तुगलकी और शुतुरमुर्गी मानसिकता से बाधित मोहम्मद रफ़ी प्रेमी विविध भारती!

विविध भारती ने अपनी पहुँच की क़द्र नहीं की बल्कि उल्टा अपनी सबसे ज्यादा पहुँच के होने के दंभ ने इसके अन्दर ऐरोगेन्स का समावेश कर दिया है. ये इसी का नतीजा है कि ये जानते हुए भी कि हर कार्यक्रम में रफ़ी के गीत बजाने से इनका श्रोता वर्ग एक नीरसता का अनुभव कर रहा है ये अपनी मनमानी पे कायम है. इनका बस चले तो ये चित्रलोक कार्यक्रम में भी रफ़ी का ही गीत बजाये!
विविध भारती देश की सुरीली धड़कन है. ऐसा आप महसूस करते है. ऐसा ही इसका प्रोमो जो अक्सर बजता रहता है वो भी यही बात कहता है. लेकिन हकीकत कुछ और ही तस्वीर बयान करती है!! विविध भारती अपनी तुगलकी नीति के चलते एकरसता का शिकार हो चला है. ऊपर से कार्यक्रमों के प्रस्तुतीकरण में पक्षपातपूर्ण नीति, नवीनता का अभाव और मौलिकता से कट्टर द्वेष ने विविध भारती को प्राइवेट चैनल के सापेक्ष हाशिये पे ला खड़ा कर दिया. आज लोग विविध भारती से भावनात्मक लगाव से ज्यादा जुड़े है इसलिए नहीं कि इनके कार्यक्रमों में कोई नयी बात है. ये कहते हुए कोई संकोच नहीं रेडियो सीलोन अपनी दमदार प्रस्तुति, उद्घोषको की मौलिकता और विविधता के प्रति जबरदस्त समर्पण और नवीनता के प्रति रुझान के चलते विविध भारती से मीलो आगे है!! विविध भारती ने अपनी पहुँच की क़द्र नहीं की बल्कि उल्टा अपनी सबसे ज्यादा पहुँच के होने के दंभ ने इसके अन्दर ऐरोगेन्स का समावेश कर दिया है. ये इसी का नतीजा है कि ये जानते हुए भी कि हर कार्यक्रम में रफ़ी के गीत बजाने से इनका श्रोता वर्ग एक नीरसता का अनुभव कर रहा है ये अपनी मनमानी पे कायम है. इनका बस चले तो ये चित्रलोक कार्यक्रम में भी रफ़ी का ही गीत बजाये! यही एक कार्यक्रम है जिसमे रफ़ी के गीत नहीं बजते और क्या पता विविध भारती के अन्दर बैठे शुतुरमुर्गी मानसिकता के लोगो के ये बात बहुत ही अखर रही हो!!
बल्कि इसी बात पे विविध भारती के एक घनघोर प्रशंसक ने हताश होकर इस पर इस्लामीकरण का लेबल चस्पा कर दिया!! मोहम्मद रफ़ी के गीत को हर हाल पर श्रोताओ पर थोपने के चस्के चलते इस पर देर सबेर ये लेबल लगना तय था. पहले शायद हमें ये लगता था की शायद ये अपना भ्रम है या कोई हसीन इत्तेफाक है जो रफ़ी के गीत शायद ज्यादा ही बज रहे हो लेकिन जिस अनुपात में रफ़ी के गीत बजते है उससे ये शक गहरा गया है कि रफ़ी साहब के गीतों को हर हाल में बजाते रहने के पीछे कोई और ही समीकरण काम कर रहा है. चाहे ये किसी बंद दिमाग की हरकत हो या फिर इसके पीछे रोयल्टी वजह हो इससे घनघोर नुकसान हम जैसे विविध भारती के परम रसिको का ही हो रहा है.
