Need Of The Hour: Saving Asian Nations From The Environmental Crisis!!
The environmental crisis has made its impact felt in almost all major Asian nations. Ironically, the huge destruction caused to the ecological balance is being justified in name of ensuring developmental progress. For instance, a recent report published by Delhi-based non-profit, Centre for Science and Environment (CSE) suggests that ” diversion of forestland in India during period 2007 to 2011 was 25 per cent of all forestland diverted for development projects in the past thirty years”. Such mindless progress has not only ensured elimination of flora and fauna but also ensured a dangerous repercussions for human lives. One reason why nations like Japan and India have given way to Tsunamis is that disturbing happenings on earth’s surface have led to rise of vulgar seismic activities inside the Earth commonly referred as Earth’s crustal deformation.
The worse part of the whole affair is that governments in various Asian countries have not become fully alert to the threats posed by the man’s greed. Look how the government has dealt with Ganga Action Plan started (GAP) in 1985. This landmark project started to block the flow of sewage into the river has failed to create better results despite having spent millions in all these years since its inception. We can still notice that sewage water at Kanpur or Allahabad still manages to mix with waters of Ganges all because industrial units have managed to bypass the laws by bribing the officials.
Well, it’s really pathetic that nations like India are so eager to present an image of being a developed nation and can spent millions to organize Commonwealth Games but the same government ensured that Yamuna dies a slow death. Now this river has virtually turned into nallah at Delhi, having more dirty waters than one finds in a nallah!!!
The situation in neighbouring nations like China or Japan is no better. China owns infamous record of having some of the most polluted cities in world. It’s quiet a huge challenge for this nation to ensure that environmentally sustainable growth rate does not become an impossible task. One is unaware about the exact picture of environmental crisis in this nation due to censorship of the news but water shortage and water pollution besides loss of huge grasslands are some of the key problems there. Like any developing nations to ensure industrial progress China has utterly failed to acknowledge “scale and scope of pollution”. On top of it, the nations like India and China are struggling hard to control carbon emission to keep it within the limits and are, in fact, constant conflict with U.S. and other nations.
Now the problem is that United States which is responsible for releasing huge amounts of carbon dioxide emissions wants that Asian countries should slow their development but at the same time America is not interested in following an unambiguous approach in this regard itself. As a result global warming is increasing leading to serious environmental disasters.
One of them is melting of thousands of glaciers located in the Himalayan region. No need to imagine that water shortage will be at its peak in South Asian regions once these glaciers become out of sight. As per reports, ” disquieting pattern of glacial retreat across the Himalayas ” has ensured ” 20 percent reduction in size from 1962 to 2001″. The recent reports also confirm that when glaciers melt the ” stresses in the crust locally, near the place with ice cover” also increases leading to possibility of earthquakes.
Well, it’s time for the Asian giants to ensure that future generations do not pay heavy price for misdeeds of present generation. It’s time to save our flora and fauna. Let’s remember that if our ancestors worshiped trees, mountains and rivers they did so quiet consciously. We need to be in league with same wisdom if we are at all seriously interested in having better days.
References:
Centre for Science and Environment
Wiki Reports
Pic Credit:
एक प्रमाण: हम आज के संगीत के दुश्मन नहीं है
एक बात जो गाहे बगाहे हर उस चर्चा में थोपने की कोशिश की गयी जिसमे मैंने ये बताया कि गोल्डन एरा के गीत ही असली संगीत के श्रेणि में आते है और आज के शोर को हम संगीत नहीं कह सकते और जो ( थोपना ) सफल नहीं हुई वो ये थी कि साहब हम आज के गानों के दुश्मन है या कि आज भी बहुत अच्छा संगीत बनता है पर हम है कि इसको संज्ञान में लेते ही नहीं..
