[सर्वप्रथम 03 जुलाई, 2004 वाराणसी/इलाहाबाद से प्रकाशित सम्मानित दैनिक “आज” में प्रकाशित। ये लेख ऑटोमैटिक रूप से प्रयाग की धरती पर भटकती पूर्णता को प्राप्त रूहों से मिलन के बाद लिखा गया था एक दम फटाफट।]
आज का मनुष्य विरोधाभासों का पुतला बन के रह गया है। जिधर भी देखिये आज ऐसे ही मनुष्यों का समूह पायेंगे। तमाम तरह की विरोधाभासी प्रवृत्तियों को इस तरह अपने में समेटे रहते है कि ऐसा लगता है कि व्यंग्य की कृतियों ने मनुष्य का चोला धारण करना आरम्भ कर दिया है। कुछ उदहारण देने से बात समझ में आ जायेगी। आज के अधिकांश राजनैतिक दल जो क्रन्तिकारी परिवर्तनों की बात करते है अगर हम उनको ध्यान से देखे तो पायेंगे कि गली में घूमने वाले टामियों, मोतियों और शेरूओ और इन दलों के बीच का फर्क बिलकुल समाप्त हो गया है। अब इन कुत्तो को देखिये। दूसरी गली में कोई कुत्ता किसी कारण से भौंक रहा हों तो मेरे दरवाजे के पास बैठे काले कुत्ते को भौकना ना जाने किस वजह से अनिवार्य हो जाता है।
फिर तुरंत ही सारे कुत्ते इकट्ठे होकर सामूहिक रूप से अपनी उर्जा समाप्त करके अपनी अपनी जगह लौट जाते है फिर ऐसी किसी प्रक्रिया को क्षणिक विश्राम के बाद दुहराने के लिए। कोई कुत्ता यदि भिन्नता लिए हो या फिर कोई कुत्ता अजनबी गली से आउटसोर्सिंग की वजह से गुजर रहा हो तो वह अन्य कुत्तो की आलोचना का अर्थात “भौकन क्रिया” का शिकार हो जाएगा। वह आगे आगे और अन्य गलियों के काले, भूरे, सफ़ेद, चितकबरे आदि रंग के तमाम कुत्ते उत्तेजक रूप से भौकते उसे गति पकड़ने पर मजबूर कर देंगे। कुछ इसी बीच नई माडल की गाडियों पर टांग उठाते चलेंगे।
आप संसद या विधानसभा की कार्यवाही पर गौर करे तो लगेगा कि आप ये सब पहले कही देख चुके है! बात निवेश की हो या आर्थिक सुधारो की कुछ लोग जो ऊँघते या अनुपस्थित न होंगे तो आप उन्हें हरदम “साम्प्रदायिक सरकार नहीं चलेगी, नहीं चलेगी” या “फ़ासिस्ट हाय-हाय” आपको नियमित रूप से उच्चारित करते हुए मिलेंगे। अब पता नहीं किन अनुभवों के आधार पर आर्थिक सुधारो को साम्प्रदायिकता से जोड़ लेते है ये तो खैर इनकी प्रोग्रेसिव आत्मा ही बता सकती है। और इस उच्चारण को जब और सारे दल सुर में सुर मिलाते है तो वाकआउट नाम का जिन्न प्रकट होता है जो तत्काल सबको एक बराबरी पर ला पटकता है। और इसके बाद कुछ मुद्दों पर इधर-उधर की कह कर अर्थात टांग उठाकर अपने ठिकाने की तरफ बढ़ चलते है। विरोधाभासों के मंच के सशक्त केंद्र बन गए है संसद आदि स्थल।
अपने इलाहाबाद शहर के एक व्यस्त चौराहे पर अखबार की रसीली दुकान है। विरोधाभासों के कई सशक्त हस्ताक्षर यहाँ दिन भर डेरा डाले रहते है। ऐसे ही एक सज्जन कई अखबारों के पन्नो को यूँ ही उल्टा पल्टी करने के बाद टीका टिपण्णी के बाउन्सर फेकने लगते है। एक दिन मुझसे ये बोले हिंदी में जरा आप लिखे तो कुछ बात बने वर्ना अंग्रेजी लेखन के जरिये तो आप कभी राष्ट की चेतना से सम्बन्ध नहीं बना पायेंगे। पता नहीं अंग्रेज़ क्यों अपनी अंग्रेजी कुछ लोगो के हवाले करके चले गए। अपनी मिसाईल दाग कर वो चलते बने। अफ़सोस इस बात