हम आपको उदाहरण दे रहे है. “आज के फनकार” कार्यक्रम में अगर प्रोग्राम मीना कुमारी पे चल रहा हो तो भी गीत का जो अंश बजेगा वो फीमेल संस्करण ना होकर रफ़ी का संस्करण होगा? क्यों ? मुझे अच्छी तरह याद है “दिल जो ना कह सका” ( भींगी रात ) इसका रफ़ी वाला हिस्सा बजा पर लता का हिस्सा जैसे ही शुरू हुआ गीत कट गया !! इनका एक कार्यक्रम आता है रात को साढ़े दस बजे “आपकी फरमाईश”. कुल मिलाकर लगभग छह गीत बजते है और बिना रोक टोक सभी गीत ज्यदातर रफ़ी के ही बजते है. बहुत हुआ तो एक गीत किसी और कलाकार का बजा दिया. दोपहर में ये “मनचाहे गीत” बजाते है पर समझिये इस मनचाहा कुछ नहीं! पूरा का पूरा प्रोग्राम ही रफ़ी के महिमामंडन में लगा रहता है.
इस प्रोग्राम के ख़त्म होने के बाद ढाई बजे से “सदाबहार नगमे” बजेगा. सिर्फ और सिर्फ एक क्रम से रफ़ी के ही गीत बजते है. छाया गीत उद्घोषक का अपना प्रोग्राम होता है लेकिन वशीकरण के शिकार इनके अधिकतर उद्घोषक रफ़ी के गीत बजाते है!! हेमंत कुमार, मुकेश, किशोर कुमार, तलत महमूद, सुरैय्या, नूरजहाँ, सहगल. मन्ना डे, सुमन कल्यानपुर, महेंद्र कपूर और सुरेश वाडकर जैसे बेहतरीन गायक इनकी प्राथमिकता में है ही नहीं! एक कार्यक्रम ये बारह से एक बजे के बीच सुनवाते है “एसएमएस के बहाने VBS के तराने” उसमे भी ये रफ़ी-प्रधान फिल्मे रख देंगे तो जाहिर है गीत रफ़ी का ही ना बजेगा!! प्रसार भारती का लगता है इस संस्था पे नियंत्रण ना के बराबर रह गया है तभी इसमें मनमानी चल रही है.
इनके लोकल स्टेशन का तो हाल इसलिए भी बुरा है कि लोकल स्टेशन अभी तक ये नहीं समझ पाए है कि युग बदल गया है. लोकल स्टेशन के उद्घोषक तो सामन्ती प्रवित्ति के जीव है जो हर हाल में अपने को श्रोता से सुपीरियर समझते है. ये गीत रफ़ी के ज्यादा नहीं बजाते लेकिन इनका प्रस्तुतीकरण अभी भी बहुत उबाऊ है और कर्कश है. गीत के बीच में कब विज्ञापन बजना शुरू हो जाएगा कोई कह नहीं सकता!! इनके पास संसाधन का रोना तो है ही एक ग्लोबल मानसिकता का अभाव भी है! या यूँ कहे अपनी संस्कृति को नए अंदाज़ में पेश करने की कला नहीं है, तमीज नहीं है!
उम्मीद है विविध भारती श्रोताओ की नब्ज पहचानकर अपने तौर तरीको में सुधार लाएगा. वो ये ना भूले श्रोताओ की पसंद से ऊपर कुछ नहीं. रफ़ी के एक महान गायक थें पर उनके सापेक्ष अन्य गायक भी उतने ही सुरीले और वजनी थे. आप और गायकों की उपेक्षा क्यों कर रहे है? देश में फैले विभिन्न श्रोता फोरमो को मेरी ये सलाह है कि प्रसार भारती के अधिकारियो को “रफ़ी की बरफी” काट रहे विविध भारती के कुछ संदिध तत्त्वों के बारे में खबर करे नहीं तो जो विविध भारती की थोड़ी सी लोकप्रियता बची है वो भी इससे छिनते देर ना लगेगी.
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सोशल मीडिया पे हमने एक चर्चा का आयोजन किया. उस पर कुछ श्रोताओ ने ये बात कही:
विनय धारद:
विविध भारती कब इस्लामीकरण से दूर होकर किशोर कुमार के गीत सुनाएगा!!
