आमिर खान के वक्तव्य की असल मंशा को समझना बेहद जरूरी है! घातक प्रवित्ति की निशानी है ऐसे वक्तव्य !!

( हिन्दू आधार पे निर्भर रहने वाले इस तरह के स्टार्स को जिस दिन हिन्दू समाज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देना बंद कर देगा उस दिन के बाद से इनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहेगी. अब यही करने की जरुरत आ गयी है. आमिर खान के वक्तव्य का सही जवाब यही है. सही प्रतिरोध यही है. )
आमिर खान के वक्तव्य की गंभीरता को समझना आवश्यक है. इसकी असल थाह लेना बहुत जरूरी सा है. इस परिपेक्ष्य में नहीं कि ये आमिर खान ने कहा है बल्कि एक दूसरे सन्दर्भ में इनके वक्तव्य को परखना अति आवश्यक है. पहले ये समझना पड़ेगा कि ये असहिष्णुता पे चर्चा पूरी तरह से सुनियोजित षड़यंत्र है सरकार को अस्थिर करने की. इसमें तो कुछ देश की ही ताकते है जैसे खिसियाये हुए अलग थलग पड़ गयी राजनैतिक पार्टिया है तो दूसरी तरफ छुपी हुई विदेशी ताकते है जिनके अपने हित नहीं सधते दिखाई पड़ रहे है. सो जब कुछ नहीं मिला तो “असहिष्णुता” को ही मुद्दा बनाकर सरकार पे कीचड फेकना शुरू कर दिया. जाहिर सी बात है कि इसमें बिकी हुई मुख्यधारा की मीडिया भी शामिल है. सो असल सवाल ये बनता है कि इस प्रायोजित असहिष्णुता वाली बहस में आमिर खान को कूदने की क्या जरुरत थी? और यही से आमिर खान के वक्तव्य की असल मंशा उभर कर सामने आ जाती है!! असहिष्णुता को भी एक पंक्ति में समझते चले कि अगर दंगो का इतिहास देखे तो आजादी के बाद तो सबसे नृशंस तरीके से हत्याए कांग्रेस के शासन काल में हुई!! आश्चर्य इस बात का है कि कभी भी इनके शासन काल में असहिष्णुता पे इतना हो हल्ला नहीं मचा पर मोदी के शांतिपूर्वक एक साल पूरे होते हुए ही अचानक असहिष्णुता एक भारी मुद्दा बन गया. या बना दिया गया!!
आमिर खान के वक्तव्य की आने का समय देखिये. पेरिस में हमले के बाद दुनिया की सारी ताकते मुस्लिम आतंकवाद के वीभत्स नए चेहरे आईएस से निबटने की तैयारी में लगी है लेकिन हमारे यहाँ बहस आमिर खान के निरर्थक वक्तव्य पे केन्द्रित है. दुनिया एक तरफ बेचैन है कैसे इस्लामिक आतंकवाद से निबटा जाए पर हमारे यहाँ बिके हुए बुद्धिजीवी और प्रेस्टीटयूट स्पॉन्सर्ड असहिष्णुता पे आधारित चर्चा में सलंग्न है. कुछ दुखद घटनाए हुई जो नहीं होनी चाहिए थी पर उनसे निबटने के तरीके और भी थें पर उसको राजनैतिक स्वरूप देकर लगभग अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना दिया गया. ये पूरी बहस उतनी ही सतही है जितनी ओबामा का भारत दौरे के खत्म होने के बाद अपने देश में जाकर दिया गया वक्तव्य कि भारत में वर्तमान में फैली धार्मिक असहिष्णुता देखकर महात्मा गांधी को तकलीफ होती!! यद्यपि ओबामा जब तक भारत में थें तब तक इन्हें सब सही लगा लेकिन वाशिंगटन पहुँचते ही इनके सुर बदल गए. इस वक्त तो सभी राष्ट्रों में चर्चा इस बात पे होनी चाहिए कि पेरिस में आईएस के खतरनाक हमले के बाद किस तरह हम वो व्यवस्था करे कि पहले इस तरह का हमला ना हो और दूसरे किस तरह इस्लामी आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंका जाए. लेकिन हमारे यहाँ के स्खलित बुद्धिजीवी निरर्थक चर्चा में सलंग्न है. अंग्रेजी में इसे मच अडू अबाउट नथिंग कहेंगे.
