फगुआ की बयार मे भीगा भीगा सा मन, जरा जरा सा बहकता हुआ, जरा जरा सा सरकता हुआ
बसंत ऋतू का आगमन हो चुका है। बहकना स्वाभाविक है। गाँव में तो फगुआ की बयार बहती है। ग्लोबल संस्कृति से सजी संवरी शहरी सभ्यता में क्या होलियाना रंग, क्या दीपावली के दियो की ल़ौ की चमक। दोनों पे कृत्रिमता की चादर चढ़ चुकी है। या तो समय का रोना है या फिर महँगाई का हवाला या फिर जैसे तैसे निपटा कर फिर से घरेलु कार्यो/आफिस के कामकाज में जुट जाने की धुन। त्यौहार कब आते है कब चले जाते है पता भी नहीं चलता। ये बड़ी बिडम्बना है कि त्यौहार सब के लिए दौड़ती भागती जिंदगी में टीवी सीरियल में आने वाले दो मिनट के ब्रेक जैसे हो गए है। सब के लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए है। अलग अलग उम्र के वर्गों के लिए त्यौहार का मतलब जुदा जुदा सा है। और मतलब अलग भले ही होता हो लेकिन उद्देश्य त्यौहार के रंग में रंगने का नहीं वरन जीवन से कुछ पल फुरसत के चुरा लेने का होता है।
इन सब से परे मुझे याद आते है कई मधुर होली के रंग। वो लखनऊ की पहली होली जिसमे कमीने तिवारी ने मेरी मासुमियत का नाजायज़ फायदा उठाते हुए और लखनऊ की तहजीब की चिंदी चिंदी करते हुए मुझे रंग भरे टैंक में धक्का देकर गिरा दिया था। बहुत देर के बाद एक गीत उस तिवारी के लायक बजा है हर दोस्त कमीना होता है। तिवारी का नाम इस लिस्ट में पहले है। ये इतना मनहूस रहा है शनिचर की तरह कि हर अनुभव इसके साथ बुरा ही रहा है। बताइए बैंक के कैम्पस के अन्दर छुट्टी वाले दिन बैंक की चारदीवारी फांद कर हर्बेरिअम फाइल के लिए फूल तोड़ने का आईडिया ऐसे शैतानी दिमाग के आलावा कहा उपज सकती थी। गार्ड धर लेता तो निश्चित ही बैंक लूटने का आरोप लग जाता। वो तो कहिये हम लोग फूल-पत्तियों सहित इतनी तेज़ी से उड़न छू हुएं कि इतनी तेज़ी से प्रेतात्माएं भी न प्रकट होके गायब होती होंगी। गाँव की होली याद आती है जिसमे गुलाल तो कम उड़ रहे थें गीली माटी ज्यादा उड़ रही थी। पानी के गुब्बारों से निशाना साधना याद आता है। सुबह से सिर्फ पानी की बाल्टी और गुब्बारा लेकर तैयार रहते थें। याद आते है वार्निश पुते चेहरे, बिना भांग के गोले के ही बहकते मित्र, गुजिया पे पैनी नज़र। ये सब बहुत याद आता है। अपने मन को धन्यवाद देता हूँ कि मष्तिष्क का अन्दर इन यादो के रंग अभी भी ताज़े है।
स्मृतियाँ तकलीफ भी देती है और आनंद भी। इन्ही स्मृतियों में भींगकर पाठको को होली से जुड़े कुछ विशुद्ध शास्त्रीय संगीत पे आधारित ठुमरी/गीत जिनमे अपने प्यारे राधा और कन्हैय्या के होली का वर्णन है को सुनवा रहा हूँ। ये अलग बात है कि मेरे मित्रो के श्रेणी में इन गीतों को सुनने के संस्कार अभी ना जगे हो लेकिन इन्हें स्थापित उस्तादों ने इतना डूब कर गाया है कि अन्दर रस की धार फूट पड़ती है। कुछ एक गीत चलचित्र से भी है, अन्य भाषा के भी है भोजपुरी सहित। इन्हें जैसे तैसे आप सुन लें अगर एक बार भी तो मुझे यकीन है कि संवेदनशील ह्रदय इनसे आसानी से तादात्म्य कर लेंगे हमेशा के लिए। और इसके बाद भी यदि शुष्क ह्रदय रस में ना भीग सके तो उनके लिए जगजीत सिंह का भंगड़ा आधारित गीत भी है। सुने जरूर। ह्रदय हर्ष के हिलोरों से हिल जाएगा।
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1. रंग डारूंगी, डारूंगी, रंग डारूंगी नन्द के लालन पे (पंडित छन्नूलाल मिश्र)
पंडितजी को सुनने का मतलब है आत्मा में आनंद के सागर को न्योता देने का सरीखा सा है। बनारस की शान पंडितजी से आप चाहे ठुमरी गवा लीजिये, कजरी गवा लीजिये, या ख्याल वो सीधे आपके रूह पे काबिज हो जाता है। ये किसी परिचय के मोहताज़ नहीं और ईश्वर की कृपा रही है कि प्रयाग की भूमि पर इनको साक्षात सुनने का मौका मिला है। ख़ास बात ये रहती है कि ये गीत के बीच में आपको मधुरतम तरीकें से आपको कुछ न कुछ बताते चलते है। और इस तरीके से बताते है कि आप सुनने को विवश हो जाते है। खैर इस बनारसी अंग में राधा जी ने अच्छी खबर ली है कृष्ण की। मुझे नारी बनाया सो लो अब आप नाचो मेरे संग स्त्री बन के। सुने कृष्ण का स्त्री रूप में अद्भुत रूपांतरण राधाजी के द्वारा होली के अवसर पर।
संध्या मुखर्जी को मैंने पहले नहीं सुना। इस लेख को लिखने के दौरान इनको सुनने का सौभाग्य मिला। बंगाली संगीत में निपुण इस गायिका की आवाज़ मन में घर कर गयी। उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खान की शिष्या बंगाली फिल्मो सहित हिंदी फिल्मो के लिए भी गीत गाये। इस शास्त्रीय गीत को सुनने के बाद आपको राधाजी का किसी बात पे रूठना याद आता है। कोई शिकायत जो अभिव्यक्त होने से रह गयी उसी की खीज इस गीत में प्रकट हो रही है। दर्द है तो प्रकट होगा ही। इसमें कौन से बड़ी बात है लेकिन ये क्या कि आप फगुआ की बयार में बहने से इन्कार कर दे? शिकायत दूर कर के होली जरूर खेले मै तो बस यही कहूँगा।
होली पे मुझे तो वैसे अक्सर ये गीत “होली आई रे कन्हाई” (मदर इंडिया) याद आ जाता है लेकिन ये गीत कम बजता है। बहुत मधुर गीत है। व्ही शांताराम के फिल्मो के ये विशेषता रही है कि भारतीयता के सुंदर पक्षों को उन्होंने बड़े कलात्मक तरीके से उकेरा है हम सभी के चित्तो पर। नवरंग के सभी गीत बेहद सुंदर है जैसे “श्यामल श्यामल वरन” और “आधा है चन्द्रमा रात आधी” लेकिन कृष्ण और राधा के होली प्रसंग पर आधारित गीत कालजयी बन गया। कौन कहता है कि भारतीय स्त्री बोल्ड नहीं रही? देखिये क्या कह रही है राधा इसमें जिसको जीवंत कर दिया संध्या के सधे हुए नृत्य की भाव भंगिमाओ ने। महेंद्र कपूर और आशा भोंसले ने गीत में स्वर दिया है। संगीत सी रामचंद्र का है और गीत हिंदी गीतों को शुद्ध हिंदी के शब्द देने वाले भरत व्यास का लिखा है।
नदिया के पार ने ऐतहासिक सफलता प्राप्त की थी भोजपुरी में होने के बावजूद। रविन्द्र जैन का गीत और संगीत मील का पत्थर बन गया। और यही से भोजपुरी संगीत ने एक नयी उंचाई प्राप्त की लेकिन ये अलग बात है उस मूल तत्त्व से भटक गया जिसके दर्शन इस फिल्मो के गीतों में हुए है। भारतीय फिल्मो में गाँव कभी भी असल तरीके से प्रकट नहीं हुआ। ये कुछ उन विलक्षण फिल्मो में से एक है जिसमे गाँव ने अपनी आत्मा को प्रकट किया है अपने कई मूल तत्वों के साथ।
इस गीत को सिर्फ इसलिए सुनवा रहा हूँ कि इस गीत में मेरे गाँव का स्वरूप बिलकुल यथावत तरीकें से प्रस्तुतीकरण हुआ है। इस में दीखते रास्ते, पगडण्डीयाँ, खेत, नदी बिलकुल अपने गाँव सरीखा है। गीत के बीच में आपको पालकी पे विदा होती दुल्हन भी दिख जायेगी। क्योकि पालकी पे सवार होकर कभी दुल्हन को विदा होते हुए होते देखा था सो इस युग में जहाँ पे सजी धजी कार में दुल्हन को भेज़ने की नौटंकी होती है वहां ये दृश्य आपको बिलकुल भावविभोर कर देता है। खैर गीत सुने जो बहुत मधुर है ऐसा शायद बताने की जरुरत ना पड़े। ये बताने की जरुरत अवश्य पड़ सकती है कि गीत को गाया है हेमलता और जसपाल सिंह नें।
मनोज तिवारी की आवाज में ये भोजपुरी गीत मन को भाता है। ये अलग बात है कि गीत को भोजपुरी गीतों में व्याप्त लटको झटको जैसा ही फिल्माया गया है। वही रंग बिरंगी परिधानों में कूदती फांदती स्त्रिया जो गीत के साथ न्याय नहीं करती प्रतीत होती। फिर भी हरे भरे खेत मन में उमंग को जगह तो दे हे देते है। भाग्यश्री “मैंने प्यार किया” के बाद लगभग गायब ही हो गयी। मैंने प्यार किया जैसी वाहियात फ़िल्म मैंने देखी नहीं सो बता नहीं सकता कि ये टैलेंटेड है कि नहीं लेकिन जहा तक इस गीत की बात है गीत में इनकी उपस्थिति से चार चाँद तो लग ही रहे है लुक्स की वजह सें। खैर इतने दिनों बाद देखना इस एक्ट्रेस को और वो भी एक भोजपुरी गीत में एक सुखद आश्चर्य है।
लारा लप्पा “एक थी लड़की” से बहुत ही सुंदर गीत है। इसी के खोज में ये जगजीत सिंह का ये पंजाबी गीत हाथ लग गया। इसको जगजीत सिंह ने जिस चिरपरिचित दिलकश अंदाज़ में गाया है उतने ही कमाल के तरीकें से इनके साजिंदों ने बजाया है। निश्चित ही सुनने योग्य गीत अगर आप चाहते है कि आप का दिल बल्ले बल्ले करने पे मजबूर हो उठें। वैसे इस गीत के शुरू में मजनू ने अपनी लैला को काली कहने वालो की दृष्टि को गरियाया है सभ्य तर्कों के साथ वो भी सुन लें। हम तो भाई मजनू से बस इतना ही कहेंगे कि जो बकते है उनको बकने दो काहे कि “यथा दृष्टि तथा सृष्टि” ( जैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसी ही यह सृष्टि हमें दिखती है)
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