ऐसा नहीं है ये तो मैंने हर बार बता ही दिया पर लीजिये एक प्रमाण के रूप में आज के हिंदी फ़िल्म जगत से ( गैर फिल्मी अल्बम से नहीं) कुल पांच गीतों की लिस्ट दे रहा हूँ…जरुरी नहीं आप भी इन्हें पसंद करते हो पर मै इन्हें पसंद करता हूँ. ..मुख्यत इस बात को दर्शाने के लिए पेश कर रहा हूँ कि अगर कुछ अच्छे गीत बन रहे है तो मेरे कानो से घुसकर वो दिल में दर्ज हो जाते है..
१. झटक कर जुल्फ ( आरक्षण )
2. काश यूँ होता हर शाम साथ तू होता ( मर्डर 2)
३. तेरी मेरी प्रेम कहानी (बाडीगार्ड)
4. दिल ये मेरा शोर करे ( काइट्स )
5. I want to get closer to you…( कार्तिक काल्लिंग कार्तिक)
( सागर साहब (Sagar Nahar) कन्फुज़ियायें नहीं ये हिंदी गीत है..सुने धुन अगर कापी नहीं किसी विदेशी गीत की तो बहुत अच्छी है 🙂 ..ये सागर साहब को खास समर्पित है हिंदी गीत जो अंग्रेजी में है 🙂 ..मुझे बहुत पसंद है 🙂
Pic Credit:
एक सार्थक संगीत चर्चा के झरोखे से: हम क्यों आज के शोर को संगीत समझे ?
[ पाठको से अनुरोध है कि इस लेख को बेहतर समझने के लिए इस चर्चा को अवश्य देखे जो कि इस लेख पे हुई है श्रोता बिरादरी पर : की बोर्ड पे बोल फिट कर गीत रचने वाले ये आज के बेचारे संगीतकार. इस लेख के कमेन्ट बॉक्स में चर्चा को डाल दिया गया है. यदि उसे पढ़कर इस लेख को पढेंगे तो ज्यादा आनंद आएगा ]
****************************
इस बात को देख के मुझे बहुत हर्ष हो रहा है कि जिस स्तर कि ये चर्चा हो रही है वो बहुत दुर्लभ है. दिलीपजी की जितनी भी प्रसंशा की जाए वो कम है क्योकि मुझे लगता है कि वो ना सिर्फ समस्या क्या है उसको समझ रहे है या उसको बहुत इमानदारी से समझने की कोशिश कर रहे है बल्कि नए नए तथ्यों के साथ और नए एंगल से चीजों को समझा रहे है. मै कुछ नयी बातें कहूँ इसके पहले जो कुछ बाते कही गयी है उनको समेटते हुए कुछ कहना चाहूँगा. सजीव सारथी जी की बातो को संज्ञान में लेना चाहूँगा. सजीवजी आप बेहद अनुभवी है और आपकी समझ की मै दाद देता हूँ. आप बहुत नज़दीक से संगीत जगत में हो रहे बदलाव को नोटिस कर रहे है. लिहाजा आपकी बात को इग्नोर करना या फिर इसके वजन को कम करके तोलना किसी अपराध से कम नहीं और मै तो इस अपराध को करने से रहा. बल्कि मै तो खुश हूँ इस बात से कि आपने कितने गंभीरता से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है. मै चूँकि किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य में व्यस्त था लिहाज़ा कमेन्ट कर नहीं पाया पर रस बहुत ले रहा था आप के, दिलीपजी, अरुणजी और संजयजी की बातो का. मै कुछ बातो को अपने स्टाइल से कहूँगा जो सरसरी तौर से देखने वालो को ऊँगली करना लग सकता है पर यदि आप मनन करे तो उसके छुपे आयाम आपको नज़र आ सकते है. कृपया सम्मानित सदस्य इसे एक हेअल्थी रेजोएँडर (healthy rejoinder) के ही रूप में ग्रहण करे और चूँकि आप लोग बेहद काबिल है संगीत के सूक्ष्म पहलुओं को ग्रहण करने में तो उम्मीद करता हूँ कि इन बातो को सही आँख से देखने की कोशिश करेंगे..