इसी वक्त हमारे सदन में संविधान के औचित्य और प्रासंगिकता पे माननीय प्रधानमन्त्री और अन्य सम्मानित सांसदों ने अपने बहुमूल्य विचार रखे. चर्चा के केंद्रबिंदु में तो इनके रखे विचार होने चाहिए थे जिसमे मोदी जी ने देश के सनातन धर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि इस संस्कृति में एक ऑटो पायलट अरेंजमेंट मैकेनिज्म सरीखी व्यवस्था है जिसके तहत हमारी विरोधाभासो से भरे समाज में अच्छे लोग उभर कर भारतीय समाज को नयो दिशा दे जाते है. या ये कि भारतीय संविधान एक कानूनी दस्तावेज ही नहीं वरन एक सामजिक दास्तावेज भी है. लेकिन इन गंभीर बातो पे चर्चा के बजाये चर्चा एक निरर्थक बयान पे हो रही है. इस देश की सोच को बिकी हुई मीडिया संचालित करती है ऐसी सतही बहस को जन्म देकर.
अब आमिर खान की बात को पकड़ा जाए. फ़िल्म स्टार्स के बीच से उपजी बातो का ज्यादातर समय कुछ सार नहीं होता सिवाय इसके कि इन्हें कुछ समय तक सनसनी या सुर्खियों में रहने का कुछ समय के लिए मौक़ा मिल जाता है. आपको याद है शाहरुख़ खान का लोकसभा चुनावों के दौरान दिया गया हुआ वो वक्तव्य जब देश में एक नयी बहस रूपी हवा चली थी कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद कौन देश में रहेगा कौन नहीं जिस वक्त अभी असहिष्णुता आधारित बहस की हवा चल रही है. तब शाहरुख़ ने कहा था वे देश में नहीं रहेंगे अगर मोदीजी प्रधानमंत्री बनते है!! तो क्या उन्होंने देश छोड़ा? नहीं ना!! इसी तरह आमिर खान की पत्नी ने उनसे क्या कहा और उन्होंने क्या सोचा ये एक अत्यंत निजी मसला है जिसको तो पहले तो सामने आना नहीं चाहिए था और अगर आ ही गया तो एक इतने बड़े मुद्दे के रूप में उभरना नहीं चाहिए कि इसको लेकर मुख्यधारा की मीडिया इस पर चर्चा करे. लेकिन इस पर चर्चा यूँ हो रही है जैसे आमिर खान ने बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन कर दिया हो!! इन सतही बहसों से फायदा क्या होता है? सबसे बड़ा फायदा तो यही होता है कि गंभीर मुद्दों से ध्यान हट जाता है!! दूसरा प्रचार के भूखे या प्रचार आधारित जीवन शैली जीने वाले इन बकवास स्टार्स को अस्तित्व में आने का मौका मिल जाता है. इसका नतीजा ये होगा कि इनके आने वाली फिल्मो या शोज को अपनी जड़े ज़माने में मदद मिल जाती है.
अंत में ये बेहद गंभीर बात. इन स्टार्स का क्या इस्तेमाल कब, क्यों और कैसे ये मुख्यधारा की मीडिया करती है इस पर मनन तो होता रहेगा लेकिन समय आ गया है ये हिन्दू युवक युवतियाँ इन्हें अपना आइकॉन मानना छोड़ दे खासकर “:लव जेहाद” जैसे प्रकरण सामने आने के बाद. ये “खान” स्टार्स अपनी फूहड़ फिल्मो के साथ किसी भी सभ्य हिन्दू समाज में कोई अहमियत नहीं रखते. आपको क्या लगता है ये “खान” स्टार्स कभी देश छोड़कर जाने की सोच सकते है? कभी नहीं. क्योकि इनके जैसे वाहियात स्टार्स की दूसरे देशो के असल स्टार्स की बीच कोई ख़ास पूछ होने वाली भी नहीं!! और वैसे कहा जायेंगे? पाकिस्तान, सीरिया, इराक या सऊदी अरब? क्या इन जगहों पे ये सेफ है या नहीं ये समझना छोडिये, पहले ये समझिये कि क्या किसी भी मुल्क में अमेरिका और ब्रिटेन को शामिल करते हुए इन्हें अपने फिल्मो के चलाने वाले प्रशंसक मिलेंगे इनके फिल्मो के बकवास कंटेंट को देखते हुए? चेन्नई एक्सप्रेस, हैप्पी न्यू इयर, वांटेड या धूम ३ जैसे बकवास फिल्मे और कहा चल सकती है सिवाय भारत में!! इतना पैसा वो कहा बना सकते हैं! और ये सब हिन्दू लड़के लडकियों की मेहरबानी है कि इन जैसे बकवास स्टार्स को समर्थन देती है इनके फिल्मे देखकर. जिस दिन हिन्दू आधार इन्हें मिलना बंद हो जाएगा ये देश के बाहर रहे या भीतर ये प्राणविहीन हो जायेंगे!!
