कविताओ में बहुत ताकत होती है विचारो के प्रवाह को मोड़ने की, उनको एक नया रूख देने की। ये अलग बात है कि कवि और कविताओ की आज के भौतिकप्रधान समाज में कोई ख़ास अहमियत नहीं, इनकी कोई ख़ास “प्रैक्टिकल” उपयोगिता नहीं। लेकिन उससे भी बड़ा सच ये है कि कविताओ की प्रासंगिकता सदा ही जवान रहेंगी। कवियों को समाज नकार दे लेकिन उनके अस्तित्व की सार्थकता को नकारना समाज के बूते के बस की बात नहीं। उसकी एक बड़ी वजह ये है कि कवि और कविताएं इस क्षणभंगुर संसार और पारलौकिक सत्ता के बीच एक सेतु का काम करते है। ये समाज के विषमताओ के बीच छुपे उन जीवनमयी तत्वो को खोज निकालते जो सामान्य आँखों में कभी नहीं उभरती। इसी वजह से कम से कम मुझे तो बहुत तकलीफ होती है जब कविताओ और कवियों को समाज हेय दृष्टि से देखता है या उपयोगितावादी दृष्टिकोण से इन्हें किसी काम का नहीं मानता। खैर इसे कुदरत का न्याय कहिये कि उपेक्षा की मौत मरने वाले कवि और लेखक भले असमय ही इस संसार को छोड़ कर चले जाते हो उनके शब्द अमर होकर धरा पे रह जाते है। उनके शब्द समय के प्रवाह को मोड़कर नया रास्ता बनाते रहते है। मोटरगाडी में सफ़र करने वाले तो गुमनाम हो जाते है लेकिन जीवन भर गुमनामी और उपेक्षा सहने वाले कवि/लेखक अमर हो जाते है। उनकी आभा धरा पे हमेशा के लिए व्याप्त हो जाती है।
आइये कुछ ऐसी ही कविताओ को पढ़ते है जो गुज़रे वक्त के दस्तावेज सरीखे है।
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अदम गोंडवी की ये कविता मजदूरों के अहमियत को पाठक के मष्तिष्क पटल पर वास्तविक रूप से उकेरती है । उनके यथार्थ को यथावत आपके सामने रख देती है। २२ अक्टूबर १९४७ को गोंडा जिले के आटा गाँव में जन्मे इस क्रन्तिकारी कवि ने समय के पटल पर कुछ ऐसी रचनाये रची जो संवेदनशील ह्रदय में सकारात्मक वेदना को जन्म दे देती है। वैसे इस कविता में देश में व्याप्त दुर्दशा का भी चित्रण है लेकिन प्राम्भिक पंक्तिया मजदूर पर आधारित है जिसको पढ़कर मुझे रामधारी सिंह “दिनकर” जी की ये पंक्तिया स्मरण हो आई:
‘‘मैं मजदूर हूँ मुझे देवों की बस्ती से क्या!, अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये,
अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से, मेरे पुरखों ने धरती का रूप सवारा’’
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वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
-अदम गोंडवी
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बशीर बद्र ने वैसे तो जीवन के कई रंगों का जिक्र किया लेकिन रूमानियत के रंग में डूबी इनकी ग़ज़लों को जगजीत सिंह ने स्वर देकर एक नयी ऊंचाई दे दी।ये ग़ज़ल मैंने पहल पहल जगजीत सिंह की आवाज़ में सुनी जिसे बहुत ही सधे स्वर में जगजीत जी ने गाया है। और अब पढने के बाद बहुत भीतर तक उतर गयी बशीर साहब की ये ग़ज़ल।
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सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा
कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िन्दगी ने कह दिया
तू नहीं मेरा, तो कोई दूसरा हो जाएगा
मैं ख़ुदा का नाम लेकर पी रहा हूँ दोस्तो
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा
सब उसी के हैं हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आसमाँ
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा
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रमाकांत दूबे जी का नाम शायद लोगो ने कम सुना हो लेकिन इनके द्वारा ग्रामीण लोक में बसी आत्मा में रची ये कविताये कही भी पढ़ी जाई अपना असर दिखा जाती है। ३० अक्टूबर १९१७ को जन्मे इस कवि ने अपनी जड़ो का कभी नहीं छोड़ा और आज़ादी से पहले और आज़ादी के बहुत बाद तक जो भी समय ने दिखाया उसे वैसा ही शब्दों में रच डाला। यकीन मानिए इन पंक्तियों को २०१३ में पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं लगा कि इनको चालीस साल पहले रचा गया होगा। इसकी प्रासंगिकता की अमरता पर हैरानी सी हो रही है। यूँ आभास हो रहा है किसी ने चालीस साल पहले ही २०१३ में क्या व्याप्त होगा ये देख लिया था। इसीलिए तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि कवि संसार में रहते हुएं भी संसारी ना होकर समय से परे रहने वाला एक विलक्षण जीव होता है।