सजीवजी आपकी कुछ बातो की तरफ आपका ध्यान खीचना चाहूँगा. एक बात तो संगीत के विविधता के सन्दर्भ में है और वो ये है कि ” उस आलेख से आप वाह वाही लूट सकते हैं पर समय के साथ हमारे संगीत में आ रही विविधताओं पर भी कुछ लिखिए “. देखिये साहब हम बहुत युवा है इतने उम्रदराज़ नहीं हुएँ है कि आज के बदलाव से बेखबर पुराने काल में नोस्टैल्जिया से ग्रस्त होकर भटक रहे है. ऐसा कुछ है नहीं और ना ही ऐसा है कि मार्क्सवादी विचारको की तरह विशुद्ध बौद्धिक बकैती करके ध्यान खीचना या वाह वाही लूटना है. काहे कि ईश्वर की कृपा से दुनियाभर के अति सम्मानित पत्र पत्रिकाओ में, प्रतिष्ठित वेबसाइट्स पर मेरे आलेख छपे है विभिन्न विषयो पे और इतनी प्रसंशा मिली [धन नहीं 🙂 ] कि ना अपनी प्रसंशा सुनने का मन होता है और ना सिर्फ बात कहने के खातिर बात करने का मन करता है…Enough is enough ,at least, in this regard. मै कोई बात तभी कहता हूँ जब लगता है कि कहना बहुत जरूरी हो गया है. मै कोई सर्वज्ञ नहीं पर मेरी भरसक कोशिश यही रहती है कि जितने भी दृष्टिकोण या बदलाव मेरे सामने हो रहे मान लीजिये संगीत के क्षेत्र में ही उनको समझने या आत्मसात करने की पूरी कोशिश करता हूँ . यही देख लीजिये कि आप लोगो अभी इतने सारे अनछुए पहलुओं पर इतने विस्तार से प्रकाश डाला..
बहरहाल संजयजी हम मर्ज़ को बताते है अभी. ठहरिये जरा सा. मुद्दा ये है कि आज के गीतों में इतना सतहीपना क्यों आ गया है गीत ना सिर्फ बेसुरे, कानफोडू है बल्कि संगीत के साथ बलात्कार भी है. कुछ अच्छा हो रहा है या कुछ यूथ कैसे भी हो पीछे का संगीत एन्जॉय कर रहे है , कुछ नए प्रयोग कर रहे है ये सब ठीक है पर क्या ये पर्याप्त है कि हम आँख मूँद कर उपेक्षा कर दे जो संगीत के नाम पे शोर मच रहा है ? ये संगीत कि ध्वनी कैसे उत्पन्न हो रही और क्या नए एफ्फेक्ट पैदा हो रहे है ये संगीत के शास्त्रीय जानकारों को भा सकता है पर जरा आम धारणा पे भी तो जाए. जिनके लिए संगीत बन रहा है उनमे क्या सन्देश है. हमारा क्या एक बड़ा तबका इन सतही सिंथेसाईज़र के नोट्स से उत्पन्न गीतों को अपना रहा है कि नहीं ? सीधा सा जवाब है नहीं. दिलीपजी ने इस बात को बात को समझा है और तभी वो मूल वाद्यों के उपयोग पर बल दे रहे है..
इस भ्रम को ना पाले कि माडर्न बीट्स कोई बहुत लोकप्रिय है. तकलीफ ये है कि इन्हें हमारे अन्दर ठूसा जा रहा है बदलाव के नाम पर.. संजयजी ने मर्ज को ना समझने कि बात को कह के कम से कम ये रास्ता खोल दिया कि हम पहले उस गणित को समझे जिसके चलते तहत ए आर रहमान के एक बेहद औसत दर्जे गीत को आस्कर दे दिया गया है ? ये पूंजीवादी संस्कृति की गहरी चाल है कि किसी भी देश कि मूल संस्कृति से काट कर उस को परोसो जो कि ग्लोबल है. नतीजा ये हुआ कि मैनहैटन से लेकर मुंबई तक एक ही तरह का बीट्स वाला संगीत हावी हो गया. नतीजा ये हुआ कि रहमान के औसत दर्जे के संगीत को या इनके ही समकक्ष और भी फूहड़ संगीतकारों के गीतों को जबरदस्ती ग्लोबल का नाम देके प्रमोट किया जाने लगा. ठीक है रोजा में ठीक संगीत दिया या बॉम्बे में अच्छा संगीत दिया पर ए आर रहमान नब्बे के दशक के खत्म होते होते ही “मोनोटोनस” (monotonous) का खिताब पा चुके थे और आश्चर्य है कि यही ऑस्कर कि श्रेणि में जा पहुंचे वो भी ” जय हो ” के लिए !!! इसका कारण आप समझने कि इमानदारी से कोशिश करेंगे तो ही समझ पायेंगे कि गीत इतने बेसुरे क्यों बन रहे है ?
