किसी ने सही कहा है वे पिता कम ही होते है जो अपने बच्चो को सही सही समझ पाते है. ज्यादातर बच्चे अपने पिता से नहीं उलझते क्योकि उनमे और पिता के सोच में भेद नहीं होता. जो व्यावहारिक ज्ञान पिता देना चाहते है संसार में सफलता प्राप्त करने के वास्ते बच्चे पिता के उसी ज्ञान को ग्रहण करते है बिना किसी के प्रतिरोध के क्योकि उनमे भी संसारिकता कूट कूट कर भरी होती है. लिहाज़ा तकरार की संभावना कम होती है.माता पिता बच्चो को धूर्त बनाना चाहते है और बच्चे बनते है क्योकि समाज ही ऐसा है जहा धूर्तता आवश्यक है समाज में आगे बढ़ने के लिए. सामने वाले का गला काट दो और उफ भी ना करो इस तरह की निर्ममता का सम्प्रेषण अक्सर माता-पिता और बच्चो के बीच होता है. इसलिए आप देखेंगे कि समाज में विषमता बढ़ी है. समाज और क्रूर और निष्ठुर हुआ है. संवेदनशीलता और घटी है.
बिडम्बना ये है कि हर माता पिता चाहते है कि समाज बच्चो के लिए जो उनका भविष्य है थोडा सा बेहतर बने पर अपने जीवन में इस सोच को उतार नहीं पाते है. शायद माया के प्रभाव में वे ये समझ नहीं पाते है कि जब आप बबुल बो देते है तो आम होने की संभावना बिल्कुल ख़त्म हो जाती है. ऐसा नहीं कि वे बच्चो को दी गयी गलत शिक्षा का, व्यावहारिकता के नाम पर, का दुष्परिणाम नहीं भोगते. बिल्कुल भोगते है पर तब तक देर बहुत हो चुकी होती है और इसके साथ ही एक दूसरी पीढ़ी उन्ही गलत बात को सत्य मानकर तैयार हो चुकी होती है. लिहाज़ा पिता और पुत्रो के बीच ये व्यावहारिक ज्ञान का आदान प्रदान चलता रहता है. और साथ में चलता रहता है ये विधवा विलाप कि बच्चे हमारी सुनते नहीं. हमने इतना किया और आज हमारा ही तिरस्कार करके बुढापे में अकेला छोड़ गए. ये ड्रामेबाजी भी साथ में चलती रहती है. ये भूल जाते है कि बच्चा पेट से सीखकर नहीं आता. ठीक है कुछ अच्छे बुरे संस्कार लेकर आता है पेट से पर उनका शोधन हो सकता था अगर वाकई माता पिता उन्हें बेहतर शिक्षा देते बेहतर शिक्षा के नाम पर.
लेकिन हम उन्हें मक्कार बनाने की शिक्षा देते है ताकि वे इस सड़े गले समाज में उनके द्वारा स्थापित परिपाटी पर आसानी से चल सके. जो नहीं चल पाते इनसे उनका छत्तीस का आकंडा होता है लेकिन ये अपवाद ही होते है. ज्यादातर बच्चे उसी सांचे में ढलते है जो उनको विरासत में मिलता है. ये अलग बात है कि जो आग ये लगाते है अंत में उसी में झुलस जाते है लेकिन इसके बावजूद ये ड्रामा पीढ़ी डर पीढ़ी चलता रहता है. अंत में ऐसे माता पिता अलग धलग पड़ जाते है. वक्त के साथ पिटे हुए मोहरे होकर अलग कटते कटते तमाम शिकवो शिकायतों के साथ ये इस दुनिया से से चले जाते है. शिकायत मसलन बच्चो ने इस बुढापे में उनको बिल्कुल अकेला छोड़ दिया. ये बताते वक्त वे भूल जाते है कि इन्होने ही आखिर संतानों को समझाया कि मानवीय रिश्तो से बड़े पैसे कमाने की कला होती है. सो अब किस बात की आपत्ति कि जब बच्चो ने इस कला में पारंगत होकर आपको सम्मान देना जरूरी नहीं समझा.
खैर अपवाद की बाते करे. वे संताने जो पिता के व्यावहारिक ज्ञान को नकारते हुए समाज को कुछ बेहतर देने का प्रयास करते है वे खुद समाज और पिताओ की नज़र में सबसे बड़े निकम्मे और कामचोर होते है. ऐसा आज से नहीं अनादि काल से है. आप को अक्सर वहा कांफ्लिक्ट देखने को मिलेगा जहा पर जरा संताने अपने पिता से हट के सोच रखती है. ऐसी संतानों को समाज और पिता दोनों की नज़रो में गिरना पड़ता है क्योकि वे समाज के गंदे समीकरणों को ध्वस्त करके आगे बढ़ते है. मेरा तो यही कहना है पिताओं से कि संतानों पे अपना पुराना पड़ चुका ज्ञान और इच्छाएं ना थोपे. उन्हें अपने निर्णय खुद लेने दे. अगर वे गलत है प्रकृति उन्हें सही रास्ते पे स्वयं ला देंगी. आप उन्हें बस अपना रास्ता स्वयं बनाने में सहायता देते चले. वैसे ओशो की बात में इस बात का जवाब छुपा है कि समाज बदलता क्यों नहीं.