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खाके किरिया समाजवाद के खानदानी हुकूमत चले
जैसे मस्ती में हाथी सामंती निरंकुश झूमत चले
खाके गोली गिरल परजातंतर कि मुसकिल इलाज़ हो गइल
चढ़के छाती पे केहू राजरानी, त केहू जुवराज हो गइल
– रमाकांत दूबे
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कुछ अच्छी कवितायेँ आप यहाँ पढ़ सकते है: कविता कोष
Pic Credit:
धन्यवाद इन मित्रो को जिन्होंने इस पोस्ट पे आने की जहमत उठाई 🙂
Nikhil Garg, Noida, Uttar Pradesh; Pitamber Dutt Sharma; Rakesh Pandey, Bhopal, Madhya Pradesh; Swati Kurundwadkar; Himanshu B.Pandey,Siwan, Bihar, and SC Mudgal, New Delhi.
संवाद अजय त्यागी जी से जो नॉएडा, उत्तर प्रदेश से है.
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काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
-अदम गोंडवी
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Ajay Tyagi said:
नखास?
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Author’s Response:
नखास= नख़्ख़ास= वह बाजार जिसमें दासों, पशुओं आदि का क्रय-विक्रय होता हो। ….वैसे अजय जी इलाहाबाद आना हो तो मुझे मुझसे मुलाकात जरूर कर लें… 🙂 आप को टेशन से रिक्शे पर बिठा दूंगा नख़्ख़ास कोना के लिए 🙂 … साक्षात देख भी लीजियेगा 😛
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Ajay Tyagi said:
आपने समझाया ही इतने प्रेम से है कि साक्षात नजर आ गया। अब देखने की बिलकुल इच्छा नहीं है जी। धन्यवाद ज्ञानकोश में एक शब्द की वृद्धि कराने के लिए 🙂
Author’s Words For Urmila Haritji, Indian Institute of Mass Communication, New Delhi:
Urmila Haritji..
बहुत दिनों के बाद आपके कीमती लाइक ने अवतार लिया
खैर आप ये कविता पढ़े ….
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
– अदम गोंडवी
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Arvind Sharma, Bank Employee, Indore, Madhya Pradesh:
बहुत बढ़िया बात कही है कि कवितायेँ और कवि सेतु का काम करती है इस संसार और उस पार लौकिक सत्ता के बीच में ।वाह वाह भाई अरविन्दजी …. वैसे भी कलम हमेशा ही तलवार पे भारी होती है ….
Author’s response:
इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी की रचनात्मक जगत में जो ईमानदारी से सलंग्न है उनको देने के लिए ना तो सरकारी संस्थाओ के पास है और ना ही पिरैवेट संस्थाओ के पास कुछ है …लिहाज़ा इतनी अच्छी आत्मायें असमय ही दूसरी दुनिया में विलीन हो जाती है …. कम से इनका उचित सम्मान तो करे हर तरीकें से … लेकिन हम ये भी नहीं कर पाते …
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
-अदम गोंडवी
@ Author’s Words For Vaibhav Mani Tripathi, Government Official, Ranchi, Jharkhand:
रमाकांत जी ये दो पंक्तिया व्यवस्था को उजागर करती है कि आज़ादी के बाद पैदा हुए अफसरों ने कैसे सिस्टम में काम किया। बड़हरा जो कि कवि का अपना क्षेत्र है इस छोटी सी जगह में जो सिस्टम व्याप्त है वो पूरे देश में जो चल रहा है वैसा ही है !
परल अकाल बा सवाल बाटे जिनगी के
बीडीओ के चाल से बेहाल बा बड़हरा!
( Ramakant Dwivedi)
Author’s Words For Ravi Hoodaji, Toronto, Ontario, Canada:
कविता और कवि को नकारने से समाज का गर्त में जाना स्वाभाविक है ….
अदम जी की ये पंक्तिया पढ़े:
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जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये
मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.