सो असल बात ये है कि खान ब्रिगेड से संचालित हर चीज़ को हिन्दू आधार मिलना बंद हो. पब्लिसिटी चाहे नकारात्मक हो या सकारात्मक आपको फायदा देती है. ये रीढ़विहीन स्टार्स अच्छी तरह जानते है. ये कही नहीं जाने वाले. ये यही रहेंगे. यहाँ ये सेफ है और आर्थिक रूप से मजबूत है. ये हिन्दू आधार लेकर पनपते है और फिर विदेशी ताकतों का शह पाकर इसी हिन्दू आधार की जड़ काटते है. गलत ये नहीं है. गलत हिन्दू लड़के और लडकिया है जो इन्हें सामजिक और आर्थिक हैसियत प्रदान करते है. हिन्दू आधार पे निर्भर रहने वाले इस तरह के स्टार्स को जिस दिन हिन्दू समाज प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देना बंद कर देगा उस दिन के बाद से इनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहेगी. अब यही करने की जरुरत आ गयी है. आमिर खान के वक्तव्य का सही जवाब यही है. सही प्रतिरोध यही है.
तुगलकी और शुतुरमुर्गी मानसिकता से बाधित मोहम्मद रफ़ी प्रेमी विविध भारती!

विविध भारती ने अपनी पहुँच की क़द्र नहीं की बल्कि उल्टा अपनी सबसे ज्यादा पहुँच के होने के दंभ ने इसके अन्दर ऐरोगेन्स का समावेश कर दिया है. ये इसी का नतीजा है कि ये जानते हुए भी कि हर कार्यक्रम में रफ़ी के गीत बजाने से इनका श्रोता वर्ग एक नीरसता का अनुभव कर रहा है ये अपनी मनमानी पे कायम है. इनका बस चले तो ये चित्रलोक कार्यक्रम में भी रफ़ी का ही गीत बजाये!
विविध भारती देश की सुरीली धड़कन है. ऐसा आप महसूस करते है. ऐसा ही इसका प्रोमो जो अक्सर बजता रहता है वो भी यही बात कहता है. लेकिन हकीकत कुछ और ही तस्वीर बयान करती है!! विविध भारती अपनी तुगलकी नीति के चलते एकरसता का शिकार हो चला है. ऊपर से कार्यक्रमों के प्रस्तुतीकरण में पक्षपातपूर्ण नीति, नवीनता का अभाव और मौलिकता से कट्टर द्वेष ने विविध भारती को प्राइवेट चैनल के सापेक्ष हाशिये पे ला खड़ा कर दिया. आज लोग विविध भारती से भावनात्मक लगाव से ज्यादा जुड़े है इसलिए नहीं कि इनके कार्यक्रमों में कोई नयी बात है. ये कहते हुए कोई संकोच नहीं रेडियो सीलोन अपनी दमदार प्रस्तुति, उद्घोषको की मौलिकता और विविधता के प्रति जबरदस्त समर्पण और नवीनता के प्रति रुझान के चलते विविध भारती से मीलो आगे है!! विविध भारती ने अपनी पहुँच की क़द्र नहीं की बल्कि उल्टा अपनी सबसे ज्यादा पहुँच के होने के दंभ ने इसके अन्दर ऐरोगेन्स का समावेश कर दिया है. ये इसी का नतीजा है कि ये जानते हुए भी कि हर कार्यक्रम में रफ़ी के गीत बजाने से इनका श्रोता वर्ग एक नीरसता का अनुभव कर रहा है ये अपनी मनमानी पे कायम है. इनका बस चले तो ये चित्रलोक कार्यक्रम में भी रफ़ी का ही गीत बजाये! यही एक कार्यक्रम है जिसमे रफ़ी के गीत नहीं बजते और क्या पता विविध भारती के अन्दर बैठे शुतुरमुर्गी मानसिकता के लोगो के ये बात बहुत ही अखर रही हो!!
बल्कि इसी बात पे विविध भारती के एक घनघोर प्रशंसक ने हताश होकर इस पर इस्लामीकरण का लेबल चस्पा कर दिया!! मोहम्मद रफ़ी के गीत को हर हाल पर श्रोताओ पर थोपने के चस्के चलते इस पर देर सबेर ये लेबल लगना तय था. पहले शायद हमें ये लगता था की शायद ये अपना भ्रम है या कोई हसीन इत्तेफाक है जो रफ़ी के गीत शायद ज्यादा ही बज रहे हो लेकिन जिस अनुपात में रफ़ी के गीत बजते है उससे ये शक गहरा गया है कि रफ़ी साहब के गीतों को हर हाल में बजाते रहने के पीछे कोई और ही समीकरण काम कर रहा है. चाहे ये किसी बंद दिमाग की हरकत हो या फिर इसके पीछे रोयल्टी वजह हो इससे घनघोर नुकसान हम जैसे विविध भारती के परम रसिको का ही हो रहा है.
