फगुआ की बयार मे भीगा भीगा सा मन, जरा जरा सा बहकता हुआ, जरा जरा सा सरकता हुआ
बसंत ऋतू का आगमन हो चुका है। बहकना स्वाभाविक है। गाँव में तो फगुआ की बयार बहती है। ग्लोबल संस्कृति से सजी संवरी शहरी सभ्यता में क्या होलियाना रंग, क्या दीपावली के दियो की ल़ौ की चमक। दोनों पे कृत्रिमता की चादर चढ़ चुकी है। या तो समय का रोना है या फिर महँगाई का हवाला या फिर जैसे तैसे निपटा कर फिर से घरेलु कार्यो/आफिस के कामकाज में जुट जाने की धुन। त्यौहार कब आते है कब चले जाते है पता भी नहीं चलता। ये बड़ी बिडम्बना है कि त्यौहार सब के लिए दौड़ती भागती जिंदगी में टीवी सीरियल में आने वाले दो मिनट के ब्रेक जैसे हो गए है। सब के लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए है। अलग अलग उम्र के वर्गों के लिए त्यौहार का मतलब जुदा जुदा सा है। और मतलब अलग भले ही होता हो लेकिन उद्देश्य त्यौहार के रंग में रंगने का नहीं वरन जीवन से कुछ पल फुरसत के चुरा लेने का होता है।
इन सब से परे मुझे याद आते है कई मधुर होली के रंग। वो लखनऊ की पहली होली जिसमे कमीने तिवारी ने मेरी मासुमियत का नाजायज़ फायदा उठाते हुए और लखनऊ की तहजीब की चिंदी चिंदी करते हुए मुझे रंग भरे टैंक में धक्का देकर गिरा दिया था। बहुत देर के बाद एक गीत उस तिवारी के लायक बजा है हर दोस्त कमीना होता है। तिवारी का नाम इस लिस्ट में पहले है। ये इतना मनहूस रहा है शनिचर की तरह कि हर अनुभव इसके साथ बुरा ही रहा है। बताइए बैंक के कैम्पस के अन्दर छुट्टी वाले दिन बैंक की चारदीवारी फांद कर हर्बेरिअम फाइल के लिए फूल तोड़ने का आईडिया ऐसे शैतानी दिमाग के आलावा कहा उपज सकती थी। गार्ड धर लेता तो निश्चित ही बैंक लूटने का आरोप लग जाता। वो तो कहिये हम लोग फूल-पत्तियों सहित इतनी तेज़ी से उड़न छू हुएं कि इतनी तेज़ी से प्रेतात्माएं भी न प्रकट होके गायब होती होंगी। गाँव की होली याद आती है जिसमे गुलाल तो कम उड़ रहे थें गीली माटी ज्यादा उड़ रही थी। पानी के गुब्बारों से निशाना साधना याद आता है। सुबह से सिर्फ पानी की बाल्टी और गुब्बारा लेकर तैयार रहते थें। याद आते है वार्निश पुते चेहरे, बिना भांग के गोले के ही बहकते मित्र, गुजिया पे पैनी नज़र। ये सब बहुत याद आता है। अपने मन को धन्यवाद देता हूँ कि मष्तिष्क का अन्दर इन यादो के रंग अभी भी ताज़े है।
स्मृतियाँ तकलीफ भी देती है और आनंद भी। इन्ही स्मृतियों में भींगकर पाठको को होली से जुड़े कुछ विशुद्ध शास्त्रीय संगीत पे आधारित ठुमरी/गीत जिनमे अपने प्यारे राधा और कन्हैय्या के होली का वर्णन है को सुनवा रहा हूँ। ये अलग बात है कि मेरे मित्रो के श्रेणी में इन गीतों को सुनने के संस्कार अभी ना जगे हो लेकिन इन्हें स्थापित उस्तादों ने इतना डूब कर गाया है कि अन्दर रस की धार फूट पड़ती है। कुछ एक गीत चलचित्र से भी है, अन्य भाषा के भी है भोजपुरी सहित। इन्हें जैसे तैसे आप सुन लें अगर एक बार भी तो मुझे यकीन है कि संवेदनशील ह्रदय इनसे आसानी से तादात्म्य कर लेंगे हमेशा के लिए। और इसके बाद भी यदि शुष्क ह्रदय रस में ना भीग सके तो उनके लिए जगजीत सिंह का भंगड़ा आधारित गीत भी है। सुने जरूर। ह्रदय हर्ष के हिलोरों से हिल जाएगा।
***************************
1. रंग डारूंगी, डारूंगी, रंग डारूंगी नन्द के लालन पे (पंडित छन्नूलाल मिश्र)
पंडितजी को सुनने का मतलब है आत्मा में आनंद के सागर को न्योता देने का सरीखा सा है। बनारस की शान पंडितजी से आप चाहे ठुमरी गवा लीजिये, कजरी गवा लीजिये, या ख्याल वो सीधे आपके रूह पे काबिज हो जाता है। ये किसी परिचय के मोहताज़ नहीं और ईश्वर की कृपा रही है कि प्रयाग की भूमि पर इनको साक्षात सुनने का मौका मिला है। ख़ास बात ये रहती है कि ये गीत के बीच में आपको मधुरतम तरीकें से आपको कुछ न कुछ बताते चलते है। और इस तरीके से बताते है कि आप सुनने को विवश हो जाते है। खैर इस बनारसी अंग में राधा जी ने अच्छी खबर ली है कृष्ण की। मुझे नारी बनाया सो लो अब आप नाचो मेरे संग स्त्री बन के। सुने कृष्ण का स्त्री रूप में अद्भुत रूपांतरण राधाजी के द्वारा होली के अवसर पर।
संध्या मुखर्जी को मैंने पहले नहीं सुना। इस लेख को लिखने के दौरान इनको सुनने का सौभाग्य मिला। बंगाली संगीत में निपुण इस गायिका की आवाज़ मन में घर कर गयी। उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान की शिष्या बंगाली फिल्मो सहित हिंदी फिल्मो के लिए भी गीत गाये। इस शास्त्रीय गीत को सुनने के बाद आपको राधाजी का किसी बात पे रूठना याद आता है। कोई शिकायत जो अभिव्यक्त होने से रह गयी उसी की खीज इस गीत में प्रकट हो रही है। दर्द है तो प्रकट होगा ही। इसमें कौन से बड़ी बात है लेकिन ये क्या कि आप फगुआ की बयार में बहने से इन्कार कर दे? शिकायत दूर कर के होली जरूर खेले मै तो बस यही कहूँगा।
होली पे मुझे तो वैसे अक्सर ये गीत “होली आई रे कन्हाई” (मदर इंडिया) याद आ जाता है लेकिन ये गीत कम बजता है। बहुत मधुर गीत है। व्ही शांताराम के फिल्मो के ये विशेषता रही है कि भारतीयता के सुंदर पक्षों को उन्होंने बड़े कलात्मक तरीके से उकेरा है हम सभी के चित्तो पर। नवरंग के सभी गीत बेहद सुंदर है जैसे “श्यामल श्यामल वरन” और “आधा है चन्द्रमा रात आधी” लेकिन कृष्ण और राधा के होली प्रसंग पर आधारित गीत कालजयी बन गया। कौन कहता है कि भारतीय स्त्री बोल्ड नहीं रही? देखिये क्या कह रही है राधा इसमें जिसको जीवंत कर दिया संध्या के सधे हुए नृत्य की भाव भंगिमाओ ने। महेंद्र कपूर और आशा भोंसले ने गीत में स्वर दिया है। संगीत सी रामचंद्र का है और गीत हिंदी गीतों को शुद्ध हिंदी के शब्द देने वाले भरत व्यास का लिखा है।
नदिया के पार ने ऐतहासिक सफलता प्राप्त की थी भोजपुरी में होने के बावजूद। रविन्द्र जैन का गीत और संगीत मील का पत्थर बन गया। और यही से भोजपुरी संगीत ने एक नयी उंचाई प्राप्त की लेकिन ये अलग बात है उस मूल तत्त्व से भटक गया जिसके दर्शन इस फिल्मो के गीतों में हुए है। भारतीय फिल्मो में गाँव कभी भी असल तरीके से प्रकट नहीं हुआ। ये कुछ उन विलक्षण फिल्मो में से एक है जिसमे गाँव ने अपनी आत्मा को प्रकट किया है अपने कई मूल तत्वों के साथ।
इस गीत को सिर्फ इसलिए सुनवा रहा हूँ कि इस गीत में मेरे गाँव का स्वरूप बिलकुल यथावत तरीकें से प्रस्तुतीकरण हुआ है। इस में दीखते रास्ते, पगडण्डीयाँ, खेत, नदी बिलकुल अपने गाँव सरीखा है। गीत के बीच में आपको पालकी पे विदा होती दुल्हन भी दिख जायेगी। क्योकि पालकी पे सवार होकर कभी दुल्हन को विदा होते हुए होते देखा था सो इस युग में जहाँ पे सजी धजी कार में दुल्हन को भेज़ने की नौटंकी होती है वहां ये दृश्य आपको बिलकुल भावविभोर कर देता है। खैर गीत सुने जो बहुत मधुर है ऐसा शायद बताने की जरुरत ना पड़े। ये बताने की जरुरत अवश्य पड़ सकती है कि गीत को गाया है हेमलता और जसपाल सिंह नें।