बात साफ़ है कि जहा पहले फ़िल्म संगीत के मूल में भारतीय संगीत की आत्मा बसती थी वहा पे वेस्टर्न संगीत के तत्त्व आ गए बदलाव के नाम पे . ऐसा करने से पहले ऍम टीवी के जरिए हमारे यूथ्स को ऐसा बना दिया गया की वो बीट्स आधारित संगीत को ही असली समझे पैव्लोव के कुत्ते की तरह. पहले जहा गीत फ़िल्म के थीम को ध्यान में रखकर बनते थे. हफ्तों या महीनो लग जाते थे धुन बनाने में और फिर उतनी ही लगन से गीत में अर्थपूर्ण शव्द आते थे.. इन दोनों के बेजोड़ संस्करण से एक मधुर गीत का जन्म होता था. आज ठीक उल्टा है.. आज पहले ये देखा जाता है कि क्या बिक सकता है. कहा कहा म्यूजिक के राइट्स डिस्ट्रीबुउट हो सकते है. इनका आकलन करने के बात ही गीत संगीत बन पता है. मै पूछना चाहूँगा कि क्या शंकर जयकिशन, खैय्याम या कल्यानजी आनंदजी भी इसी प्रोसेस को ध्यान में रखकर संगीत रचते थे? क्या पूर्व में यही एक पैमाना था संगीत को रचने का ?
सजीवजी ठीक है हम कॉन्सर्ट में जाकर मूल वाद्यों या अपनी पसंद का संगीत सुन सकते है या वो जमाना नहीं रहा कि तमाम साजिंदों को इकठ्ठा करके सुर निकले तो क्या हम इनके आभाव में ठूसा जा रहा है उसको चुप मार के निगल ले ? कहा जाता है कि भारतीय संगीत में वो जान होती है कि रोग भाग जाते है या फिर दीपक जल उठता है और तकरीबन यही जान “हीलिंग एफ्फेक्ट” के सन्दर्भ में पुराने फिल्मी गीतों में भी होती थी. क्या आज के शोरनुमा फिल्मी गीत भी इसी “हीलिंग एफ्फेक्ट” का दावा कर सकते है ? वो इसलिए नहीं कर सकते क्योकि वे आपको शांति या ख़ुशी देने के लिए नहीं वरन पैसो की झंकार से लय बनाने के लिए बने है. आपने कभी गौर किया आपने कोई अच्छी धुन की तारीफ की ये सोचकर बहुत बढ़िया बना है फिर पता चलता है अरे ये तो मूल स्पैनिश गीत की नक़ल है. अरे ये तो फला गीत की नक़ल है इंसपिरेशन के नाम पे. तो ये तमाशा होता है गीत रचने के नाम पे.
सजीवजी अच्छा अब भी हो रहा है और हो सकता है इससें किसे इंकार है. उसकी हम भी तारीफ करते है. ये भी महसूस होता है कि सिंथेसाईज़र के नोट्स इतने प्रचलन में आ चुके है कि अतीत के गोल्डन एरा को याद करना और उसके फिर से आ जाने कि उम्मीद करना बहुत ठीक नहीं. क्योकि बदलाव फिर आखिर बदलाव है. पर मुद्दा ये नहीं है. मुद्दा ये है कि हम इस बदलाव को और विकृत होने से ना रोके? वे कोशिशे करना भी बंद कर दे जिनसे कि उन तत्त्वों की वापसी की संभावना बन सके जो कभी भारतीय संगीत की जान हुआ करते थे. एक संयमित मिलन हो पूरब का पश्चिम से मुझे परहेज़ नहीं पर नकली को ही असली बताना इससें मुझे सख्त ऐतराज़ है. कम से कम मै तो अपनी आपत्ति सख्त रूप से दर्ज करूंगा भले मै अकेला ही क्यों ना हूँ.
