ऐ ज़िन्दगी तुझसे मौत ज्यादा ईमानदार है
ये कैसी बिडम्बना है कि अक्सर मुझे बहुत से लोग मुझे मिले बताने वाले कि अहम् बुरी बला है, धन बेकार है इत्यादि इत्यादि। ये बाते सैकड़ो बार नर्सरी स्कूल से लेकर अब तक पढ़, सुन, आत्मसात और जहा तक संभव है जीवन में चरितार्थ भी कर चुका हूँ लेकिन अफ़सोस सिर्फ यही है कि महफ़िलो और तन्हाई में ऐसी बाते करने वाले अक्सर पद और ओहदों के पीछे भागने वाले अहम् के पुतले निकले। वफ़ा के आवरण में लिपटे धूर्त और मक्कार मिले। दोस्त हो या प्रेमिका उनका रंग एक सा ही निकला जैसे चांदी के प्याले में विष।
ताज्जुब है इसके बाद भी ज़िन्दगी मुझे भली भली सी लगती है। इसके बाद भी जीने के मायने उभर के आते है ज़िन्दगी की कैनवास पर। हो सकता है जिंदगी को अपने को और उधेड़ना बचा हो। लेकिन जीवन के शह मात टाइप के समीकरण में अब मेरी दिलचस्पी कहा। पहले भी कहा थी। इसलिए मै बहुत दिलचस्पी से जीवन के तमाशो को नहीं देखता। जो मेरे सामने आता है उसको पूरी तन्मयता से निभा कर आगे बढ जाता हूँ। मेरी नज़र में जीवन में आ जाना ही एक गलती है। एक डिवाइयन मजाक है। सब के लिए हो सकता है ये जीवन के तमाशे जीवन मरण का प्रश्न हो जाए मगर मेरा जीवन के तमाशे में कोई दिलचस्पी नहीं जिसके प्रत्येक अध्याय में छल कपट के नए किस्से हो। सबसे खूबसूरत क्षण के पीछे भी मक्कारी दबे पाँव आके दस्तक दे जाती है। सो कोई जीए मरे इस दर्द में भीं जीवन का खोखलापन एक शान्ति सा भर जाता है जीवन में।
कही पढ़ रहा कि मौत क्यों आती है या इसका आना क्यों जरुरी होता है। वो इसलिए कि ज्यादा जीये जाने से लोगो के वफ़ा के पीछे उनके असल स्वार्थ उभर के सामने आ जाते है। सो मरने से ये भ्रम बचा रह जाता है कि अपने कुछ अपने से थें। इससें बेहतर मौत के पक्ष में बात कुछ नहीं हो सकती। मै तो अक्सर मानता हूँ कि मरने का सुविधाजनक रास्ता हो, कोई सम्मानित शास्त्र सम्मत रास्ता हो तो बहुत से लोग ख़ुशी-2 मौत का वरण कर ले। भगत सिंह को जब फांसी की सजा सुनायी गयी तो वो बहुत खुश थे। उसकी एक वजह ये थी कि उन्हें खुशी थी मौत जल्दी आ गयी। जीते रहते थें तो कितने दाग और लग जाते उन पर। कितनी उनके और अवगुण लोगो के सामने प्रकट हो जाते।
देश के कानून भी गज़ब के है। आत्महत्या को जुर्म मानता है। पर उन परिस्थितयों को लगाम लगाने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेता जो किसी को मौत के दरवाजे पर छोड़ जाते है। उनको कोई कसूरवार नहीं ठहराता जिन्होंने किसी को मरने के लिए मजबूर किया। किसी को उकसाना तभी जुर्म बनता है जब तक मामला कोर्ट में ना पहुचे। पर कितने ऐसे केस कोर्ट में पहुचते है। और कितनो को सजा होती है कितने वर्षो में? सही है समाज ही जुर्म करने को मजबूर करता है और समाज ही न्याय का ठेकेदार बन कर सजा देता है। गजब तमाशा है भाई ये।
खैर उन लोगो को जो आग लगा कर तमाशाई बनते है, मेरे मित्र होने का स्वांग करते है और अक्सर मुझसे पूछ लेने की गलती कर बैठते है कि आप लोगो से क्यों कम मिलते जुलते है या कि क्यों उनकी तरह जीवन की तमाम नौटंकी में शामिल क्यों नहीं है तो उनके लिए साहिर की ये पंक्तिया ही काफी है कि
“क्या मिलिए ऐसे लोगो से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे,
नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छुपी रही
खुद से भी जो खुद को छुपाये क्या उनसे पहचान करे,
क्या उनके दामन से लिपटे क्या उनका अरमान करे,
जिनकी आधी नीयत उभरे आधी नीयत छुपी रहे।”
और रहा जिंदगी के तमाशे की बात तो निदा फाज़ली ने इन कुछ लाइनों में जिंदगी की असलियत बयान कर दी है। मेरी नज़र में तो अपनी खूबसूरती से मुझ सीधे सादे मनई (इंसान) के मन को भरमाती जिंदगी का असली चेहरा यही है। और ऐसे जीवन में मेरी दिलचस्पी कभी नहीं हो सकती। हां जीते रहने सा दिखना एक अलग बात है।
“हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी,
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी,
सुबह से शाम तक बोझ ढ़ोता हुआ,
अपनी लाश का खुद मज़ार आदमी,
हर तरफ भागते दौड़ते रास्ते,
हर तरफ आदमी का शिकार आदमी,
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ,
हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी,
जिन्दगी का मुक्कदर सफ़र दर सफ़र,
आखिरी साँस तक बेकरार आदमी”
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