मनोज तिवारी की आवाज में ये भोजपुरी गीत मन को भाता है। ये अलग बात है कि गीत को भोजपुरी गीतों में व्याप्त लटको झटको जैसा ही फिल्माया गया है। वही रंग बिरंगी परिधानों में कूदती फांदती स्त्रिया जो गीत के साथ न्याय नहीं करती प्रतीत होती। फिर भी हरे भरे खेत मन में उमंग को जगह तो दे हे देते है। भाग्यश्री “मैंने प्यार किया” के बाद लगभग गायब ही हो गयी। मैंने प्यार किया जैसी वाहियात फ़िल्म मैंने देखी नहीं सो बता नहीं सकता कि ये टैलेंटेड है कि नहीं लेकिन जहा तक इस गीत की बात है गीत में इनकी उपस्थिति से चार चाँद तो लग ही रहे है लुक्स की वजह सें। खैर इतने दिनों बाद देखना इस एक्ट्रेस को और वो भी एक भोजपुरी गीत में एक सुखद आश्चर्य है।
लारा लप्पा “एक थी लड़की” से बहुत ही सुंदर गीत है। इसी के खोज में ये जगजीत सिंह का ये पंजाबी गीत हाथ लग गया। इसको जगजीत सिंह ने जिस चिरपरिचित दिलकश अंदाज़ में गाया है उतने ही कमाल के तरीकें से इनके साजिंदों ने बजाया है। निश्चित ही सुनने योग्य गीत अगर आप चाहते है कि आप का दिल बल्ले बल्ले करने पे मजबूर हो उठें। वैसे इस गीत के शुरू में मजनू ने अपनी लैला को काली कहने वालो की दृष्टि को गरियाया है सभ्य तर्कों के साथ वो भी सुन लें। हम तो भाई मजनू से बस इतना ही कहेंगे कि जो बकते है उनको बकने दो काहे कि “यथा दृष्टि तथा सृष्टि” ( जैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसी ही यह सृष्टि हमें दिखती है)
MEN IN BRAS AND SKIRTS (HUMOUR)
During one of the conversations with close friend Carmen, who happens to be a gifted conversationalist, the idea of men wearing skirt came to haunt my imagination. She picked up the idea from some fashion show. Her casual reference to men in skirt made me remind of the famous phrase that there is “method in madness”. If anyone wishes to realize how madness has become a passion in our times, the present age is fittest time to witness the mad show. Just organize a fashion show and introduce horrible sense of dressing as a new passion among youths. No wonder men wearing skirts does not sound amusing. Anything is possible in our times. Overnight we can find “he” emerging as “she” the next day! Now I am wondering what else could follow if men start wearing skirts?
The purpose of fashion shows also defies my sensibilities. Often the trends shown in it are not meant for masses. The dresses exhibited in it are beyond the range of common people. Still we find an unending craze for such fashion shows. Remember the movie “Fashion”? That movie disclosed the harsh realities prevalent in world of fashion. Anyway, I am talking about the craziness existing in our real world, wherein the distinction between men and women is getting reduced with each passing moment, and even in the virtual world with help of Photoshop. The write-up is merely a humorous take on the whole issue.
Notice the fact that wearing “ear rings” by the boys is new craze. My friend endorsed usage of ear rings by boys since that make guys attain a look that attracts females. I feel that in every man there is female essence and in every woman there is some male element. Only today I saw a girl riding a motor bike meant for men. Few days back, I had seen an young girl having two girls pillioned behind her on a slender scooty! That makes it very clear that there is urge in both the sexes to give way to each other’s essence. Has anyone heard “Aake Seedhi Lagi Dil Pe” song from movie Half Ticket? Kishore Kumar has given voice to male and female characters on whom this song has been picturized!! Pran and Kishore Kumar have performed in mind-boggling way in this song. And that’s why this song always makes me smile! In many Indian movies dance sequences have male actors disguised as females. The same has been the case with female actresses as well.
Right now, I am wondering what would follow the skirt? I am sure male bras are next hot item. Please read this excerpt borrowed from news item:
“Japanese men are getting in touch with their feminine side thanks to a new trend in male lingerie.They are hitching up their man boobs (moobs), finding out their cup sizes, and getting into male bras. Akiko is the woman behind this underwear revolution. She started selling the bras online from her Tokyo shop – The Wishroom. She said: ‘I think more and more men are becoming interested in bras.’ “
Now if that’s the case I feel new perceptions would emerge. Now men, like women, would often be found complaining: I found her staring at my assets !!! New harassment laws would also be introduced for men that would take cognizance of men’s complaints, accusing the passers by of indecent gesture !!! I feel that such tactics are very cleverly promoted by market. That makes them sell their products. That’s the reason why “Mardo wali cream” (fairness cream for men) has come in existence and actors like Shah Rukh Khan, having dark complexioned wives, are promoting it. They are making us develop guilt complexes to promote the sale of fairness cream for men!!! Anyway, for me black is beautiful.
I request the likes of Carmen not to create chaos in society by feeling excited about idea of seeing men in skirts. I love women with long hairs. I am sure not many would love to see a woman proclaiming bald is beautiful! Please be traditional, at least, in some matters. Women in long hairs are epitome of sensuality. Unfortunately, it’s age of short cuts. No wonder women love anything from short hairs to short skirts.
