इसे अच्छी तरह समझे कि नारीवाद का पक्ष-विपक्ष समझना या पुरुष के अधिकारों की चर्चा करना स्त्री या उसके जायज अधिकारों का विरोध नहीं है !!!
मेरे पिछले post पे प्रबुद्धजनो ने बहुत कुछ चिंतन मनन किया. काफी कुछ समझ में आया. कुछ बाते साफ़ हुई और कुछ एक बातो का स्पष्टीकरण मै देना उचित समझता हू इतनी सारी बाते सुनने के बाद. यद्यपि ये सब बाते मै किसी ना किसी रूप में इसी पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में पोस्ट कर चुका हूँ पर लगा कि इन्हें एक नए पोस्ट का शक्ल दे देने से शायद बात दूर तक जायेगी. एक बात तो स्पष्ट है कि जैसे ही आप नारीवादी या नारियो के बदलते स्वरूप पर चर्च शुरू करते है आपको नारी विरोधी मान लिया जाता है. पता नहीं इस तरह का सरलीकरण क्यों कर लिया जाता है ? नारी अधिकारों की जब जब बात होती है तो उसे स्त्रियो को आगे बढ़ाने के सन्दर्भ में होता है और उनका उनको हक़ दिलाने के सन्दर्भ में ही ऐसी बातो को देखा जाता है. तो ये नहीं समझ में आता है कि पुरुष के अधिकारों के बारे में बात करना कैसे स्त्री विरोधी हो गया जब स्त्री अधिकारों के बारे में बात करना पुरुष विरोध नहीं है तो ? दूसरी बात ये है कि किसी भी आन्दोलन या विचारधारा के पक्ष विपक्ष दोनों पहलुओ पे विचार करना क्या गलत है ? अगर आज हम नारीवाद के स्याह पक्ष या विकृत पक्ष को व्यापक और पूरी तरीके से समझना चाहते है तो इसे कैसे गलत मान कर, इसे स्त्री विरोधी मान कर हम क्यों इतनी हाय तौबा मचाते है ? क्या दोनों पक्ष को देखना जुर्म है ?
अब जैसे इस बात को ही देखिये कि नारियो के बिगड़ते स्वरूप को दिखाना मतलब दोनों के बीच “वैमनस्य” बढ़ाना होता है. ऐसा सोचने वाले ये भूल जाते है कि वैमनस्य की भूमिका तो उसी दिन पड़ गयी जिस दिन नारीवाद की अवधारणा का इस देश में उदय हुआ. स्त्रियों के दुर्दशा की आड़ लेते हुए एक उस समाज का निर्माण शुरू हो गया जिसमे मर्द शक्ल से तो मर्द ही लगता है पर आत्मा का स्त्रीकरण हो गया. इस की आड़ में ऐसे कानूनों का निर्माण हो गया जिससे समाज में ठहराव के बजाय अराजक तत्त्वों की प्रधानता हो गयी. नतीजा ये हो गया की शादी जो आपसी समझ और विश्वास पे टिके रहते थे आज पूर्णतयः एक “कांट्रेक्ट” हो गया है. शादियों से पहले इस तरह के कागजात पे दस्तखत होने लगे है जैसे व्यापारिक लेन देन के वक्त होता है!!! स्त्रियो के उनके जरुरी अधिकार दिलाना तो चलिए समझ में आता है पर इसको एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करके समाज का खतरनाक ढंग से ध्रुवीकरण कर देना आगे आने वाले वक्त में काफी घातक होगा. क्या पता छब्बीस जनवरी को राजपथ पे स्लट मार्च भी होने लगे ? क्या पता स्लट मार्च का आगे आने वाले समय पे राष्ट्रीयकरण हो जाए ? क्या पता “गुलाबी चड्ढी” देश का राष्ट्रीय प्रतीक बन जाए ?