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आनंद शर्मा, मुंबई:
मो. रफ़ी बेशक बहुत सुरीले और बहुमुखी गायकी प्रतिभा के धनी थे लेकिन केवल वे ही एकमात्र श्रेष्ठ गायक थे ऐसा कहना उसी मूर्ख को शोभा देता है जिसने उनके समय के किसी अन्य गायक को न सुना हो.
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वीरेन्द्र मिश्र, मुंबई:
मुंबई में रहते हुए बहुत ही निकट से फिल्मी दुनिया से परिचित रहा हूँ। कुछ समय पत्रकारिता भी की है। इतना तो आप भी स्वीकारें कि हिन्दी फिल्मोद्योग अनेकानेक वर्षों से अंडरवर्ल्ड और विशेषकर मुस्लिम परस्त रहा है। आप पायेंगे कि घटिया से भी घटिया मुस्लिम कलाकार हिन्दी फिल्मोद्योग में जोड़ तोड़ के बलबूते बडी ही जल्द प्रचार पाकर स्टारडम के शीर्ष पर पहुंच जाता है।
रफी साहब व्यक्तिगत रूप से अच्छे व्यक्ति थे लेकिन यह वह समय था जब नौशाद-दिलीप कुमार गैंग येन-केन-प्रकारेण मुस्लिम कलाकारों को स्थापित करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रहे थे। इसी कडी में रफी साहब की प्रशस्ति में आकाश पाताल एक कर दिया गया और वही किशोर दा का नाम बिगाडने का भयानक कुचक्र रचा गया जिसमे यह गैंग अति सफल रही। इन्हें कुछ ऐसे राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त था जो सेक्युलर थे, जिनका काम हिन्दू विरोध था। इन्ही काम षड्यंत्र था कि किशोर दा को ‘अंडर प्ले’ किया जाये। उस समय के जो संगीत मनीषी कहलाते थे वे भी किसी न किसी कारणवश ऐसी चाटुकारिता में लिप्त रहते थे। बहुत महान गायक होने के उपरांत भी रफी साहब के कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें सुनकर खीज और उकताहट होती है।
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सुधीर द्विवेदी, नयी दिल्ली:
जहा तक मुझे लगता है रफ़ी साहब ने बाकी गायको की तुलना में ज्यादा गीत गाये है और वो भी क्लासिक दौर में अर्थात 50 से 70 के दशक के बीच तो स्वाभाविक है की रफ़ी साहब के गीत ज्यादा सुनाई देंगे। और विविध भारती क्लासिक पीरियड को ज्यादा महत्व देता है। अब प्राइवेट फम चैनल्स को ले लीजिये पुराने गीत के नाम पे वो सिर्फ किशोर कुमार और आर डी बर्मन के कॉम्बिनेशन के गीत ही बजाते है। 1 घंटे के प्रोग्राम् में अगर 10 गाने बजते है तो उसमे 7 गाने किशोर दा के होते और बाकी 3 गानो में रफ़ी साहब मुकेश जी और कभी कभी दूसरे गायको के गाने बज जाते है। बरहाल जो भी हो मेरे हिसाब से गीत श्रोताओ की विविधतापूर्ण पसंद को ध्यान में रखते हुए ही बजाने चाहिए। जिस हिसाब से गानो की फरमाइश हो उसी अनुपात में गायको के गाने बजने चाहिए। इस बात की जांच होनी चाहिए कि रफ़ी के गीत क्यों कर ज्यादा बजते है. किसी ख़ास गायक के गीतों को थोपना ठीक बात नहीं!
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हरीश सेठ, औसा, महाराष्ट्र:
नमस्कार! मैंने भी विनंती की थी कि हर कार्यक्रम में किशोर के कुछ नग़्मों को याद कीजियेगा. मुकेश, येसुदास और मनहर जैसे कई सुरसम्राट जो विविध भारती के प्रोग्रामो में रफी जी के मुकाबले कम ही पेश होते हैं. रफी जी का स्थान दुनिया का कोई गायक नहीं ले पाएगा. वो सर्वोत्तम ही थे. मगर बहुत से श्रोता चाहते रहे है कि सुरों के संसार में हरदम सभी सितारों की गूँज सुनाई दे. गायिकाओं के बारे में भी इसी बात को लेकर विचार हो..ये प्रार्थना है हमारी.
