यही अनुभव हुआ. अखबार देखिये तो लगता है खबर के बीच विज्ञापन नहीं बल्कि विज्ञापन के बीच खबर छप रही है. उसके बाद भाषा का स्तर देखिये वही हिंग्लिश या फिर सतही हिंदी का प्रदर्शन. और करेला जैसे नीम चढ़ा वैसी ही बकवास खबरे. मसलन बराक ओबामा को भी अपनी पत्नी से डर लगता है! इस खबर इस समाचार पत्र ने फोटो सहित प्रमुखता से छापा पर इस अखबार के लोगो को पुरुष उत्पीडन जैसी गंभीर बात को जगह देने की समझ नहीं। इसकी सारगर्भिता को समझाना उनके लिए उतना ही कठिन हो जाता है जैसे किसी बिना पढ़े लिखे आदमी को आइंस्टीन के सूत्र समझाना। बिना पढ़े लिखे आदमी को भी बात समझाई जा सकती है अगर वो कम से कम सुनने को तैयार हो मगर वो ऐसी बात सुनकर मरकही गाय की तरह दुलत्ती मारने लगे तब? हिंदी पत्रकारिता आजकल ऐसे ही लोग कर रहे है.
हिंदी पत्रकारिता का जब इस देश में उदय हुआ था तो उसने इस देश के आज़ादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उस युग के सभी प्रमुख क्रांतिकारियों के अपने समाचार पत्र थें. लेकिन आज के परिदृश्य में ये पूंजीपतियों के हाथो में सबसे बड़ा अस्त्र है अपने प्रोडक्ट को बेचने का, राजनैतिक रूप से अपने विरोधियो को चित्त करने का. सम्पादकीय आजकल प्रभावित होकर लिखे जा रहे है. हिंदी समाचार पत्र में छपने वाले समाचार खबरों के निष्पक्ष आकलन के बजाय अंग्रेजी अखबारों के खबरों का सतही अनुवाद भर है. मै जिस उत्तर भारत के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले प्रसिद्ध समाचार पत्र की बात कर रहा हूँ वो अपने को सांस्कृतिक विचारो के प्रभाव को दिशा देने वाला समझता है लेकिन अपने अखबार के मिनी संस्करण के पन्नो पर विकृत हिंदी में (माने कि हिंग्लिश) में सबसे कूड़ा खबरे और वो भी “ऑय कैंडी” के सहारे बेचता है. “आय कैंडी” आखिर भारी विरोध के वजह से गायब तो हुआ पर जाते जाते बाज़ार में टिके रहने की समझ दे गया!
बाज़ार में बने रहने का गुर इस्तेमाल करना गलत नहीं है लेकिन इसका ये मतलब ये नहीं है कि आप खबरों के सही विश्लेषण करने की कला को तिलांजलि दे दें. लेकिन हकीकत यही है. हिंदी के पत्रकार और सम्पादक ना सीखना चाहते है और ना ही सीखने की तमीज रखते है. कुएं के मेढंक बने रहना इन्हें सुहाता है. अगर यकीन ना हो तो किसी हिंदी के अखबार के दफ्तर में जाके देख लें. खासकर उत्तर भारत के सबसे ज्यादा बिकने वाले हिंदी के अखबार के दफ्तर में तो जरूर जाए. वहा आपको खुले दिमागों के बजाय दंभ से चूर बंद दिमाग आपको मिलेंगे। क्या ये दिमाग सच को उभारेंगे? समाज को बदलेंगे?

ये पूंजीपतियों के हाथो में सबसे बड़ा अस्त्र है अपने प्रोडक्ट को बेचने का, राजनैतिक रूप से अपने विरोधियो को चित्त करने का. सम्पादकीय आजकल प्रभावित होकर लिखे जा रहे है.
पिक्स क्रेडिट:
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