Pics Credit:
वैलेंटाइन डे: लो आया मौसम प्यार के बिक्री का!
कल तथाकथित प्यार करने वालो का परम पुनीत दिवस है। कुछ कहने की जरूरत नहीं है कि फर्जी इमोशंस के साथ बहुत सारे गुलाबो का आदान प्रदान होगा। गुलाब का तो पता नहीं पर वो अगर समझदार लड़की होगी तो उसका काम तो लह गया क्योकि गुलाब तो मुरझा जायेंगे, चाकलेट उदर में समा जायेंगे लेकिन गिफ्ट हो सकता है अगले साल भी किसी और को देने में काम आ सकते है। क्योकि एक साल में बहुत से इस साल वैलेंटाइन डे मनाने वालो लड़कियों के बॉयफ्रेंड इनके द्वारा ऐक्स्ड (axed ) कर देने के कारण एक्स-बॉयफ्रेंड हो जाते है। एक्स- गर्लफ्रेंड भी अस्तित्व में आ जाती है। खैर ये सब पुराने प्रेमी नहीं कि जाके किसी सॉलिड रॉक के ऊपर कोई दुखांत सा गीत गाये। इतने संवेदनशील नहीं कि शोक मनाये। कुछ एक जो थोड़े दुखी होंगे वो जरूर सॉलिड रॉक कुक्कुर धुन में रचे गीत जैसे” जो भी मै कहना चाहू बर्बाद करे अल्फाज़ मेरे“ को गाने या सुनने के बाद “तू नहीं सही कोई और सही” को चरितार्थ करते हुएँ किसी नए के दामन से लिपट जायेंगें। अब कितने सारे आप्शन माने विकल्प “जोड़ी ब्रेकर” के रूप में भटक रह होते है। वो तो पुराने प्रेमी थे जो बेचारे कितने साल महीने आंसू टपकाते थें “प्यार की आग में तन बदन जल गया” गाते थें। अब तो आप इतने व्यापक विकल्पों वाले है कि मौका मिले तो “मेरे ब्रदर की दुल्हन” भी आपकी हो सकती है।
बाज़ार में देख रहा हूँ कि भोजपुरी गीतों के रोमांटिक एल्बम भी बहुत सारे आ गए है जिसके ऊपर “लभ” वाले चिन्ह बने हुएं है। मतलब प्यार का व्यापार ग्रामीण संस्कृति में गहनता से व्याप्त हो गया है। अहसास तो यही होता है। वर्ना ये अजंता-एलोरा की आधुनिक संस्करण तो भोजपुरी वाले “लभ” में इंटरेस्ट दिखाने से रही। जितनी तेज़ी से भारत ग्लोबल हुआ उतनी तेज़ी से लव का ग्राफ भी बढ़ा ये तय है। दोनों में समानुपाती रिश्ता सा लगता है। खैर एक चीज़ ये है कि इंडिया ने अब इतनी फ्रीडम जरूर दी है कि अगर इतने सारे आप्शनस लॉन्ग टर्म, शार्ट टर्म, लिव-इन के बावजूद भी आप अगर अकेले रह गए तो आप अपने सेक्स के साथ भी लव कर सकते है। इससे आप का कॉन्फिडेंस लेवल तो बढेगा ही और साथ में आप सब पे धौंस जमा सकते है प्रोग्रेसिव बन कर। कम से कम लोगो को अपने अनुभव से उत्पन्न प्रोग्रेसिव लेक्चर तो झाड़ ही सकते है। थोडा अच्छा लिख लेते हो तो क्या पता आप एक दो नोवेल भी लिख दे और पुरस्कार वगैरह मिल गया, जो ऐसे थीम पे अन्तराष्ट्रीय या राष्ट्रीय जगत में कुछ न कुछ मिलना तय ही है, तो युवा वर्ग की नब्ज़ पकड़ने वाले तमगो सहित आप की लेखक के रूप में उभार तय है।
वैलेंटाइन डे के ठीक एक दिन के बाद भट्ट कैम्प की मर्डर थ्री रिलीज़ हो रही है। ये सीरिज मैंने नहीं देखी है और ना मै चाहता हूँ कि इस सीरिज की कोई फ़िल्म देखने का सौभाग्य कभी भविष्य में बने लेकिन इस नयी फ़िल्म के पोस्टर में लिखी पंच लाइन आज के लव की हकीकत बयान कर देती है। लिखा है कि आप अपने प्रेमी को कितना जानते है? मतलब साफ़ है कि अगर आप सचेत नहीं है तो लव के बाद धोखा अवश्य है। वैसे अच्छा है वैलेंटाइन डे के ठीक एक दिन के बाद ही बहुत सारे नए नए प्रेमी भूतपूर्व प्रेमी हो जायेंगे। एक्सपीरियंस बढेगा युवाओं का। कैसी संस्कृति है कि वफ़ा की सोच भी रखना जुर्म से कम नहीं। सब में मिलावट, सब में खोट है चाइनीज़ माल की तरह। कब फुस्स हो जाए पता नहीं। एक युग था कि सरल और सीधा होना सम्मानजनक था। आज आप के नाकाबिलियत का परिचायक है। आप के विरुद्ध निकम्मेपन का तमगा है। शातिर दिमाग होना ही बुद्धिमानी बन गया है। खैर ये लव करने वाले प्रेमी उगते रहे, पनपते रहे। लेकिन चूँकि गाँव में “लभ” पाँव पसार चूका है इसलिए सरकार को जैसे शहर में लव के डाक्टर माने साइकोलोजिस्टस है जो प्यार के साइड इफेक्ट्स डिप्रेशन या टीनेज प्रेगनेंसी के केसेस को देखते है ऐसे कुछ डाक्टरों को ग्रामीण क्षेत्रो में नियुक्त किये जाए। ताकि कम से कम प्रेम के बाद जो शॉक्स झेंले पड़े उनका निदान वैज्ञानिक तरीके से हो। खैर मेरी तरफ से सब प्रेमी जनों को शुभकामनायें।
मेरे अन्दर तो साहिर की यही पंक्तियाँ उभर रही है:
हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,
एक तू ही नहीं है
नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं
ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं
कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है
हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है
हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है
तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है
हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है
यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है
यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है
Reference:
Pics Credit:
Internet
अटेन्शनवा: भाई किसी को खालिस सोने के बिस्किट चाहिए तो तिवारी सर से मिले अर्जेन्टी (व्यंग्य लेख )