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हेमंत कुमार और लता की आवाज़ में ये “नागिन” चलचित्र का बेहद सुंदर गीत सुने. संगीत हेमंत कुमार का है .गीत को लिखा राजिंदर कृष्ण ने है.
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साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की नौटंकी- तमाशा खूब है यारो!!

कुछ लेखको को देश में इस कदर असहिष्णुता के दर्शन होने लगे कि इन सभी ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी. इस मानसिकता को समझना बहुत जरुरी है कि इनको वाकई बिगड़ते माहौल की फिक्र है या ये किसी तुच्छ राजनीति से प्रेरित है.
ये देश तमाशो और नौटंकी का है. सो ये आश्चर्यचकित नहीं करता कि कुछ ख़ास वर्ग समय समय पर नौटंकी करते रहते है. इसमे से अधिकतर वामपंथी मसखरे होते है. या इनसे संचालित संस्थाए होती है. इस लेख के लिखे जाने तक कम से कम विभिन्न भाषाओ के २५ लेखक अपना पुरस्कार लौटा चुके है. अगर बिके हुए मीडिया की बात माने तो इन सबको देश में बढ़ते हुए धार्मिक असहिष्णुता के चलते काफी ठेस लगी है. कन्नड़ चिन्तक एमएम कलबुर्गी, भाकपा के वरिष्ठ नेता गोविंद पानसरे, भारतीय तर्कवादी और महाराष्ट्र के लेखक नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर और दादरी काण्ड के चलते इन लेखको को देश में इस कदर असहिष्णुता के दर्शन होने लगे कि इन सभी ने पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी. इस मानसिकता को समझना बहुत जरुरी है कि इनको वाकई बिगड़ते माहौल की फिक्र है या ये किसी तुच्छ राजनीति से प्रेरित है.
नामवर सिंह की बात इस परिपेक्ष्य में काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है. और जैसा ये तय था कि नामवर सिंह की बात सुनकर इन सब का बिलबिलाना तय था. वही हुआ. “डॉक्टर सिंह ने देश के पच्चीस लेखकों द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने पर कहा क़ि लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह पुरस्कार लौटा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौट रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, क्योंकि अकादमी तो स्वायत संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है। यह देश की अन्य अकादमियों से भिन्न है। आखिर लेखक इस तरह अपनी ही संस्था को क्यों निशाना बना रहे हैं। अगर उन्हें कलबुर्गी की हत्या का विरोध करना है तो उन्हें राष्ट्रपति, संस्कृति मंत्री या मानव संसाधन मंत्री से मिलकर सरकार पर दबाव बनाना चाहिये और उनके परिवार की मदद के लिए आगे आना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि इस मुद्दे पर अकादमी को लेखकों का एक सम्मेलन भी करना चाहिए, जिसमें इन सवालों पर खुल कर बात हो।” नामवर सिंह जी ने बिना लाग लपेट के खरी खरी कह दी. जाहिर सी बात है इस सीधी सी बात का इन पुरस्कार लौटाने की होड़ में लगे हुए लेखको के पास कोई जवाब नहीं. लेखको का राजनीति से यूँ तो काफी घनिष्ठ सम्बन्ध है लेकिन ये भी सड़कछाप राजनीति में मोहरों की तरह इस्तेमाल होंगे ये पता ना था.

नामवर सिंह: मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौट रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, क्योंकि अकादमी तो स्वायत संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है। यह देश की अन्य अकादमियों से भिन्न है। आखिर लेखक इस तरह अपनी ही संस्था को क्यों निशाना बना रहे हैं?