का नहीं था कि अंग्रेजी लेखन को निशाना बनाया गया था पर इस बात का था कि अपनी दिमागी जड़ता को राष्ट्र की चेतना के विकास से जोड़ गए। क्योकि मै अच्छी तरह जानता हूँ कि अगर मै इनसे ये कहता कि मुझे हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों से लगाव है तो मुझे ये संस्कृत से जुड़ने की सीख देते, संस्कृत से भी अगर जुड़ा पाते तो फिर ये कहते आप भोजपुरी से क्यों नहीं गठबंधन करते आदि आदि। खैर मै आपको विरोधाभासों के बारे में, विचित्र प्रवृत्तियों के बारे में कुछ बता सा रहा था।
अगले दिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब मैंने इन सज्जन को फेमिना, कास्मोपोलिटन इत्यादि अंग्रेज़ी मैग्जीनों के पन्नो को पलटते देखा। मैंने उनसे कहा कि लगता है आपने अपना पाला पलट लिया है। अभी आप कल ही तो स्वाभिमान वाली बात कर रहे थें। उन्होंने ये सुनकर कहा कि आपको लगता है तो लगे पर मै स्पष्ट कर दूँ कि मै पढ़ नहीं सिर्फ इन्हें सिर्फ देख रहा हूँ। आप की अंग्रेजी पर इतनी पकड़ नहीं तो फिर आप इन्हें देखकर क्या प्राप्त कर रहे है? इस सवाल पर उनका चेहरा तमतमा उठा पर झेंप को छुपाते हुए बोले देखिये निरुत्तर बनकर मुझे अपूर्णता का शिकार तो होना नहीं है। इनके पन्ने पलटने से तो ही मैचोरिटी आती है। संक्षेप में मंत्र इन्होने ये दिया कि राष्ट्र की चेतना का विकास भले हिंदी में लिखने से होता हों पर पूर्णता अंग्रेजी के मैग्जीनों के पलटने से ही आती है।
अगर सेंट्रल लाइब्रेरी में घटी घटना का उल्लेख न करू तो बात अधूरी रह जायेगी। मै वाचनालय में किसी लेख को पढने में पूरी तल्लीनता से रमा हुआ था कि किसी के कदमो की आहट ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। देखा कि एक साहब आदिमकाल के मनुष्यों में पाए जाने वाले गुणों को अभिव्यक्त करते हुए चले आ रहे थें। दुर्भाग्य से ये आके मेरे बगल में खड़े हो गए। आँखे इनकी अभी भी दरवाजे की तरफ ही थी पर इनके हाथो में अंग्रेजी का अखबार आ चुका था। फिर जिस तरह कैशिअर नोटों को गिनता है इन्होने इसी अंदाज़ में पन्नो को तेज़ी सें पलटना आरम्भ किया। केवल मुंह की तरफ हाथ थूंक लगाने के लिए उठता था। कुछ ही सेकेण्ड में भारत का नंबर एक अंग्रेजी का राष्ट्रीय दैनिक अखबार पढ़ा जा चुका था।मुझे इनकी शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। भाई साहब लगता है मैंने आपको पहले कही देखा है। इन्होने मेरी तरफ देखा फिर अटपटे लहजे में पूछा कि आप क्या करते है? इससें पहले कि मै इनसे कुछ कह पाता ये जिस तरह मेरे पास चल के आये थें उसी तरह से ये दरवाजे की तरफ बढ़ चले थें। चलिए ठीक है अब मै किसी जानी पहचानी शक्ल से मिलूँगा तो यही से शुरुआत करूँगा कि आप क्या करते है ? आप की शक्ल कुछ जानी पहचानी रही है। अब तो ठीक है न। शायद मै परिपक्व और पूर्ण हो चला हूँ।
पिक्स क्रेडिट:
गंभीर मुद्दे पर व्यंगातम लहजे में लिखा एक अच्छा और दिलचस्प लेख, पढने के दौरान और पढने के बाद भी मन मुस्कराता ही रहता है, हम चाहे किसी भाषा में लिखे या पढ़े पर सोचते पानी मातृभाषा में ही..