मेरे कुछ मित्र भी गजब ही है। बैठे बिठाये लिखने का मसाला दे जाते है। ये तिवारी जी, लखनऊ वाले, मेरा सौभाग्य कहिये या मेरा दुर्भाग्य कि मेरे बचपन के परम मित्रो से है। तब से लेकर आज तक मुझसे गठबंधन किया बैठे है। अब बचपन में तो अच्छे बुरे की पहचान तो होती नहीं वर्ना इस तरह के खतरनाक मित्रो को मै जरा भी लिफ्ट नहीं देता हूँ। खैर ये ‘सड़ी मूँगफली स्कूल’ के काबिल हस्ताक्षर थें। इस स्कूल का असली नाम पाठको को नहीं बताऊंगा क्योकि जिनको समझना है उनके लिए इतना इशारा काफी है। कभी किताब लिखने का मौका मिला तो इस स्कूल के सभी नमूनों के बारे में विस्तार से लिखूंगा लेकिन ये इसी स्कूल की देन है कि खुली आँखों से सोना मुझे आ गया। सुबह सुबह इतने उबाऊ पीरियड में कौन इतना उच्च चेतना संपन्न था कि वो पूरे होशो हवास में रह पाता। कम से कम मै तो नहीं था। और निगम, जो पूरी सर्दी में शायद तीन चार बार नहाने को महान कार्य समझते थें, तो बिलकुल नहीं था क्योकि उसको तो हमी सब उठाकर स्कूल लाते थें आँखों में नींद लिए। यहाँ भी कोई गांधी थें जिनके महाऊबाऊ विश्वशान्ति वाले भाषण सुबह सुबह असेंबली लाइन में सबसे आगे खड़ा होकर सुनने के कारण कुछ कुछ “अटेंशन डिफिसिट” सा हो जाता था, कही शान्ति आये ना आये पर मेरा मन जरूर अशांत हो जाता था। लगता था कि काश इस युग में भी धरती फट जाए सोचते ही मान तो कुछ देर के लिए वहा रेस्ट कर लूं। पर किसी शापित देव सा ना सुनने लायक भी सुनने को मजबूर था।
तो इसी तिवारी साहब ने, मेरे तमाम अशुभ ग्रहों के एक जगह आ जाने के कारण प्रतीत तो यही होता है, मुझे फोनवा करके, आवाज बदल के खालिस भयंकर डान की माफिक एक ढोंगी पाखंडी की तरह राम राम कहने के बाद मुझे सूचित किया कि “आपके सोने के बिस्कुट आ गए है। बताये कहा डिलिवेरी करनी है। जाहिर सी बात है इस दुष्ट आत्मा से, भाई मै कहा जानता था कि तब तिवारी आवाज बदल कर बोल रहे है गोपनीय नंबर से, पूछना पड़ा कि आप बोल कौन रहे है। उधर से जवाब आया कि अरे लीजिये “आप अपने एजेंटो को नहीं पहचानते”। मुझे फिर कहना पड़ा कि आप बताते है कि कौन बोल रहे है कि मै बंद कर दू नंबर। तब उन्होंने राज खोला अरे मै तिवारी बोल रहा हूं पहचाना नहीं। एक नया नंबर मिल गया था जिसमे फ्री टॉक टाइम था तो सोचा इसका इस्तेमाल कर लूं। अब गरिया तो सकता नहीं था क्योकि वो मेरी आदत नहीं और दूसरा वो इस बोली भाषा में हिट था। वैसे ये कई धंधे आजमा चुके है सो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ लगता है इनके फील्ड में रिसेशन आ जाने क्या पता ससुरा गोल्ड बिस्कुट का डीलर बन गया हो ।
वो बहुत खुश था शोले के गब्बर की तरह मुझको डरा समझ के। लेकिन मै जिस वजह से परेशान था उसकी वजह वो नहीं थी जो तिवारी साहब समझ रहे थें। लेखनी की वजह से मै अपने नंबर सहित काफ़ी सर्कल्स में पहचाना हुआ हूँ जिसमे खाड़ी देशो के मित्र, अपना प्रिय पडोसी पाकिस्तान भी है, के लोग शामिल है, और इसके अलावा इंटेलिजेंस सर्विसेज के लोग भी है। इन साहब की नादान हरकत, जो क़ानूनी परिभाषा के तहत जुर्म की श्रेणी में आता है पर इनकी बोल्ड आत्मा इस नाजुक आत्मा की इस बात को मानने से इंकार करती थी, किसी विपत्ति को जन्म दे सकती थी। खैर इनको मुझे समझाना पड़ा कि टेक्नोलाजी के इस युग में जब भाई लोग मर्द हो के भी औरत की आवाज़ में बतिया सकते है, फर्जी स्टिंग आपरेशन होते है, मुझे इस बात की परवाह तो करनी पड़ेगी न कि उधर तिवारी ही बोल रहे थें बिना अपने किसी चमचों के। चमचा का मतलब यहाँ पे फटीचर मीडिया के लोग जो आवाज़ रिकार्ड करके खबरे बनाते है या चमचा माने वो जो फिल्मे परदे में एक मेन विलेन के पीछे पीछे चलते है। खैर मेरी बात की गंभीरता का वो आशय समझ गए पर ये बताने से नहीं चूके कि हाई प्रोफाइल नम्बरों से भी वो ऐसा ही कर सकते है और कोई उनका कुछ नहीं कर सकता या ऐसा करने से कुछ होता नहीं है।
हां आप सही कह रहे है कि कुछ नहीं होता मगर इन्ही अफवाहों के चलते सिक्योरिटी एजेंसीज की नींद हराम हो जाती है और असली वारदात के समय ये बेचारे कुछ नहीं कर पाते, महत्त्वपूर्ण ट्रेने ऐसी ही बातो के चलते समय से चल नहीं पाती, दंगो के वक्त इस तरह की बाते शोलो को और भड़काती है। अरे साहब कुछ नहीं होता है तो पीएमओ आफिस में डीलिंग कर लेते तो क्या पता तुम्हारे सोने के बिस्कुट इस देश की दरिद्रता कुछ कम कर देते! तिवारी जी हम जैसे मुद्रा विहीन के यहाँ तो तुम्हारी डीलिंग फ्लाप हो गयी लेकिन पीएमओ आफिस से भयंकर लोग तुम्हे उठाकर तो जरूर ही ले जाते, तुम्हारे सोने के बिस्कुट बिकते या न बिकते। नालायक कही का ये तिवारी कभी सुधर नहीं सकता। एक बचपन के मित्र की कायदे से मदद करने के बजाय लगा उसे सोने के बिस्किट खिलाने। पता नहीं तुम सोने के बिस्कुट बेचने की हिम्मत रखते हो कि नहीं लेकिन इतनी औकात तो रखते ही हो कि कम से एक मिनी ट्रक बिस्किट ही बच्चों के लिए मेरे घर भेजवा देते। कुछ मै खाता कुछ मोहल्ले के बच्चो को बटवा देता। उनकी दुआओं से तुम्हारी ज़िन्दगी संवर जाती। लेकिन आज जब एक ब्राह्मण ही दूसरे ब्राह्मण की धोती खीचने में लगा हुआ है तो तुम कैसे अपवाद बन जाते। लगे मुझ जैसे फक्कड़ आत्मा को ही सोने के बिस्कुट बेचने जो सदा से ही यही गीत गाता रहा हो कि “कोई सोने के दिलवाला, कोई चाँदी के दिलवाला, शीशे का है मतवाले तेरा दिल, महफ़िल तेरी ये नहीं, दीवाने कही चल”