अगर ये वाकई बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है तो इन्हें विरोध और वो भी एक जेन्युइन विरोध को बेहतर तरीके से उभारना चाहिए था. लेकिन जब तह में दिखावटी कारण हो तो ये भी तय है कि विरोध भी भांडनुमा ही बन जाएगा. इनसे पूछा जाना चाहिए जब कांग्रेस काल में इतने सुनियोजित तरीके से दंगे हुए, महाराष्ट्र में एक वर्ग गांधी की प्रतिमा का खुले आम निरादर करता है, खुले आम गुंडागर्दी करता है, तस्लीमा नसरीन को खुले आम धमकियाँ दी गयी जिस वजह से उसे एक देश से दुसरे देश में जान बचाने के लिए भागना पड़ रहा है, सलमान रुश्दी का भारत में कार्यक्रम इस वजह से स्थगित हो गया कि उन्हें एक वर्ग विशेष ने पहले ही चेता दिया था कि अंजाम सही नहीं होगा तब क्या इन लेखको की आत्मा मर गयी थी? तब क्या इनका जमीर ख़ाक हो गया था? और आज एक बारगी इन लेखको को देश में फैलते असहिष्णुता के दर्शन हो गए?
ये क्या सुनियोजित नहीं लगता? क्या ये महज संयोग है कि पुरस्कार लौटाने वाले अधिकतर किसी ना किसी रूप में वामपंथी विचारधारा से संचालित है. और क्या हम नहीं जानते ज्यादातर वामपंथियों ने इस देश की जड़ खोदने का ही काम किया है. ये कहने में भी गुरेज़ नहीं कि ये सब विदेशी ताकतों से संचालित है. कडवी बात ये है कि उन्हें इस सरकार को घेरने का कोई मुद्दा ही नहीं मिल रहा है. सो मुद्दे अंग्रेजी में कहे तो “concocted” किये जा रहे. बात बस इतनी सी है. वो कहावत है ना कि कीचड फेंकते रहो कुछ ना कुछ तो चिपक ही जाएगा. ये सारे राष्ट्र विरोधी ताकते इस वक्त इसी फिराक में लगी है. लेखको कि एक जमात भी इसी खेल में मोहरों की तरह फिट हो गयी. मुझे इसी बात का खेद है.
ऐसा नहीं कि मुझे विचारको या चिंतको के मारे जाने का दुःख नहीं लेकिन जब इस को एक घिनौने रूप से गन्दी राजनीति को आगे बढाने के लिए एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है तब तकलीफ होती है. ये पुरस्कार लौटाने वाले भाई लोग चाहे कुछ भी जताने की कोशिश करे, और चाहे दोगली मीडिया इनको कितना महिमंडित करे असल कहानी सिर्फ और सिर्फ यही रहेगी कि कुछ लोग जो इस सरकार की स्थिरता से बौखलाए है खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे की तर्ज पर सरकार को अस्थिर करने का कारण ढूंढ रहे है. लेखक जो प्रबुद्धता की निशानी होते है वे भी इस गंदे खेल में शामिल हो गए ये जरुर खलेगा. लेकिन फिर भी हम ये ना भूले कि इसमें अधिकतर वामपंथ से पोषित
है और वामपंथी इस देश के प्रति कैसी निष्ठां रखते है ये किसी से नहीं छुपी! इलाहाबाद में भी साहित्यकार बंधू जुटे और इनमे ज्यादातर वामपंथ समर्थित अप्रासंगिक हो चुके लेखको की एक लम्बी फौज थी जिनकी समझ ये है कि ओसामा बिन लादेन में भी ये महानता के गुण ढूंढ लेंगे लेकिन नरेन्द्र मोदी में सिर्फ और सिर्फ हिटलर और मुसोलिनी के ही दर्शन होंगे!!
कुछ एक साल पहले लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेंस में जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी ने एक पत्रकार को सरे आम धमकी दी और बुरी तरह पीटा भी लेकिन इस खबर को कोई अहमियत नहीं मिली. कुल मिला के मामला ये है कि असहिष्णुता के मायने इस देश में ये है कि जब सिर्फ एक वर्ग विशेष को किसी भी वजह से तकलीफ पहुंचे तो सब जगह इस बात को बढ़ा चढ़ा कर बताओ कि देश में असहिष्णुता पनप रही है! दादरी हत्याकांड के तह में मत जाओ, उसकी असल वजह मत जानो लेकिन ये सब जगह फैला दो कि एक मुसलमान की मौत हो गयी! कल को शायद सडक हादसों में मरने वाले मुसलमान को भी सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बता दिया जाए!!