-अदम गोंडवी
Anjeev Pandey, Journalist, Nagpur, Maharashtra:
काश! कवि ऐसा करें। शब्दों के मायाजाल से मुक्त हों तब न।
Author’s Response:
सही बात है ।जब भाव से ऊपर शब्द हो जाए तो कविता की मौत तय है ….खैर देखिये तो सही सिर्फ दो सीधी सादी पंक्तियों में बशीर साहब क्या कह गए:
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भूल शायद बहुत बड़ी कर ली
दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली
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Shubhranshu Pandey, Poet/Writer/ Advocate, Allahabad High Court, Allahabad, Uttar Pradesh, said:
Arvind K Pandey ji आज कविताए खत्म नहीं हो रहीं है अपितु उनको समझने वाले कम हो रहे हैं. इस आधुनिकता के नाम पर बेलाग हो कर बात कहने की आदत ने भावनाओं के साथ साथ हमारे शब्दों को भी कम कर दिया है.आज सभी अपने जानने समझने वाले शब्दों को ही सुनना चाहते हैं, वाक्य और शब्दों का दायरा सिमट सा गया है.
कविताओं के माप दण्ड को पूरा करने वाली रचनाएं कम हो गयी हैं. ट्विटर और फ़ेसबुक ने अपने आप को अपडेट करने का चलन तो शुरु किया है लेकिन वो एक, अपने विलासता को या फ़िर उपलब्धता को इंगित करने वाले ज्यादाअ होते हैं यथा, सिनेमा हाल में, होट्ल में, या माल में , के आगे नही बढपाता है. अगर कोई पोस्ट लम्बा है तो उसे शेयर कर लेंगे.और अंगुठा उठा देंगे.
और कवियों को हटाया नहीं जा सकता है. हं कविता समय के साथ साथ रुप बदलती गयी. लेकिन आज पुनः ऎसे लोग हैं जो छन्दो पर, गजल पर काम कर रहे हैं और इतना ही नही दूसरों को प्रेरणा भी दे रहे हैं, अब बात वहीं पर आती है. क्या आज हम कविता समझना या सुनना चाहते हैं.
नयी कविता और कवियों पर मेरी एक रचना का लिंक दे रहा हूँ शायद पसंद आये.
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:213410
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Author’s Response:
विस्तार से बात रखने के लिए धन्यवाद …. सही बात है जब सब बदला है तो कविता का स्वरूप क्यों न बदले! रहा सवाल सोशल मीडिया का तो शायद फेसबुक/ट्विटर कम दोषी है …अधिक दोषी है वो मानसिकता जो अभी भी स्मार्ट फ़ोन रखने के बाद भी इनके इस्तेमाल में लंठ है! इससे तो यही साबित होता है कि ये जरूरी नहीं कि स्मार्ट फ़ोन रखने वालो का दिमाग भी स्मार्ट हो 🙂 मुद्दा ये तो है ही कि कविता की परख करने वालो की कमी हो रही है, इनमे रूचि कम हो रही है … लेकिन इससे भी अहम् सवाल ये है कि क्या अब भी समाज कवियों को सही रूप से अपने में समेट पाने में सफल हो पाया है?
शुभ्रांशु तुम्हारा व्यंग्य लेख पढ़ा. ..अच्छा लगा …मैंने शायद पहले भी कहा है कि व्यंग्य आसान विधा नहीं है । लेख पढने पे समझ में आता है कि अगर तुम्हारी लेखनी निर्बाध रूप से होती रहे तो निश्चित ही इस विधा पर तुम्हारी पकड़ बढ़ेगी । अभी सुधार की बहुत गुंजाइश है … ये अलग बात है आप के अन्दर व्यंग्य का कीड़ा है …इसे कृपया जीवित रखे ।कायदे से पाले पोसे 🙂
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चलते चलते अदम गोंडवी जी की ये बात:
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को।
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Shubhranshu Pandey’ Butul’, Poet/ Writer/ Advocate, Allahabad High Court, Allahabad, Uttar Pradesh, said:
बहुत धन्यवाद, मेरी रचना को पढने के लिये. आप जैसे सुधी जनों के सलाह से ही रचनाकर्म में पकड़ बन सकती है या बढ़ सकती है. जिस सुधार की गुँजाइश कई बात आपने कही है उसी गुँजाइश को जानने का इक्षुक हूँ….
Author’s Response:
🙂