बहरहाल वैमनस्य बढ़ाने वाली बात तो मुझे यही कहना है कि ““एक पारदर्शी व्यवस्था बनायीं जाये” जिसमे अगर पुरुष के कुकर्मो की व्यापक जांच पड़ताल हो तो स्त्री के दोषों का भी सूक्ष्म परिक्षण हो. अगर पुरुष को हर चैंनल से गुज़ारा जा सकता है तो अपने को पुरुष से हर मामले में बराबर समझनेवाली फिर भी स्त्री नाम पर हर अलग सी सुविधा की डीमांड करने वाली जात को क्यों ना हर उन कठिन परिस्थितियों उन मुश्किलात से गुज़ारा जाए जिनसे एक आम पुरुष गुजरता है. तभी ना खालिस पारदर्शिता आएगी. ऐसे थोड़ी ना आएगी कि एक को विशेष सुविधाए देकर बाकियों को सड़ने के लिए छोड़ दो. ऐसे पारदर्शिता आएगी क्या कि बराबर होने का दंभ होने के बावजूद आप के लिए अलग कानून हो जिसमे आप जब चाहे झूठा आरोप लगा कर शोषण करे ? नारी मुक्ति के नाम पे स्त्री पुरुषो के बीच ज़हर मत घोलो. ये अच्छा है कि अब पुरुषो में अपने अधिकार को लेकर और अपने सेल्फ रेस्पेक्ट को लेकर चेतना जगी है..फेमिनिस्ट वर्ग का अहम् और वर्चस्व तब टूटेगा जब पुरुष भी अपने अधिकारों के लेकर सचेत हो और उन पर उसी चेतना से विचार विमर्श करे जैसा कि फेमिनिस्ट बिरादरी करने का दंभ पालती है (पर करती नहीं) और तब जाके एक आदर्श पारदर्शिता स्थापित होगी. वैमनस्य तो फेमिनिस्ट बिरादरी ने बढाया है नारी मुक्ति के नाम पे औरतो को कोर्ट के दहलीज़ में खड़ा करके कुछ सही और ज्यादा गलत मुकदमो के साथ!!!! पुरुष के अधिकारों के स्थापित होने के बाद ही एक सही संतुलन स्थापित होगा. इससें वैमनस्य बढेगा एक गलत सोच है. जब वैमनस्य बढ़ने के बारे में आपने तब नहीं सोचा जब स्त्री अधिकारों के नाम पे मनमाने कानून बनाये जा रहे थे तो पुरुष अधिकारों की बात को लेकर इस प्रकार का भय क्यों उत्पन्न किया जा रहा है ?
कहा जाता है कि भारत में स्त्री अधिकारों ने उन्हें इतनी छूट दे दी कि अब उन्हें लगने लगा है कि वे किसी की मिल्कियत नहीं. इससें पहले उन समाजो की कडुवी सच्चाई नहीं देखी गयी जहा स्त्रिया वे किसी की मिल्कियत अब नहीं रही है इस भ्रम में जीती है. उन समाजो की चिंतनीय दशा पे गौर नहीं किया गया जहा ऐसी सोच पहले से व्याप्त है. खैर यहाँ वो किसी की मिल्कियत है ऐसा कह कर बरगलाने वालो के तमाशो के बीच भी ये भारतीय समाज विदेशी समाजो से बेहतर स्थिती में है जहा शादी के कुछ एक घंटो के बाद आपसे सहमती से तलाक हो जाता है . विडम्बना यही है कि तुम किसी की मिल्कियत नहीं हो कह के इस भारतीय समाज को उन समाजो के समकक्ष लाया जा रहा है जहा मेंटल हॉस्पिटल ज्यादा है बजाय सुलझे हुए घरो के.
रहा सवाल उनके सम्मान करने का या उन्हें अधिकार देने का तो मै नहीं समझता कि भारत देश में हिन्दू संस्कृति के बीच उन्हें जितना सम्मान, इज्ज़त, प्रेम और स्नेह मिला वो किसी और संस्कृति में या किसी अन्य समाज और संस्कृति के बीच कभी मिल सकता है..यहाँ इस भारत देश में इन्हें इतना प्रेम सम्मान मिला है कि ढूँढने निकल जाए तो हर मोहल्ले में आपको जोरू के ग़ुलाम मिल जायेंगे जिनकी पत्निया अगर दिन को रात कह दे तो क्या मजाल उनके पति दिन कह दे..
इसलिए नारी मुक्ति के नाम पर जहर मत बाटिये बस.
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