तिवारी के बारे में मेरे गाँव की पगली लड़की, और इन तिवारी साहब को इस लड़की की बात बुरी नहीं लगनी चाहिए क्योकि वो भी तिवारी ही है, बिलकुल सही कहती थी कि जब “सौ पागल मरते है तो एक तिवारी का जन्म होता है”। पता नहीं कितनी सच थी उसकी बात लेकिन तिवारी लोगो में पायी जाने वाली अराजकता को देखता हूँ तो मन इस बात पे आकर टिक जाता है। खैर इन तिवारी साहब का निगम की ही तरह कितना बढ़िया जजमेंट सेंस है ये बताना जरूरी हो जाता है। ये बताना भी जरूरी हो जाता है कि इनको कक्षा चार से ये विलक्षण शक्ति प्राप्त थी कि कौन से लड़की किस लड़के से ज्यादा बतियाती थी। और ये न्यूज़ नमक मिर्च लगा के सब तक सर्कुलेट कर देते थें। मेरे क्लास की लड़की अगर मेरे मोहल्ले में रहती थी तो इनके पेट में दर्द जरूर होता था। और निगम का भी होगा ये तो तय था। इन दोनों की जजमेंट शक्ति कितनी उच्च थी। अभी पता चल जाएगा। खैर मै जब अपने गाँव में जाता था तो तिवारी सिर्फ यही सूंघ पाते थें कि जैसे मै इसी खतरनाक पगली लड़की से,जो तिवारी वर्ग में पाए जाने वाली सब महान शक्तियों से लैस थी, से बतियाने जाता था। ये तो कभी सूंघ नहीं सकते थे कि बरसात के कीचड भरे रास्ते, भयंकर ठण्ड से भरे दिन और राते, भीषण गर्मी में बिना किसी पंखे वाले कमरे में, किसी तरह जो भी मिला वो खाकर अपने खेतो में क्या हो रहा है देखता था। हा ये उन्होंने अनुमान लगा लिया कि गंगा नदी के तट पर स्विट्ज़रलैंड की हसीन वादियों में जैसे लोग टहलते है, वैसे ही मै लेकर उसको विचरण करता हूँगा। अब लखनऊ की चमकती रोमान्टिक गलियों में पले बढे, नाम मात्र रूप से गाँव के सामाजिक परिवेश को जानते हुए- कभी असल ब्राह्मण बहुल्य गाँव में तो कभी रहे ना होंगे-को इससे बेहतर क्या समझ में आ सकता था। मुझे इनकी समझ से कुछ लेना देना नहीं पर तिवारी साहब ये आप जान ले कि गाँव में चाहे वो गँगा के तट हो या खेत सुबह शाम नित्य कर्म करने वाले लोगो से पटे रहते है तो कोई कैसे किसी को इस तरह रोमान्टिक तरीके से घुमा सकता है? मै तो गाड़ी भी ड्राइव नहीं कर पता कि चल कही दूर निकल जाए ऐसा कुछ भी हो सकता। लेकिन इनको क्या और निगम को क्या। सोचने लगे तो यही सब सोच डाला। और सुनिए आप मेरे गाँव में आइये तो ये ट्राई भी मत करियेगा, हा किसी और के बारे में आप कुछ भी सोच ले ये अलग बात है, वर्ना गाँव के लोग कूट काट डालेंगे। गाँव वाले न शहर वालो को ठीक नज़र से देखते है और शहर वाले तो शहरीपने के चलते गाँव वालो को शुरू से ही गंवार समझते रहे है।
और निगम साहब को उस उम्र में जिसमे प्यार की भावना एक नैसर्गिक प्रक्रिया होती है ये साहब तब भी भयंकर फिल्मी अंदाज़ में मुझे समझाते थे “प्यार वो करते है जिनकी जागीर होती है”। वैसे उसकी बात में कडुवी सच्चाई थी ये मै मानता हूँ पर सच नहीं थी सोचने पर। बिल्कुल सच नहीं थी। क्योकि निगम जी जागीर वाले सब कुछ कर सकते है प्रेम नहीं कर सकते। ये ज्यादा से ज्यादा इस लड़की के साथ टहलेंगे, फिर कल किसी दूसरे के साथ टहलेंगे और अंत में आपको पता चलेगा इन्होने माता पिता का सम्मान करते हुएं रीति रिवाजों के साथ किसी जागीरवाली लड़की के साथ शादी कर ली। अपवाद हो कोई वो अलग बात है पर ज्यादातर तक जागीर वालो का इतिहास ऐसा ही रहता है प्रेम के नाम पर। वैसे निगम तिवारी से बतिया लेना क्योकि मुझसे कह रह था कि “अलीगंज सेक्टर डी” से कपूरथला काम्प्लेक्स की दूरी कोई लन्दन से पेरिस तक जितनी नहीं थी कि जो आके अपने बचपन के मित्र का हाल चाल भी न ले सके। ये कायस्थ वर्ग के चरित्र की निशानी है कि अपने सीमित स्वार्थ से ज्यादा दूर तक नहीं सोच पाते। ये अलग बात है बाभनो से पटती भी बहुत है जो इस सोच के ठीक विपरीत होते है।
वैसे बात सोने के बिस्किट से शुरू हुई थी तो समापन भी ऐसे ही होगा। भाई तिवारी अमीनाबाद चले जाना वहा अपने सड़ी मूंगफली स्कूल के ही एक परम मित्र रहते है अपने ही बचपन के जिनसे जब मै बातचीत करने का इच्छुक होता हूँ तो इस भय से नहीं करता हूँ कि कोई फायदा नहीं क्योकि आपने फ़ोन किया नहीं कि उधर से आवाज़ आएगी कि अरे वो तो मजलिस में गए है। बहुत अच्छा उसका बिज़नस सेन्स है। वो जरूर बिकवा देगा तुम्हारे बिस्कुट। नहीं तो इसी स्कूल के एक सज्जन खुर्रम नगर में रहते है जो फेसबुक मित्रो मे एक बेहतर क्लासिक पोज़ में मौजूद है चश्मे सहित। वहा चले जाना तुम्हारा काम हो जाएगा। ये लोग बहुत काबिल है। मेरे जैसे साधन विहीन लेखक वर्ग के जरिये तुम अपने सोने के बिस्किट कभी नहीं बेच पाओंगे। अब ये भी धंधा चालु कर दिया है तो कम से कम धंधे में तो थोडा से बेहतर जजमेंट सेंस रखो कि कहा तुम्हारा माल बेहतर बिक सकता है। ऐसे तो तुम दिवालिया हो जाओगे। आया समझ में। और मुझसे मिलने आना तो कम से कम पारले जी वाला बिस्कुट लेते आना। बचपन से इसी बिस्कुट की लत जो लगी है। सोने के बिस्कुट हज़म करने की लत मुझे कभी नहीं पड़ी और न पड़ेगी। और निगम तुम्हारे लिए तो यही लाइन उपयुक्त रहेगी: सोना नहीं, चांदी नहीं, अरे यार तो मिला जरा प्यार कर ले।
Pics Credit:
पूर्णता की शिकार ये कुछ मैच्योर आत्माये (व्यंग्य लेख)
[सर्वप्रथम 03 जुलाई, 2004 वाराणसी/इलाहाबाद से प्रकाशित सम्मानित दैनिक “आज” में प्रकाशित। ये लेख ऑटोमैटिक रूप से प्रयाग की धरती पर भटकती पूर्णता को प्राप्त रूहों से मिलन के बाद लिखा गया था एक दम फटाफट।]
आज का मनुष्य विरोधाभासों का पुतला बन के रह गया है। जिधर भी देखिये आज ऐसे ही मनुष्यों का समूह पायेंगे। तमाम तरह की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को इस तरह अपने में समेटे रहते है कि ऐसा लगता है कि व्यंग्य की कृतियों ने मनुष्य का चोला धारण करना आरम्भ कर दिया है। कुछ उदहारण देने से बात समझ में आ जायेगी। आज के अधिकांश राजनैतिक दल जो क्रन्तिकारी परिवर्तनों की बात करते है अगर हम उनको ध्यान से देखे तो पायेंगे कि गली में घूमने वाले टामियों, मोतियों और शेरूओ और इन दलों के बीच का फर्क बिलकुल समाप्त हो गया है। अब इन कुत्तो को देखिये। दूसरी गली में कोई कुत्ता किसी कारण से भौंक रहा हों तो मेरे दरवाजे के पास बैठे काले कुत्ते को भौकना ना जाने किस वजह से अनिवार्य हो जाता है।
फिर तुरंत ही सारे कुत्ते इकट्ठे होकर सामूहिक रूप से अपनी उर्जा समाप्त करके अपनी अपनी जगह लौट जाते है फिर ऐसी किसी प्रक्रिया को क्षणिक विश्राम के बाद दुहराने के लिए। कोई कुत्ता यदि भिन्नता लिए हो या फिर कोई कुत्ता अजनबी गली से आउटसोर्सिंग की वजह से गुजर रहा हो तो वह अन्य कुत्तो की आलोचना का अर्थात “भौकन क्रिया” का शिकार हो जाएगा। वह आगे आगे और अन्य गलियों के काले, भूरे, सफ़ेद, चितकबरे आदि रंग के तमाम कुत्ते उत्तेजक रूप से भौकते उसे गति पकड़ने पर मजबूर कर देंगे। कुछ इसी बीच नई माडल की गाडियों पर टांग उठाते चलेंगे।
आप संसद या विधानसभा की कार्यवाही पर गौर करे तो लगेगा कि आप ये सब पहले कही देख चुके है! बात निवेश की हो या आर्थिक सुधारो की कुछ लोग जो ऊँघते या अनुपस्थित न होंगे तो आप उन्हें हरदम “साम्प्रदायिक सरकार नहीं चलेगी, नहीं चलेगी” या “फ़ासिस्ट हाय-हाय” आपको नियमित रूप से उच्चारित करते हुए मिलेंगे। अब पता नहीं किन अनुभवों के आधार पर आर्थिक सुधारो को साम्प्रदायिकता से जोड़ लेते है ये तो खैर इनकी प्रोग्रेसिव आत्मा ही बता सकती है। और इस उच्चारण को जब और सारे दल सुर में सुर मिलाते है तो वाकआउट नाम का जिन्न प्रकट होता है जो तत्काल सबको एक बराबरी पर ला पटकता है। और इसके बाद कुछ मुद्दों पर इधर-उधर की कह कर अर्थात टांग उठाकर अपने ठिकाने की तरफ बढ़ चलते है। विरोधाभासों के मंच के सशक्त केंद्र बन गए है संसद आदि स्थल।
अपने इलाहाबाद शहर के एक व्यस्त चौराहे पर अखबार की रसीली दुकान है। विरोधाभासों के कई सशक्त हस्ताक्षर यहाँ दिन भर डेरा डाले रहते है। ऐसे ही एक सज्जन कई अखबारों के पन्नो को यूँ ही उल्टा पल्टी करने के बाद टीका टिपण्णी के बाउन्सर फेकने लगते है। एक दिन मुझसे ये बोले हिंदी में जरा आप लिखे तो कुछ बात बने वर्ना अंग्रेजी लेखन के जरिये तो आप कभी राष्ट की चेतना से सम्बन्ध नहीं बना पायेंगे। पता नहीं अंग्रेज़ क्यों अपनी अंग्रेजी कुछ लोगो के हवाले करके चले गए। अपनी मिसाईल दाग कर वो चलते बने। अफ़सोस इस बात का नहीं था कि अंग्रेजी लेखन को निशाना बनाया गया था पर इस बात का था कि अपनी दिमागी जड़ता को राष्ट्र की चेतना के विकास से जोड़ गए। क्योकि मै अच्छी तरह जानता हूँ कि अगर मै इनसे ये कहता कि मुझे हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों से लगाव है तो मुझे ये संस्कृत से जुड़ने की सीख देते, संस्कृत से भी अगर जुड़ा पाते तो फिर ये कहते आप भोजपुरी से क्यों नहीं गठबंधन करते आदि आदि। खैर मै आपको विरोधाभासों के बारे में, विचित्र प्रवृत्तियों के बारे में कुछ बता सा रहा था।
अगले दिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब मैंने इन सज्जन को फेमिना, कास्मोपोलिटन इत्यादि अंग्रेज़ी मैग्जीनों के पन्नो को पलटते देखा। मैंने उनसे कहा कि लगता है आपने अपना पाला पलट लिया है। अभी आप कल ही तो स्वाभिमान वाली बात कर रहे थें। उन्होंने ये सुनकर कहा कि आपको लगता है तो लगे पर मै स्पष्ट कर दूँ कि मै पढ़ नहीं सिर्फ इन्हें सिर्फ देख रहा हूँ। आप की अंग्रेजी पर इतनी पकड़ नहीं तो फिर आप इन्हें देखकर क्या प्राप्त कर रहे है? इस सवाल पर उनका चेहरा तमतमा उठा पर झेंप को छुपाते हुए बोले देखिये निरुत्तर बनकर मुझे अपूर्णता का शिकार तो होना नहीं है। इनके पन्ने पलटने से तो ही मैचोरिटी आती है। संक्षेप में मंत्र इन्होने ये दिया कि राष्ट्र की चेतना का विकास भले हिंदी में लिखने से होता हों पर पूर्णता अंग्रेजी के मैग्जीनों के पलटने से ही आती है।
अगर सेंट्रल लाइब्रेरी में घटी घटना का उल्लेख न करू तो बात अधूरी रह जायेगी। मै वाचनालय में किसी लेख को पढने में पूरी तल्लीनता से रमा हुआ था कि किसी के कदमो की आहट ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। देखा कि एक साहब आदिमकाल के मनुष्यों में पाए जाने वाले गुणों को अभिव्यक्त करते हुए चले आ रहे थें। दुर्भाग्य से ये आके मेरे बगल में खड़े हो गए। आँखे इनकी अभी भी दरवाजे की तरफ ही थी पर इनके हाथो में अंग्रेजी का अखबार आ चुका था। फिर जिस तरह कैशिअर नोटों को गिनता है इन्होने इसी अंदाज़ में पन्नो को तेज़ी सें पलटना आरम्भ किया। केवल मुंह की तरफ हाथ थूंक लगाने के लिए उठता था। कुछ ही सेकेण्ड में भारत का नंबर एक अंग्रेजी का राष्ट्रीय दैनिक अखबार पढ़ा जा चुका था।मुझे इनकी शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। भाई साहब लगता है मैंने आपको पहले कही देखा है। इन्होने मेरी तरफ देखा फिर अटपटे लहजे में पूछा कि आप क्या करते है? इससें पहले कि मै इनसे कुछ कह पाता ये जिस तरह मेरे पास चल के आये थें उसी तरह से ये दरवाजे की तरफ बढ़ चले थें। चलिए ठीक है अब मै किसी जानी पहचानी शक्ल से मिलूँगा तो यही से शुरुआत करूँगा कि आप क्या करते है ? आप की शक्ल कुछ जानी पहचानी रही है। अब तो ठीक है न। शायद मै परिपक्व और पूर्ण हो चला हूँ।
पिक्स क्रेडिट:
चलो थोडा सा मुस्कुरा ले, थोडा सा जी ले! (हास्य लेख)