अंत में सिर्फ ये जानना चाहेंगे स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या जब क्रिस्चियन मिशनरीज के षड़यंत्र के चलते जन्माष्टमी समारोह के दौरान उड़ीसा में हुई थी तब क्या किसी लेखक ने ( अभी तक के इन २५ लेखको को मिलाकर जिन्होंने पुरस्कार लौटाए है) असहिष्णुता के चलते अपना पुरस्कार लौटाया था? या लौटाने का सोचा था? और नहीं लौटाया ना ही लौटाने का सोचा तो उन्होंने ऐसा क्यों किया? तब आपको समझ में आ जाएगा कि वे आज ऐसा असल में क्यों कर रहे है! या इन लेखको की आत्मा तब क्यों नहीं डोली जब सामूहिक नरसंहार झेलते झेलते कश्मीरी पंडित जम्मू और कश्मीर से लगभग पूरी तरह से पलायन कर गए!! ये तो कई वर्षो से इनके साथ हो रहा है! इतने सालो में इन लेखकों की नजर इन पर एक बार भी नहीं पड़ी. इन कश्मीरी विस्थापितों के दुःख दर्द से क्यों नहीं इन लेखको की आत्मा डोली?

अंत में सिर्फ ये जानना चाहेंगे स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या जब क्रिस्चियन मिशनरीज के षड़यंत्र के चलते उड़ीसा में हुई थी तब क्या किसी लेखक ने ( अभी तक के इन २५ लेखको को मिलाकर जिन्होंने पुरस्कार लौटाए है) असहिष्णुता के चलते अपना पुरस्कार लौटाया था? या लौटाने का सोचा था? और नहीं लौटाया ना ही लौटाने का सोचा तो उन्होंने ऐसा क्यों किया? तब आपको समझ में आ जाएगा कि वे आज ऐसा असल में क्यों कर रहे है!
References:
नामवर सिंह
साहित्य अकादमी पुरस्कार
स्वामी लक्ष्मणानन्द जी की हत्या
अवार्ड विवाद
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Pic One
Uttar Pradesh Public Service Commission: Let’s Hope It Regains Its Lost Glory!
For a writer it’s a matter of great satisfaction if the issues raised by him get snowballed into crucial developments at grass-roots level. I am really happy that Allahabad High Court quashed appointment of Chairman of Uttar Pradesh Public Service Commission on grounds that it was “arbitrary” and “”breach of provisions of Constitution”. I had taken note of the grievances of agitating students much before it turned into a sub judice affair. I had kept a close eye on the affairs pertaining to the world of students besides taking note of key developments taking place inside the corridors of Public Service Commission. There was a personal reason as well. My father had served this institution and therefore issues related to it meant a lot for me at emotional level. It was really upsetting for me that such an impartial constitutional body had become playground of vested interests. The key posts went to people with chequered past. But none could raise objection since it was an autonomous body enjoying immense power. Of course, everybody knew that it was being controlled by “Y Factor” ( Yadav factor )
Being resident of this city, I always met students who informed me about the malpractices going on unabated inside Commission. The whole examination process for various examination had become a farce, interviews were being conducted in most discriminatory way. That meant end of road for meritorious students wishing to be part of system as government officials. Although I do not believe in being head on with district administration, I was devoid of saner choice other than asking students to demonstrate on the streets in a ferocious way. Fortunately, the agitations took the same shape with students going berserk! Number of petitions got filed in the court regarding the misuse of power and abuse of constitutional provisions. Like always Court had the last laugh when it showed the door to Secretary and Chairman of Uttar Pradesh Public Service Commission within gap of few days. The High court set side appointment of Chairman treating it to be “ultra vires” of Article 316 pertaining to the guidelines related with appointment of Chairman and other members of Uttar Pradesh Public Service Commission.
