सच बोलने या सही बोलने वाले को दुनिया ने हमेशा तमाम तरीके की बौड़म उपाधियाँ दी है। सो लेबल की परवाह मुझे नहीं है। उस अवस्था से ऊपर उठ गया हूँ जहाँ लोगो को दुनियाई तमगो की चिंता होती है। कुछ तीव्रता से महसूस करना और फिर भी खामोश रह जाना एक प्रकार का बौद्धिक जुर्म है, बौद्धिक धोखा है। कम से कम ये मेरा तरीका नहीं है। स्त्रियों का मै सम्मान करता हूँ मगर इसका ये मतलब नहीं है कि उनके आचरण से जुड़े गलत तौर तरीको पर आपत्ति न उठाऊं। हर संवेदनशील व्यक्ति को समय रहते स्त्रियों को उनके आपत्तिज़नक आचरण के लिए सचेत करते रहना चाहिये इस बात की परवाह किये बिना कि इसका उन्हें खामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है। कम से कम ये बेहतर है इससें कि आप व्यर्थ के आंसू टपकायें कुछ गलत हो जाने के बाद उसी गलत आचरण की वजह से। ये अलग बात है कि हम कदम तभी उठाते है जब सार्थक कदम अपनी अहमियत खो चुके होते है। अब ना तो मुझे इनकी तरह आँसू बहाने का शौक है और ना ही मै इन निष्क्रिय आत्माओ के समूह से में अपने आपको जोड़ सकता हूँ जो व्यर्थ ही आँसू बहाने के शौक़ीन है फोकट में।इसलिए तीव्रता से विरोध करता हूँ उस अवस्था से ही जब समस्या अपने प्रारम्भिक चरण में होती है। कम से कम विरोध करना तो मेरे हाथ में ही है। अगर आप मेरा साथ देते है तो अच्छी बात है। नहीं तो मै अकेले ही अपना विरोध तीव्रता से दर्ज करता रहूँगा। जिनको जो उपाधि मुझे देना है वो स्वतंत्र है मुझे देने के लिए।
कभी कभी हमको चीजों को मानवीय दृष्टिकोण से भी समझना चाहिए, एक संवेदनशील दिमाग से भी देखना चाहिए। दिक्कत हमारे साथ ये है कि हम सब चीजों को ओवर इंटेलेक्चुअलआइज़ कर देते है। यही सबसे बड़ी समस्या है रेडिकल फेमिनिस्ट्स के साथ जो औरतो के अधिकारों के लिए लड़ रही है। अब औरतो के पास कुछ तथाकथित अपने पर्सनल अधिकार है पर जो चीज़ इस पर्सनल राइट्स के मिलने के बाद आयी कि पुरुषो के साथ परस्पर माधुर्य से जुड़े सम्बन्ध बनाने की काबिलियत का लोप हो गया। इसीलिए मुझे जो साधारण स्तर पर विचरणने वाले स्त्री पुरुष है वो ज्यादा जीवन का रस लेने वाले है बजाय दोहरी ज़िन्दगी, उलझाव भरी ज़िन्दगी जीने वाले ये अधिकारों की लडाई लड़ते स्त्री और पुरुष।
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(अपने अभिन्न मित्र घनश्याम दास, मेडिकल प्रैक्टिसनर है, यूनाइटेड अरब अमीरात, जी से कहे हुए शब्द एक विचार विमर्श के दौरान सोशल नेटवर्किंग साईट पर)
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Pics Credit:
Sudhir Dwivedi, New Delhi, said:
पूरी बात समझ में नहीं आई भाई ..किस मुद्दे को लेकर ये लेख लिखा है आपने?
Author’s Response:
एक तो पोस्ट थोड़े छायावादी तरीके से लिखी गयी है और थोडा आप जल्दी जल्दी पढ़ गए इसलिए आशय ग्रहण कर नहीं पाए …सो आपका कसूर ज्यादा बनता नहीं ..बात ये है मित्र जब हम कुछ प्रचलित सिद्धांतो का विरोध करते है तो बहुत सारे लेबल आप पे लग जाते है। इसी को केंद्र बिंदु बनाकर छोटी सी बात कही है। जैसे मेरे मित्र घनश्याम दास जी का कहना है कि अगर आप स्त्रियों को संयमित तरीके से रहने को कहते है तो आप पे एक लेबल “मध्ययुगीन” होने का लग जाएगा। इसी को लेकर मैंने अपने अनुभव बांटा है आप लोगो से। वैसे हलके में कहूँ तो अगर पढ़ी लिखी लड़की गरियाएगी तो हिंदी ना जानने की वजह से आपको “मध्युगीन” शब्द तो कह नहीं पाएगी लेकिन अंग्रेजी अच्छी हुई तो “केव मेंटालिटी” का आपको तमगा मिलना तय है हा हा हा 😛
Rajendra Mishra, Poet/Journalist, Chunar, Mirzapur, Uttar Pradesh, said:
मध्ययुगीन कहा जाये अथवा केव मेटालिटी अब इसकी चिन्ता छोड़ कर सच का दामन थामें हुए निर्भीकता के साथ आगे बाढ़ो।एक दिन दूनियाँ कदम चूमेगी।सकारात्मक आलोचना आत्मसात होनी चाहिये। नकारात्मक के लिये चिन्तित न होकर बस उसका चिन्तन और मनन करें होसकता है उसमें से भी कुछ लैनू माखन निकल आये।
Author’s Response:
आपने बिलकुल पते की बात कही है। अपना सिद्धांत बिलकुल साफ़ है: अच्छी सोच के साथ अच्छा काम करते चले बाकी दुनिया से क्या मतलब। कुत्ते भौकते रहते है पर हाथी अपनी गति से चलता चला जाता है। हा ये अलग बात है कि आज का युग थोडा सा विचित्र सा है कि कभी कभी आप ऊँट पे भी बैठे हो तो भी कुत्ते काट सकते है पर इससें कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता जैसा आपने कहा कि सकरात्मक रूख रखने पर नकारात्मक चीजों में भी एक सही चीज़ दिख जाती है।
धन्यवाद इन मित्रो को भी जिन्होंने हमेशा की तरह इस बार भी पोस्ट पढने में दिलचस्पी दिखाई:
Munish Gupta, New Delhi; Swami Prabhu Chaitanya, Patna, Bihar; Baijnath Pandey, Associate Editor, New Delhi; Padm Singh, New Delhi; Inderjit Kaur, Jalandhar, Punjab; Deewakar Pandey, New Delhi; Himanshu B. Pandey, Siwan, Bihar; Bibhash Chandra Jhaji, Visakhapattnam, Andhra Pradesh and Lalita Jha, New Delhi;
Ghanshyam Das, UAE, said:
आपकी पोस्ट ने मुझे मेरी एक बहुत पुरानी कविता की याद दिला दी।
जब भी किसी कागज के फूल को देखता हूँ,
ठहर जातीं हैं मेरी आँखें यूं ही अनायास ।
कुछ ढूंढने की कोशिश करतीं हैं,
दिखता है सिर्फ बनावटीपन,
जो करता है निराश ।
सौन्दर्य केवल आकर्षित कर सकता है,
बाँधता है मन को पुष्प का कोमल स्वभाव,
या फिर उस के अंतर मे निहित मधु सी मधुर मिठास,
और इनमे से…………..
कुछ भी नहीं होता कागज के फूलों के पास ।
और ये आँखें उधर से हट जातीं हैं,
और फिर से शुरू होती है…
किसी रजनीगन्धा की तलाश ।
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Author’s Response:
ये कविता आपके अंतर्मन में खिले पुष्पों की तरफ इशारा कर रहे है।।। हम जैसा भीतर होते है ठीक उसी की तलाश करते है। फर्क ये होता है कि कुछ लोग को ये पता होता है और कुछ लोगो को नहीं। सुंदर कविता है ये। अगर वक्त आपको अनुमति दे तो अनुवाद करके इसको अंग्रेजी पोएट्री साइट्स पे शेयर करे।मेरे पास समय इतना कम है नहीं तो मै खुद कर देता आपके बजाय।।
जैसे ये साईट:
http://www.voicesnet.org
Baijnath Pandey, Associate Editor, New Delhi, said:
हमने शौक से बनाया है ये शीशे का घर
आ तू भी फेंक जा दो-चार पत्थर 🙂
Author’s Response:
अति सुंदर ।।। एक गीत की बस ये पंक्तिया याद आ गयी।।।
लो अब पत्थर उठाओ ज़माने के खुदाओ
तुम्हे मै आजमाऊ मुझे तुम आजमाओ …..
Sun does not need forthright.
Sun does not need torchlight.
सही बात है लेकिन कुछ जाहिल लोग ग्रहण तो लगाने की नाकाम कोशिशें तो करते रहते है। ढेला तो फ़ेंक ही देते है इस उम्मीद में कि शायद सूरज तक पहुच ही जाए! ऐसी कोशिशें करने वालो को क्या कहा जाएँ! खैर अपनी बात रखने के लिए धन्यवाद।