@Rajesh Pandeyji
जिस सहजता का अनुभव हम मातृभाषा में कर सकते है उसकी अनुभूति अन्य किसी भाषा में लेखन के दौरान नहीं हो सकती।। बहरहाल, आपने व्यंग्य पसंद किया इसके लिए आपको धन्यवाद। व्यंग्य और कविता बहुत सशक्त माध्यम है संवेदनाओ को उकेरने के लिए।
Author’s Words For Dharmendra Sharmaji, UAE:
“फिर जिस तरह कैशिअर नोटों को गिनता है इन्होने इसी अंदाज़ में पन्नो को तेज़ी सें पलटना आरम्भ किया। केवल मुंह की तरफ हाथ थूंक लगाने के लिए उठता था। कुछ ही सेकेण्ड में भारत का नंबर एक अंग्रेजी का राष्ट्रीय दैनिक अखबार पढ़ा जा चुका था।”
……….जिस हिस्से को आपने अभी पसंद किया वोही हिस्सा मूल से नेट पे डालते हुए छूट गया था। चलिए किसी ने जो छूट गया था उसको पढ़कर लेख को पूर्ण कर दिया।
धन्यवाद इन सभी को लेख को पूर्ण बनाने के लिए।।
Vishal Sabharwal, New Delhi; Anjeev Pandey, Nagpur(Maharashtra); Ghanshyam Das; Harish Pandey, Mumbai;Ajay Sarwade, Beed,Maharashtra; Manoj Joshi,Udaipur(Rajasthan);Umesh Mishra,Advocate at Allahabad High Court, Uttar Pradesh; Manjoy Laxmi, Nagpur (Maharashtra); Anil Poddar, Zweibrücken, Germany; Nita Pandey, Chennai(Tamil Nadu); Sumeet Sharma, New Delhi and Swami Prabhu Chaitanya, Patna (Bihar).
I have no idea what the blog said, but I sure enjoyed the photograph 🙂
First, I must say, Laurie, that you let me have the glimpse of elevated consciousness..I mean to show such perfect alertness on responding on post, which is beyond your comprehension due to language constraint, speaks volume about your refined consciousness..I have to say so because you make me realize that, at least, few souls are having a look the post in totality. I take great care in selecting relevant pics, which I feel are equally powerful as words in communicating impressions in effective manner-something you realize pretty well. Your remark makes me feel that labour involved in making of post has not gone in vain. After all, Internet world is full of readers who comment in mindless fashion, without going deep into the post! Lastly, my post is all about revealing that how human beings have fallen in love with contradictions: Contradiction, thy name is human being! And, look forward to my another post which has just one pic and it says all..
Words For My Classmate Of School Days, Praveen Singh, Who Always Made Me Laugh In The Class Amid Seriously Boring Lectures 🙂
लगता है सूरज आज पश्चिम से उगा है। ख़ुशी हुई कि इन्टरनेट पे सोयी हुई तुम्हारी रूह जाग्रत हो गयी और ये हास्य लेख सिद्ध हो गया आपके महान लाइकमय कृत्य के बाद। मै उम्मीद करता हूँ कि तुम अपनी रूह को फिर जल्दी जगाओगे 🙂
Chandrapal S Bhasker , United Kingdom, said:
” संक्षेप में मंत्र इन्होने ये दिया कि राष्ट्र की चेतना का विकास भले हिंदी में लिखने से होता हों पर पूर्णता अंग्रेजी के मैग्जीनों के पलटने से ही आती है।” – brilliant!
Author’s Response:
आप जिस लगन से पराये देश में बैठ कर मेरे अंग्रेजी/हिंदी लेख को बड़े जतन से पढ़ कर प्रतिक्रिया देते है बल मिलता है। लगता है दुश्मनों के भीड़ में दोस्त भी है। नहीं तो “दोस्त बन बन के मिले मुझको मिटाने वाले, मैने देखे हैं कई रंग बदलने वाले”. मिलते रहा करिए अपनी बातो के साथ खुशनुमा एहसासों के साथ।
Yamini Tripathi, Bhopal (Madhya Pradesh) said:
Arvind ji, it’s nice and words are the weapon of the writer. And so many writers are reformative and you are also like them. संवेदनायें भी संवेदनशील पर्सन में होती है और कितने लोग है ऐसे?
Author’s Response:
आप बिलकुल सही पटरी पर है।।मतलब सच कह रही है। अपनी संवेदनशीलता के बारे में तो बस यही कहना चाहूँगा कि “नश्तर है मेरे हाथ में कंधों पे मयकदा, लो मैं इलाजे दर्द-ऐ-जिगर ले के आ गया” .और एक बात जो मेरे संज्ञान में आ रही है कि नाम आपका मधुर है। प्राचीन काल में ले जाता है। कैसे कैसे भयंकर नाम सुनने को मिलते है कि कोई इतना मधुर नाम करेले में आम का स्वाद पैदा कर देता है।
Mangesh Waghmare,Ambad,Jalna District in Maharashtra , said:
नामवर लोग कुछ भी करें तो कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती | एक प्रयोग मानते हुए उनकी वाहवाह की जाती हैं |
Author’s Response:
आप सही कह रहे है। इसीलिए दर्शको को और सचेत रहना होगा कि उन्हें क्या परोसा जा रहा है। एक जागरूक दर्शक और लेखक होने के नाते मैंने अपनी बात रख दी। लोग सतही रूप से ये न समझे कि मैंने कभी ये कहा कि यश चोपड़ा बेकार निर्देशक थे। सिर्फ ये कहा कि उन्हें थोडा और जिम्मेदार होना चाहिए था अपने कथानक को लेकर।
Piyush Mehta, Surat (Gujarat) said:
बी आर फिल्मस से जब तक यशजी जुड़े थे, उस समय काल के दौरान भी फिल्म के विषय की पसंदगीमें अहम भूमिका तो बी आर चोपड़ाजी की ही रही थी, चाहे निर्देशन भले ही यशजी ने किया हो । और यह बात इस लिये मन में आ रही है, कि यशजी की फिल्मोमें विषय वैविध्य का अभाव था, जब की बी आर फिल्मस में अपार विषय वैविध्य था । पर अरविन्दजी, आप की बात से सहमत होते हुए भी एक बात पूछना चाहता हूँ कि इस चर्चामें रेडियो कहाँ है ?
Author’s Response:
पीयूष जी बहुत दिनों के बाद कुछ कहने के लिए धन्यवाद। चलिए आप जैसे चेतन “श्रोता” ने लेख को पढ़ा। सही पूँछ रहे है रेडियो वाले फोरम में इस लेख में रेडियो कहा है। अरे फिल्मो की बात हो तो रेडियो भले न मौजूद हो प्रत्यक्ष रूप में लेकिन अदृश्य रूप से मौजूद निश्चित रहता है। और हम क्यों न ये माने जैसे चर्चा रेडियो पर हो रही हो 😛 मामला गंभीर है पर है तो सिनेमा से जुड़ा ना ?
Sachchida Nand Pandey:
Lajwab sir kya bat hai,hindi ke is abhuthhan me mai sadaiv bhagidar rahunga….
Author’s Response:
हां तभी तो हिंदी समृद्ध होगी फेमिना के बीच से निकलकर।।