I came to vigorously pursue this issue through my writings. This post “The Tragic Transformation Of Public Service Commission Into Yadav Service Commission!“ which first appeared this website on July 29, 2013, referred to dirty games and shady deals happening on the premises of Uttar Pradesh Public Service Commission. I dispatched this article to offices of mainstream newspapers but none dared to show enough guts to take anti-government stance in such a brazen fashion! Luckily, this article elicited huge interest of readers on my website. Obviously, now when High Court has finally ensured that natural justice and rule of law are above dubious interests of political masters by quashing the appointment of Chairman, I feel a deep sense of satisfaction within. At least, it makes me have this realization that pen is mightier than sword! That written words never go in vain if they truly represent anguish and dissent.
I need to clarify that Allahabad High Court dealt with this issue on entirely different grounds as ones raised in my article, “The Tragic Transformation Of Public Service Commission Into Yadav Service Commission!“, published on July 29, 2013. However, in the end, it culminated into the end as desired by me.Let’s hope constitutional bodies come to serve the people instead of serving political masters!
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I am posting below my article which first appeared on this website on July 29, 2013.
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The Tragic Transformation Of Public Service Commission Into Yadav Service Commission!
Uttar Pradesh Public Service Commission is a constitutional body, which has been assigned the task to make selections in various governments department at a State level. One expects it to discharge its duties in impartial and sound manner. However, of late, this prestigious constitutional body has become like a caged pigeon in the hands of its incompetent officials, who are acting at the behest of political masters. The latest reservation policy row provides insight into the mindset of officers working at this prestigious office. The implementation of caste-based quotas at the preliminary level of many important examinations, mainly to benefit certain “caste”, without worrying about the collateral damage caused by it is an ominous sign. It’s supposed to act in neutral manner so as to ensure that the selections take place in a fair way. However, the new mantra for it seems to be that “foul is fair”. The appeasement of political masters is more important than selection of meritorious candidates through right process.
This government agency some decades back enjoyed a good reputation of conducting examinations, and later, making final selections in honest way. It had such an impressive track record that many other government agencies sought its help in making proper selections in their own departments, granting it the authority to conduct examinations. However, the scenario inside the office has changed dramatically in last few years, especially in the regimes of Bahujan Samjwadi Party and Samajwadi Party- the political parties which were in control of Uttar Pradesh in last few years. Their casteist approach demolished the reputation of this prestigious body. In their regimes, the key positions went to officers who played havoc with the selection process.
The students who ensured that controversial reservation policy gets scrapped are absolutely right in demanding that a high level inquiry committee should be formed to take note of the irregularities made in selections during last few years. The students need to be appreciated for their act of seeking relevant information in this regard under Right to Information Act. At present two officers from Yadav community are holding key positions in this office. Isn’t it highly shameful that students now treat Uttar Pradesh Public Service Commission as ” Yadav Selection Commission”? Most of the bright students after completing the graduation go in for examinations conducted by Public Service Commission since selections to most of the the key administrative posts are made by it. Don’t these corrupt officials realize that by making selections in such arbitrary manner they are causing irreparable damage? First, they are destroying the future of genuine applicants, and second, they are paving way for incompetent people to act as government servants in future. What sort of decisions such government officials would make who got selected through such flawed process?
The reservation was introduced by makers of the Constitution for a specific period to enable marginalized castes attain a dignified position in the society. The sentiments of people, who introduced reservation, were really aimed at the welfare of weaker sections of society. However, that’s not the case now. It’s the most effective tool to destabilize societal structure. It’s the instrument to remain in power. It’s a weapon in the hands of dirty political minds to ensure that they remain relevant in political landscape. It’s high time courts and conscious citizens teach fitting lesson to corrupt political leaders and bureaucrats, who are demolishing the image of constitutional bodies.
References:
The Tragic Transformation Of Public Service Commission Into Yadav Service Commission!
NDTV
Firstpost
Images Credit:
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