उम्मीद करता हू की संजय वर्मा जी को अब थोडा आसानी होगी ये समझने में कि माजरा क्या है. अंत में सजीव सारथी , दिलीप जी, अरुण सेठी जी, संजय वर्मा, प्रभु चैतन्यजी और मंगेश्जी और सागर जी को विशेष धन्यवाद कि मुझे चिंतन करने का नया आधार दिया. आशा है कि थोडा सा अंदाज़ में जो तल्खी आ जाती है इसको इग्नोर करके जो बातो का मूल सार है उसी को ध्यान में रख के आप मेरे लेख पर नज़र डालेंगे. आप सब संगीत को परखने वाले लोग है सो किसी को कम बेसी करके आंकने का मेरा कोई इरादा नहीं और ना भविष्य में होगा. बात संगीत से शुरू होके संगीत पे खत्म होनी चाहिए संगीत की बेहतरी के लिए यही मेरा एकमेव लक्ष्य रहता है हर बार. उम्मीद है आप इसको महसूस करेंगे मेरे अंदाज़ के तीखेपन से ऊपर उठकर.
संगीतकार : रवि
गीतकार: साहिर
गायक: महेंद्र कपूर
Pic One: Pic one
की बोर्ड पे बोल फिट कर गीत रचने वाले ये आज के बेचारे संगीतकार!!!
मै कोई बीते युग के मोंह में डूबकर विचरण भटकने वाला जीव नहीं हूँ पर क्या हम उन गुणी संगीतकारों के रचनाओं की उपेक्षा कर दे जो पूरी तरह डूब कर गीत का निर्माण करते थे ? उस समय के गीत आज भी उतने प्रासंगिक है तो उसकी वजह यही है कि ये बड़ी लगन से संगीत के तत्त्वों में घोल कर बनाया गए हुए गीत है. शायद यही वजह है कि या तो पुराने गीतों के रीमिक्स तैयार हो रहे है नहीं तो या फिर ” अपनी तो जैसे तैसे ” या “ दम मारो दम ” जैसे पुराने लोकप्रिय गीतों को नए अंदाज़ में पेश किया जा रहा है. ये है आज की क्रेअटिविटी. अब ” आधा है चन्द्रमा रात आधी ” (नवरंग ) या ” जवाँ है मोहब्बत ” (अनमोल घडी ) या फिर ” ना ये चाँद होंगा ” (शर्त ) या “ पिया ऐसे जिया में समय गयो रे ” ( साहब बीवी और ग़ुलाम) जैसे सदाबहार दिल और दिमाग को भावविभोर कर देने वाले गीतों को बना देने की काबिलियत तो इन की बोर्ड से ध्वनी उत्पन्न करने वालो में आने से रही.
बात मै शैलेन्द्र सिंह पर ही खत्म करूँगा. इन्होने बहुत अच्छे गीत हमे दिए और इनको ऋषि कपूर की आवाज़ माना जाता रहा है. बॉबी के गीत “मै शायर तो नहीं” से उनको जो सफलता मिली उसके बाद इन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा. तो क्यों ना यही गीत सुने जो कि सत्तर के दशक के नौजवान अपनी प्रेमिकाओ को इम्प्रेस करने के लिए गाते थे और नब्बे के दशक के भी नौजवान यही गीत गाते थे इम्प्रेस करने के लिए बाइक पे बैठकर आइस क्रीम पार्लर की राह देखने वाली प्रेमिकाओ के लिए!!!
पिक्स क्रेडिट: पिक वन
RECENT COMMENTS