गंभीर लिखते लिखते मन बोझिल सा हो गया तो सोचा जरा सा मुस्कुरा ले, जरा सा आराम कर ले। पता नहीं किस कवि की पंक्तिया है पर मुझे हंसने और मुस्कुराने के लिए बाध्य कर रही है:’चलो आज बचपन का कोई खेल खेलें, बड़ी मुद्दत हुई बेवजह हंस कर नहीं देखा’। मेरी एक परम मित्र है। बड़ी दुखिया स्त्री है पर काम करने के मामले में नान स्टाप एक्सप्रेस है। लिहाजा हमेशा मेरा उससें छत्तीस का आंकड़ा रहता है काहे कि अपने स्वास्थ्य की कीमत पर काम करती है। मैंने उससें कह रखा है जब मरने लगना मुझे खबर जरूर करना तुम्हारे कब्र के ऊपर मै ये लिखवाऊंगा ” ये रही मेरी मित्र जिसने मुझ जैसे जीवंत शख्स को दो मिनट भी एक मगरूर, जिद्दी, बिगडैल हसीना की तरह एहसान जता के दिए लेकिन आफिस के घटिया वातावरण में बेजान आंकड़ो को खूब रस ले के प्रेम किया। इस महान बुद्धिमान स्त्री को मेरा नमन जिसकी मौत आफिस का काम करते करते हुईं। ईश्वर इसकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे जो “हैवन द स्वर्ग” में तो कम से कम आराम करे।”
ऐसा लिखवाने के बाद मेरी आत्मा को बहुत शान्ति मिलेगी। और उन मेरे जाहिल मित्रो से नफरत और दूरी और घनी हो जायेगी जो आफिस में सड़को पे फिरते आवारा कुत्तो की तरह इधर उधर दुम फटकारने को “आराम हराम है” सा समझते है । आफिस में दुम फटकारना बहुत बड़ा कर्मयोग है, कुत्ते कही के, ढोंगी कही के, पाखंडी है ये सब। ईश्वर के अस्तित्व को मै इसी बात से स्वीकार करता हूँ कि इस तरह के वातावरण और ढ़ोंगपने से उसने बचाया। मुझे खूब काम करना सिखाया पर उसको जताना नहीं सिखाया। अब मै अपनी बकैती बंद करता हूँ और आपको आराम तत्त्व को प्रतिपादित करती ये कविता पढवाता हूँ। मेरे जीवन दर्शन को प्रकट करती है और अपने दुखिया मित्र को तन्हाई में कोसने में मदद करती है। एक लेखक को किसी दूसरे अच्छे लेखक की बातो को फैलाना चाहिए। उसे चोरी से अपने नाम से नहीं छपवाना चाहिए। या सिर्फ अपना ही लिखा दुसरो पे नहीं थोपना चाहिए।
तो आप सब लोग गोपाल प्रसाद व्यास की इस बेहद शानदार हास्य कविता को पढ़कर मेरी तरह मुस्कुराना सीखे, मेरी तरह आराम करना सीखे।
********************************************************************
“आराम करो”
एक मित्र मिले, बोले, “लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।”
हम बोले, “रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में ‘राम’ छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ — है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ — सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब ‘सुख की नींद’ कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
– गोपालप्रसाद व्यास
***********************
Pic Credit:
श्रीलाल शुक्ल: रचयिता तो शांत हुआ पर “राग” रह गया है गूंजता सदा के लिए !!
पिछले कुछ एक महीनों से हम कुछ उन लोगो के निधन के बारे में सुन रहे है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अलग जगह बनाकर हमारे लिए जीने की राह सरल कर गए. स्टीव जाब्स, एप्पल के सह संस्थापक और अमेरिका के महानतम आविष्कारको में एक, जिन्होंने राजा परीक्षित की तरह मौत की निरर्थकता को साबित किया और ये साबित किया कि कम आयु कुछ अच्छा करने के राह में आड़े नहीं आती यदि गुणवत्ता आपकी आदत में शुमार हो तो. स्टीव जाब्स की तरह जगजीत सिंह भी हमको छोड़ कर चले गए. इतने शुरुवाती झटको के बाद भी इन्होने वही किया जो सोचा. सपने पूरे होते है यदि आप लगन से लगे है तो. जगजीत सिंह ने जिस तरह जिंदगी के मायने बताये अपने ग़ज़लों, गीतों और भजनों से वो उन्हें हमारे बीच स्थापित कर जाता है हमेशा के लिए.
इस तरह से श्रीलाल शुक्लजी भी थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पढ़े हुए हमारे श्रीलालजी ने सरकारी नौकरी करते हुए भी सरकारी सत्ता के प्रति रुझान को नकारते हुए साहित्य साधना में अपने को रमा लिया. ये अच्छा ही हुआ कि उनकी पहचान एक लेखक के रूप में बनी वरना लोग अपने को सरकारी सेवक के रूप में पहचान स्थापित करना अपनी शान समझते है. ये हमारे यहाँ के लोगो को एक रोग लगा हुआ बबुआ सरकारी नौकरी करत हउवन !!!! जिसे देखो पूँछ उठाये सरकारी नौकरी का फार्म लेके घूमता रहता है. ये जो उनकी वितृष्णा उपजी सरकारी नौकरी में भ्रष्ट सिस्टम के बीच में रहकर इसने ही राग दरबारी को एक अमरत्व सा प्रदान किया साहित्य जगत में. इसलिए श्री लाल जी कहते है कि ” राग दरबारी का व्यंग्य साधने के लिए मुझे कोई अतिरिक्त शब्द-साधना नहीं करनी पड़ी क्योंकि वह माहौल मेरा इतना जाना बूझा था कि वह सब कुछ सहज ही संभव हो गया।”
यद्यपि शुक्लजी ने “विश्रामपुर का संत”, “अज्ञातवास”, “सीमाए टूटती है”, “मकान” जैसे बेहतरीन उपन्यास लिखे है, “अंगद के पाँव” और “अगली शताब्दी के शहर” जैसी व्यंग्य कृतिया लिखी है, “ये घर मेरा नहीं” और ‘”इस उम्र में” कहानी संग्रह लिखा है, “मेरा साक्षात्कार” जैसे संस्मरण लिखा है हम उन्हें जानते है राग दरबारी के लिए. इससें साबित यही होता है कि बहुत अच्छा लिखने के बाद भी कुछ एक ऐसी रचनाये बन पड़ती है जो हमारी पहचान बन के रह जाते है. शायद ये रचनामक जगत की पहचान है कि सब रचनाये समान रूप से अच्छी होने के बाद भी समान स्तर कि लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाती. वैसे शुक्लजी को सम्मान भी खूब मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार,पद्म भूषण और 2009 का भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान उनमे से प्रमुख है पर मुझे नहीं लगता कि उस आदमी कि जिसकी जीवन को समझने के लालसा तीव्र हो और जिसके अन्दर उम्र के अंतिम पड़ाव में भी यही सूझता हो कि ” जीवन की जटिलताओं को साहित्य द्वारा अभिव्यक्त किए जाने को अभी बहुत कुछ शेष है” उसको इन सम्मान पत्रों से कोई ख़ास लगा रहा होगा.
बहरहाल ये अपने तरह का एक अनोखा साहित्यकार सबकी तरह एक नयी यात्रा करने को निकल गया पर हमारे लिए छोड़ गया जीवन को समझने के नए समीकरण.
***************************
कुछ अंश उनकी कृतियों से :
चारों और फैली अव्यवस्था, बेकारी, गरीबी, निर्लज्ज भ्रष्टाचार यह सब देख रंगनाथ जब बहुत परेशान हो गया, दुखी हो गया तो उसने प्रिसिपल से कहा :- घिन आती हे मुझे इस व्यवस्था से, इन लोगों से. मैं कल ही गांव छोड़ चला जाऊंगा. तब प्रिसिपल उसे बोलता हे :- कहाँ जाओगे रंगनाथ जहाँ जाओगे वहीँ ये शिवपालगंज मिलेगा सारा हिंदुस्तान ही शिवपालगंज हे अरे यहाँ सभी चिडिमार हें तुम्ही तीसमारखां बनकर क्या उखाड लोगे.
सच ही तो है हिंदुस्तान एक रेल्वे स्टेशन का वेटिंग हाल हे अपनी-अपनी जगह बनाओ अखबार बिछाओ. हगो,मूतो,थूको अपनी गाड़ी पकड़ो और निकल लो अपने को कहाँ यहाँ दुबारा आना हे
[ सच हे किन्तु दुखद ]
…….कोई काम करना नही चाहता और करें भी क्यों अरे सरकारी नोकरी में भी आकर अगर काम करना पड़े तो लानत हे ऐसी जिंदगी पे इसीलिये समझदार लोग गम का घुंट पिके रह जाते हें उन्हें मालुम हे किसके पास जाओगे किसको शिकायत करोगे साला जिस किसी कि भी पूंछ उठाओगे मादा निकलेगा
****************************
प्रिंसिपल ने आख़िरी धक्का दिया, “प्रधान कोई गबडू-घुसडू ही हो सकता है। भारी ओहदा है। पूरे गाँव की जायदाद का मालिक! चाहे तो सारे गाँव को 107 में चालान करके बन्द कर दे। बड़े-बड़े अफ़सर आकर उसके दरवाज़े बैठते हैं! जिसकी चुगली खा दे, उसका बैठना मुश्किल। काग़ज़ पर ज़रा-सी मोहर मार दी और जब चाहा, मनमाना तेल-शक्कर निकाल लिया। गाँव में उसके हुकुम के बिना कोई अपने घूरे पर कूड़ा तक नहीं डाल सकता। सब उससे सलाह लेकर चलते हैं। सबकी कुंजी उसके पास है। हर लावारिस का वही वारिस है। क्या समझे?”
***********************
यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कालिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुचती। वहां कभी-कभी ऎसे दांव भी चले जाते जो बड़े-बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। पिछले साल रामाधीन ने वैद्यजी पर एक ऎसा ही दांव फ़ेका था। वह खाली गया, पर उसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई। अखबारों में जिक्र आ गया। उससे एक गुटबन्द इतना प्रभावित हुआ कि वह शहर से कालिज तक सिर्फ़ दोनों गुटों की पीठ ठोकनें को दौड़ा चला आया। वह एक सीनियर गुटबन्द था और अक्सर राजधानी में रहता था। पिछले चालीस साल से वह अपने चौबीसों घण्टे केवल गुटबन्दी के नाम अर्पित किये हुए था। वह अखिल भारतीय स्तर का आदमी था और उसके बयान रोज अखबार में पहले पन्नों पर छपते थे, जिसमें देश-भक्ति और गुटबन्दी का अनोखा संगम होता था। उसके एक बार कालिज में आ चुकने के बाद लोगों को इत्मीनान हो गया था कि यहां अब कालिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म नहीं होगी।
सवाल है: गुटबन्दी क्यों थी?
यह पूछना वैसा ही है जैसे पानी क्यों बरसता है? सत्य क्यों बोलना चाहिए? वस्तु क्या है और ईश्वर क्या हैं? वास्तव में यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक यानी लगभग दार्शानिक सवाल है। इसका जवाब जानने के लिए दर्शन-शास्त्र जानने की जरुरत है और दर्शन-शास्त्र जानने के लिए हिन्दी का कवि या कहानीकार होने की जरुरत है।
***************
रंगनाथ ने कहा,” वे दफ्तरवाले बड़े शरारती हैं। कैसी-कैसी गलतियाँ निकालते हैं।”
जैसे गाँधीजी अपनी प्रार्थना-सभा में समझा रहे हों कि हमें अंग्रेजों से घृणा नहीं करनी चाहिए, उसी वजह पर लंगड़ ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं बापू, दफ्तरवाले तो अपना काम करते हैं। सारी गड़बड़ी अर्जीनवीस ने की है। विद्या का लोप हो रहा है। नये-नये अर्जीनवीस गलत-सलत लिख देते हैं।”
*************************
किसी भी सामान्य शहराती की तरह उसकी भी आस्था थी कि शहर की दवा और देहात की हवा बराबर होती है। इसलिए वह यहां रहने के लिए चला आया था। किसी भी सामान्य मूर्ख की तरह उसने एम.ए करने के बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरु कर दी थी, पर किसी भी सामान्य बुद्धिमान की तरह वह जानता था कि रिसर्च करने के लिए विश्वविद्यालय में रहना और नित्यप्रति पुस्तकालय में बैठना जरुरी नहीं है। इसलिए उसने सोचा था कि कुछ दिन वह गांव मे रहकर आराम करेगा, तन्दुरुस्ती बनायेगा, अध्ययन करेगा, जरुरत पड़ने पर शहर जाकर किताबों की अदला-बदली कर आयेगा और वैद्यजी को हर स्टेज पर शिष्ट भाषा में यह कहने का मौका देगा कि काश ! हमारे नवयुवक निकम्मे न होते तो हम बुजुर्गो को ये जिम्मेदारियां न उठानी पड़तीं।
किस्सा इलाहाबादी डीलिंग का ! (व्यंग्य लेख)
हमारा इलाहाबाद विविधताओ का शहर है. यहाँ का सब कुछ एक ख़ास रंग में ढला है. इलाहाबाद के साहित्यिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों से तो आप परचित है ही पर आपका पाला कभी ‘ इलाहाबादी डीलिंग’ से पड़ा है ? आप चौक गए ना कि आखिर ये क्या बला है? आपका चौकना स्वाभाविक है. सबके बूते के बाहर है इसकी महिमा को समझ पाना पर यहाँ के वाशिंदे इस कला में पारंगत है और इसका रस लेना खूब जानते है. इस शहर में सफलता इस बात पे निर्भर करता है कि डीलिंग पर पकड़ आपकी कितनी है. सही डीलिंग अगर आपको शिखर पर बैठने कि क्षमता रखती है तो गलत डीलिंग की वजह से आपकी अच्छी खासी किरकिरी भी हो सकती है. डीलिंग में सारा कमाल आपके वाक् कौशल पर निर्भर होता है.
(मेरा ये व्यंग्य लेख सर्वप्रथम “आज” दैनिक जो वाराणसी से प्रकाशित होता है में १ ५ अप्रैल २००४ को छपा था )
Pics Credit:
RECENT COMMENTS