हम आपको उदाहरण दे रहे है. “आज के फनकार” कार्यक्रम में अगर प्रोग्राम मीना कुमारी पे चल रहा हो तो भी गीत का जो अंश बजेगा वो फीमेल संस्करण ना होकर रफ़ी का संस्करण होगा? क्यों ? मुझे अच्छी तरह याद है “दिल जो ना कह सका” ( भींगी रात ) इसका रफ़ी वाला हिस्सा बजा पर लता का हिस्सा जैसे ही शुरू हुआ गीत कट गया !! इनका एक कार्यक्रम आता है रात को साढ़े दस बजे “आपकी फरमाईश”. कुल मिलाकर लगभग छह गीत बजते है और बिना रोक टोक सभी गीत ज्यदातर रफ़ी के ही बजते है. बहुत हुआ तो एक गीत किसी और कलाकार का बजा दिया. दोपहर में ये “मनचाहे गीत” बजाते है पर समझिये इस मनचाहा कुछ नहीं! पूरा का पूरा प्रोग्राम ही रफ़ी के महिमामंडन में लगा रहता है.
इस प्रोग्राम के ख़त्म होने के बाद ढाई बजे से “सदाबहार नगमे” बजेगा. सिर्फ और सिर्फ एक क्रम से रफ़ी के ही गीत बजते है. छाया गीत उद्घोषक का अपना प्रोग्राम होता है लेकिन वशीकरण के शिकार इनके अधिकतर उद्घोषक रफ़ी के गीत बजाते है!! हेमंत कुमार, मुकेश, किशोर कुमार, तलत महमूद, सुरैय्या, नूरजहाँ, सहगल. मन्ना डे, सुमन कल्यानपुर, महेंद्र कपूर और सुरेश वाडकर जैसे बेहतरीन गायक इनकी प्राथमिकता में है ही नहीं! एक कार्यक्रम ये बारह से एक बजे के बीच सुनवाते है “एसएमएस के बहाने VBS के तराने” उसमे भी ये रफ़ी-प्रधान फिल्मे रख देंगे तो जाहिर है गीत रफ़ी का ही ना बजेगा!! प्रसार भारती का लगता है इस संस्था पे नियंत्रण ना के बराबर रह गया है तभी इसमें मनमानी चल रही है.
इनके लोकल स्टेशन का तो हाल इसलिए भी बुरा है कि लोकल स्टेशन अभी तक ये नहीं समझ पाए है कि युग बदल गया है. लोकल स्टेशन के उद्घोषक तो सामन्ती प्रवित्ति के जीव है जो हर हाल में अपने को श्रोता से सुपीरियर समझते है. ये गीत रफ़ी के ज्यादा नहीं बजाते लेकिन इनका प्रस्तुतीकरण अभी भी बहुत उबाऊ है और कर्कश है. गीत के बीच में कब विज्ञापन बजना शुरू हो जाएगा कोई कह नहीं सकता!! इनके पास संसाधन का रोना तो है ही एक ग्लोबल मानसिकता का अभाव भी है! या यूँ कहे अपनी संस्कृति को नए अंदाज़ में पेश करने की कला नहीं है, तमीज नहीं है!
उम्मीद है विविध भारती श्रोताओ की नब्ज पहचानकर अपने तौर तरीको में सुधार लाएगा. वो ये ना भूले श्रोताओ की पसंद से ऊपर कुछ नहीं. रफ़ी के एक महान गायक थें पर उनके सापेक्ष अन्य गायक भी उतने ही सुरीले और वजनी थे. आप और गायकों की उपेक्षा क्यों कर रहे है? देश में फैले विभिन्न श्रोता फोरमो को मेरी ये सलाह है कि प्रसार भारती के अधिकारियो को “रफ़ी की बरफी” काट रहे विविध भारती के कुछ संदिध तत्त्वों के बारे में खबर करे नहीं तो जो विविध भारती की थोड़ी सी लोकप्रियता बची है वो भी इससे छिनते देर ना लगेगी.
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सोशल मीडिया पे हमने एक चर्चा का आयोजन किया. उस पर कुछ श्रोताओ ने ये बात कही:
विनय धारद:
विविध भारती कब इस्लामीकरण से दूर होकर किशोर कुमार के गीत सुनाएगा!!
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आनंद शर्मा, मुंबई:
मो. रफ़ी बेशक बहुत सुरीले और बहुमुखी गायकी प्रतिभा के धनी थे लेकिन केवल वे ही एकमात्र श्रेष्ठ गायक थे ऐसा कहना उसी मूर्ख को शोभा देता है जिसने उनके समय के किसी अन्य गायक को न सुना हो.
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वीरेन्द्र मिश्र, मुंबई:
मुंबई में रहते हुए बहुत ही निकट से फिल्मी दुनिया से परिचित रहा हूँ। कुछ समय पत्रकारिता भी की है। इतना तो आप भी स्वीकारें कि हिन्दी फिल्मोद्योग अनेकानेक वर्षों से अंडरवर्ल्ड और विशेषकर मुस्लिम परस्त रहा है। आप पायेंगे कि घटिया से भी घटिया मुस्लिम कलाकार हिन्दी फिल्मोद्योग में जोड़ तोड़ के बलबूते बडी ही जल्द प्रचार पाकर स्टारडम के शीर्ष पर पहुंच जाता है।
रफी साहब व्यक्तिगत रूप से अच्छे व्यक्ति थे लेकिन यह वह समय था जब नौशाद-दिलीप कुमार गैंग येन-केन-प्रकारेण मुस्लिम कलाकारों को स्थापित करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रहे थे। इसी कडी में रफी साहब की प्रशस्ति में आकाश पाताल एक कर दिया गया और वही किशोर दा का नाम बिगाडने का भयानक कुचक्र रचा गया जिसमे यह गैंग अति सफल रही। इन्हें कुछ ऐसे राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त था जो सेक्युलर थे, जिनका काम हिन्दू विरोध था। इन्ही काम षड्यंत्र था कि किशोर दा को ‘अंडर प्ले’ किया जाये। उस समय के जो संगीत मनीषी कहलाते थे वे भी किसी न किसी कारणवश ऐसी चाटुकारिता में लिप्त रहते थे। बहुत महान गायक होने के उपरांत भी रफी साहब के कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें सुनकर खीज और उकताहट होती है।
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सुधीर द्विवेदी, नयी दिल्ली:
जहा तक मुझे लगता है रफ़ी साहब ने बाकी गायको की तुलना में ज्यादा गीत गाये है और वो भी क्लासिक दौर में अर्थात 50 से 70 के दशक के बीच तो स्वाभाविक है की रफ़ी साहब के गीत ज्यादा सुनाई देंगे। और विविध भारती क्लासिक पीरियड को ज्यादा महत्व देता है। अब प्राइवेट फम चैनल्स को ले लीजिये पुराने गीत के नाम पे वो सिर्फ किशोर कुमार और आर डी बर्मन के कॉम्बिनेशन के गीत ही बजाते है। 1 घंटे के प्रोग्राम् में अगर 10 गाने बजते है तो उसमे 7 गाने किशोर दा के होते और बाकी 3 गानो में रफ़ी साहब मुकेश जी और कभी कभी दूसरे गायको के गाने बज जाते है। बरहाल जो भी हो मेरे हिसाब से गीत श्रोताओ की विविधतापूर्ण पसंद को ध्यान में रखते हुए ही बजाने चाहिए। जिस हिसाब से गानो की फरमाइश हो उसी अनुपात में गायको के गाने बजने चाहिए। इस बात की जांच होनी चाहिए कि रफ़ी के गीत क्यों कर ज्यादा बजते है. किसी ख़ास गायक के गीतों को थोपना ठीक बात नहीं!
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हरीश सेठ, औसा, महाराष्ट्र:
नमस्कार! मैंने भी विनंती की थी कि हर कार्यक्रम में किशोर के कुछ नग़्मों को याद कीजियेगा. मुकेश, येसुदास और मनहर जैसे कई सुरसम्राट जो विविध भारती के प्रोग्रामो में रफी जी के मुकाबले कम ही पेश होते हैं. रफी जी का स्थान दुनिया का कोई गायक नहीं ले पाएगा. वो सर्वोत्तम ही थे. मगर बहुत से श्रोता चाहते रहे है कि सुरों के संसार में हरदम सभी सितारों की गूँज सुनाई दे. गायिकाओं के बारे में भी इसी बात को लेकर विचार हो..ये प्रार्थना है हमारी.
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हेमंत कुमार और लता की आवाज़ में ये “नागिन” चलचित्र का बेहद सुंदर गीत सुने. संगीत हेमंत कुमार का है .गीत को लिखा राजिंदर कृष्ण ने है.
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