अब तुम इनको पारंगत करोगे राजनीति में,
चालाक बनाओगे, बेईमान बनाओगे।
और फिर तुम बड़ी हैरानी की बातें करते हो बाद में।
जब पढ़ा-लिखा आदमी बेईमान हो जाता है,
तुम कहते हो यह कैसी शिक्षा है!
पूरी बीस-पच्चीस वर्ष की उम्र तक
तुम व्यक्ति को बेईमान होने की शिक्षा देते हो।
फिर जब वह आ कर जेबें काटने लगता है
और बेईमानी करने लगता है, धोखाधड़ी करता है,
तो तुम कहते हो यह मामला क्या है?
इससे तो गैर-पढ़े-लिखे बेहतर थे,
कम से कम बेईमान तो न थे।
गैर पढ़ा-लिखा बेईमान हो भी नहीं सकता;
बेईमानी के लिए कुशलता चाहिए।
पकड़ा जाएगा अगर जरा बेईमानी की।
उसके लिए थोड़ी कारीगरी चाहिए।
उसके लिए विश्वविद्यालय का सर्टिफिकेट चाहिए।” (ओशो)
Thanks To Vijay Singh, Ministry of defence – Kuwait Navy, Kuwait; Sudhir Dwivedi,New Delhi; Lalita Jha(New Delhi); Jagdish Rana, Chandigarh (Punjab); Vinay Malpaniji Manasa (Madhya Pradesh) and Sc Mudgal , New Delhi, for liking the post..
Thanks 7theaven Manipal ( Karnataka) for liking it…
Lalita Jha, New Delhi, said:
Parents never teach cunningness n shrewedness to their siblings , but the get it through their immediate sourroundings….
Author’s Response:
Prakat roop se nahi to aprakat roop se to yahi chahte hai.
Lalita Jha, New Delhi, said:
भारत में मातृत्व – व् पित्र दिवस की कोई अवस्क्यता नही है , क्योंकि माता-पिता दोनों के सहज रूप से प्यार ,दुलार बच्चो को सहेज ही मिलता है और रहेगा क्योंकि यहाँ परिवार नामक संस्था अभी भी बहुत ही सुदृढा है !..
Author’s Response:
आप की बात अपनी जगह पे बिल्कुल सही है पर मेरी पोस्ट फादर्स डे पर ना होकर किस तरह मानवीय सम्बन्ध आज जटिल हो चले है इस पर है. फादर्स डे तो सिर्फ माध्यम बना इस बात को कहने का…
Ajay Karna, Kathmandu (Nepal) said:
Harek parents of apni bachon ko sahi tarike se samajhni chahiye..
Author’s Response:
Sirf bachho ko janm dena, unka paalan poshan karna hi kaafi nahi…Unko aap samjhe bhi to ki we kya hai aur kya chahte hai..
Anjeev Pandey, Nagpur (Maharashtra) said:
Bhai, Arvind K Pandey ji, Saal mei ek din to ham pitao ko baksh dijiye… baaki samay to ma ki hi charcha rahti hai. smile.
Author’s Response:
Baksh hi diya samajhiye ..Kyoki mera irada unhe post ke jariye aahat karne ka nahi varan unhe apne role ke mahttva ko samjhaana bhar tha..Lekh ka Mool tattva prerana deta hai avasaad nahi..Is baat ka ehsaas aapko bhi hai..
Bernard Chapin said
I agree….
Author’s Response:
Thanks Bernard Chapin for agreeing.
Thanks Aoirthoir An Broc Masculinist; Swami Prabhu Chaitanyaji, Patna (Bihar); Vishal Sabharwalji, New Delhi; Pankaj Joshi, New Delhi; Ratan K Dhomeja; Pankaj S Pandey: Sharad Barthwal, Garhwal (Uttarakhand); Shashikant R Pandeyji, Ahmedabad (Gujarat), Sanjay Sawdeshji and Bijay Sakshibodh, Bhagalpur(Bihar) for liking the article..
Jogeshwar Mahanta said:
Ek baat un santaano se jo apne maataa/pitaaonko nahin samajhate.
The maintenance and welfare of parents and senior citizens’ act,2007
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Author’s Response:
Are Sahab Ye Act Isiliye Aaya Kyoki Mata Pita Ne Apni Santano Ko Shuru Me Sahi Siksha Nahi Di..ha..ha..ha
Vijay Tiwari:
समाज को बदलने के लिये किसी अभियान की जरुरत नहीं है.एक एक इंसान आंखे खोल कर देख ले की हम क्या चाहते है और क्या हो रहें है कारण दिख जाये तो परिवर्तन भी आ जाएगा.पहले पिता से बेटे डरते थे.सम्मान का भाव था.आज बेटो से पिता डर रहे है.समाज से पहले परिवर्तन घर मे जरुरी है.
Author’s Response:
आपकी बात से मै शत प्रतिशत सहमत हूँ पर एक महसूस करने वाला बदलाव सार्थक पहल से ही आता है..अगर माता पिता अपने स्तर से ही सचेत हो जाए तब भी समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है..
Many thanks to them as well: Ved Prakash Pandeyji, Amit Pandey, Poona (Maharashtra); Rekha Pandey, Mumbai (Maharashtra);
Awadhesh Sinha , Begusarai (Bihar); Anupam Verma, New Delhi; Baijnath Pandey,Associate Editor at InstaMedia, New Delhi; Ravi Hooda, Canada; Pitamabari ji, New Delhi and Dinesh Pd Sinha, Patna (Bihar).
Pandeyji,
I appreciate and endorse your views. Thanks for expressing these views which may termed by many as outdated but it as outdated as Bhagwatgeeta.
Thanks Thakurji for your heartfelt observations. Just like to point out that truth never becomes outdated. The moment we ignore the reality,we get trapped in unspeakable problems. The only thing that I am aware of is that I have penned my thoughts quite honestly. Whether a reader treats them as ancient or modern, considers them relevant or irrelevant, is something I am not really concerned about.
Anyway, keep visiting..
आपका आलेख बहुत अच्छा है ..हर पीढ़ी में जनरेशन गैप होना बहुत ही सहज और नैसर्गिक बात है , क्योकि माता-पिता बच्चो को शुरू से ही , बचपन से ही जब बड़ा करते है , पालन -पोषण करते है तो उनके मस्तिष्क में एक ही बात दाल देते है की हम जो कर रहे है वह हमारा कर्तव्य है और जब तुम बड़े हो जाओगे और हम बूढ़े , तब हमारी देखभाल और सेवा करना तुम्हारा कर्तव्य है …, इस प्रकार जो रिश्ता प्रेम का होना चाहिए उस पर पर कही न कही जाने -अनजाने ‘ कर्तव्य ‘ हावी हो जाता है , और यह कर्तव्य को पूरा करने का हर -एक का अपना नजरिया होता है , कोई इसमे प्रेम भी मिला देता है तो कोई मात्र कर्तव्य ही पूरा करता है , इसलिए मातापिता और बच्चो के बीच दुरिया बढती जाती है , अपेक्षा भी सबसे महत्वपूर्ण और बड़ा कारण है , बच्चो की अपेक्षा रहती है , पढ़-लिख कर ऊँची उड़ान भरने की और माता-पिता की उम्मीद यह रहती है की वो हमारे पास रहे …, इसलिए कई बार टकराव और द्वंद्व निर्माण होते है ….
@Rashmi Pranay Wgle
रश्मि जी आपकी इस सुलझी हुई प्रतिक्रिया को पढ़कर एहसास हुआ कि नेट की दुनिया में भी जागरूक पाठको की कमी नहीं..खैर मुझे ये कहना है कि ” टकराव और द्वंद्व ” का निर्माण का जितना जिम्मेदार ये जेनेरेशन गैप है उससें कही ज्यादा जिम्मेदार माता पिता का अप्प्रोच है बच्चो को बड़ा करते वक्त..आप ना सिर्फ उन्हें अपने अहम् का विस्तार मात्र बना डालते है वरन उन्हें गलत मूल्यों की एक विरासत भी छोड़ जाते है..और फिर आप ही घडो आसूं बहाते है कि साहब ऐसा नहीं हुआ तो वैसा नहीं हुआ..
हीरेन्द्र रमन,सरकारी अध्यापक, बहराइच (उत्त्तर प्रदेश) :
बहुत सच्ची और कड़वी बात कही है आपने उनके लिए, जो झूठी आदर्शवादिता मे जीते है और समाज को आदर्श होने का ढोंग दिखते हैं । आपकी नेक सलाह के लिए मैं आपको बहुत धन्यवाद देना चाहता हूँ क्योंकि आप समस्या उठा कर उसे एक हल तक ले गए , बाकियों की तरह बीच मे नहीं छोड़ा ।
Author’s Response:
आपके वचनों से ये समझ में आया कि लिखना सार्थक रहा ..ऐसी विकट समस्यायों का “फटाफट” टाइप का कोई समाधान ढूदना आसान नहीं होता..यहाँ पे मनन करने पे जो समाधान सामने उभर कर आया वो यथावत यहाँ रख दिया..आपने सराहा तो लगा समाधान का प्रारूप ठीक ही तैयार हो गया..अंत में आपको पुनः स्मरण करना चाहूँगा ऐसी समस्याओं का कोई सर्वमान्य हल नहीं हो सकता और ना ही त्वरित रूप से विचारने पर कोई हल निकल सकता है..हर आदमी स्वयं गहन चिंतन करे तो जिस भूमि से समस्या पनपती है उसी से समाधान भी प्रकट होते है. पर हम तो गहन चिंतन से दूर भागते है तो हल से साक्षात्कार कैसे हो!!
वैसे हिरेन जी प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद…