
एक दूजे के लिए: एक बेहतरीन संगीत प्रधान फ़िल्म
अस्सी के शुरुआत में सिलसिला, लव स्टोरी, लावारिस, नमक हलाल, एक दूजे के लिए, सागर और बेताब जैसे थोड़ी बहुत संगीत प्रधान फिल्मे आई पर ज्यादातर हिस्सा फूहड़ संगीत से भरा रहा. अच्छे रोमांटिक गीतों ने जोड़ पकड़ा अस्सी के दशक में खत्म होते होते जब क़यामत से कयामत तक, तेजाब और आशिकी जैसी फिल्मे आई. फिर अच्छे रोमांटिक गीतों की लाइन लग गयी. ये अलग बात है कि आप गौर करे बोल कोई बहुत उच्च श्रेणि के नहीं थे लेकिन संगीत बहुत कर्णप्रिय होता था. इतना कि ह्रदय “धक् धक् ” करने लगता था. कुछ याद आया !
अस्सी के दशक की ही कुछ और उल्लेखनीय संगीतमय फिल्मे थी उमराव जान, बाज़ार, उत्सव , निकाह , तवायफ , नदिया के पार, इजाजत , अर्थ और साथ साथ. सत्तर के ही दशक में गीतों का जनाज़ा निकालना शुरू हुआ. पर फिर भी इस दशक में गुलज़ार, मजरूह और आर डी बर्मन, वनराज भाटिया, श्यामल मित्रा, ऍम जी हशमत, गुलशन बावरा ,कल्यानजी आनंदजी, इन्दीवर के सक्रिय रहने के कारण आंधी, अभिमान ( एस डी बर्मन) ,अमर प्रेम, गमन (जयदेव ) ज़ंजीर इत्यादि फिल्मो में अच्छा गीत संगीत सुनने को मिला.
अगर सत्तर के दशक में भड़भडिया संगीत आया तो अस्सी के दशक के आते आते दिअर्थी गीतों की बाढ़ आ गयी जिसके शुरुआत मुझे लगता है विधाता गीत से हुई जो नब्बे के दशक में खलनायक के चोली गीत के साथ चरम पर पहुच गया. ऊपर से डेविड धवन और गोविंदा की फिल्मो ने कोढ़ में खाज का काम किया. चोली गीत की बात कि तो ये सच है जब ये गीत बजता था तो बहुतो के लिए परेशानी का सबब बन जाता था. और ये स्थिति आज भी है. मुश्किलें और बढ जाती जब ऐसे गीतों की धुनें आकर्षक होती है. ऐसा ही गीत खुद्दार में भी था. नौबत ये आई कि इन गीतों को या तो लगभग बैन करना पड़ा और जिस तरह डी के बोस गीत को संशोधित करके लोग बजा रहे है वैसे ही अगर अब विविध भारती पर खुद्दार का कभी कभी भूल भटके बजता है तो संशोधित वाला ही बजता है.
इस तरह के गीतों से तो यही पता चलता है कि भले आदमी के लिए जीवन में टिके रहना बहुत मुश्किल है. सोचिये कि एक जबरदस्त कामयाब गीतकार आनंद बक्षीजी को भी हालात से समझौता करके एक दो इस तरह के एम्बैरस कर देने वाले गीत लिखने पड़े. यही इन्दीवर जी के साथ भी हुआ. मजरूह साहेब जरूर चालाकी दिखा के ऐसे गीतों से कन्नी काट गए. पर मजरूह के कलम की सफाई देखिये की लगभग उन्होंने भी आज से साठ साल पहले वोही बात कही जो चोली वाले गीत में है. पर देखिये कि किस तरह से उन्होंने गरिमा का ख्याल भी रखा और बात भी कह दी : आँचल में क्या जी ..अजब सी हलचल . इस गीत के शुरू होने से पहले अमीन सयानी और नूतन की वार्ता भी है.

प्रेम रोग: अच्छी कहानी के साथ अच्छा संगीत
बहरहाल हम नब्बे के दशक के गीतों के स्तर की बात कर रहे थी कि वे बहुत स्तरीय नहीं थे. ये तो गनीमत है कि आनंद बक्षी , गुलज़ार, मजरूह ,फैज़ अनवर, रहत इन्दोरी और कतील शिफाई जैसे गीतकार सक्रिय थे नहीं तो और डी के बोस नब्बे वाले पैदा होते. अब तो हालात और बुरे है. आज के गीत सुने तो लगता है कोई हथौड़े से आपके सर पे प्रहार कर रहा है. गीत के बोलो कि तो खैर डी के बोस ही हो गया है. आजकल तो इन गीतों में जिस तरह से लोग सीधे सीधे वर्णन करने लगे है उससें तो ये भ्रम हो जाता है कि क्या वाकई सेंसर बोर्ड नाम की कोई संस्था काम कर रही है? एक गीत तो आजकल ऐसा बज रहा है जिसे सुनिए तो लगता है कि जैसे बीयर उद्योग वालो ने गीत को लिखा हो. और शर्मनाक बात ये है कि ये गीत युवाओ को खुले आम प्रेरित करता है बीयर पीने को! हद हो गयी है. एक वक्त ऐसा था जब धूम्रपान और शराब पीने के दृश्य वर्जित थें परदे पर पर आज देखिये कि खुले आम ऐसे कई गीत है जो प्रेरित कर रहे है पीने पिलाने को.
इक्कीसवी सदी के वर्तमान दशक की बात करे तो अब दिअर्थी शब्द का इस्तेमाल करना बेमानी लगता है. इन गीतों में कम से कम ये तो था कि कुछ को समझ में आते थे और कुछ को नहीं. आज के प्रयोगवादी दौर में जब सब कुछ खुल के कहा जा रहा है तो दिअर्थी शब्द का क्या मतलब रह जाता है. कुछ नए गीतकार जैसे नीलेश मिश्र, स्वानंद किरकिरे और प्रसून जोशी ने कुछ बेहतर गीत लिखने की कोशिश की तो पुरानी पीढ़ी के गीतकारो में गुलज़ार , जावेद अख्तर, सईद कादरी और राहत इन्दोरी ने बेहतर गीतों की परंपरा को कायम रखने की ईमानदारी से कोशिश की है. ये अलग बात है आज के नंगई के इस दौर में जहा सब कुछ मार्केट निर्धारित करता है ये बताना मुश्किल है कि आगे आने वाले समय में हम प्रयोगों के नाम पर और क्या क्या देखने और सुनने वाले है.

तुम मिले: इसमें कुछ तो अच्छे गाने है
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हिंदी सिनेमा में जब एक्शन पैक्ड फिल्मो का दौर शुरू हुआ अमिताभ साहब के साथ तो गीत वहीँ से माधुर्य खोने लगे… और चोली के पीछे की सच्चाई जानने की कोशिश से पहले हिंदी सिनेमा जुम्मा से चुम्मा मांग चुका था और वोह भी सुपरहिट अंदाज में ,,,,, तो साहब गीत तब से हमसे कट गए जबसे हमने उनकी जगह फिल्मों में कुछ और खोजना शुरू कर दिया…आज हम सिनेमा में घटिया क्रिएटीविटी, नकली यथार्थ और कामुक देख खोजते हैं तो सब मिलता है बस मधुर काल जाई गीत और संगीत नहीं मिलते
वैभवजी सबसे पहले इस बात के लियें आपको धन्यवाद कि आपने लेख तो पढ़ा ही साथ में प्रतिक्रिया भी दी 🙂 आप का कहना बिल्कुल सही है कि एक्शन पैक्ड फिल्मो के आगमन ने अच्छे गीत संगीत के लिए काल का काम किया ..मगर हमे ये नहीं भूलना चाहिए कि कुर्बानी या जंजीर या शोले जो कि विशुद्ध रूप से एक्शन मूवीज थी इसमें अच्छा गीत संगीत था.इसकी वजह ये थी कि निर्माताओ के पास एक अपनी सोच तो थी ही पर साथ में उनकी टीम में जो भी शामिल थे उनके पास रचनात्मकता का सम्मान करने का हुनर भी था. आप “ब्लैकमेल ” देखिये या “जानी मेरा नाम” ..दोनों एक्शन प्रधान थी पर साथ में गीत संगीत भी जबरदस्त था …सवाल सिर्फ एक्शन का ही नहीं वैभव भाई..मुद्दा ये है कि जैसा आप कह भी रहे है कि घटिया क्रेअटिविटी ने लगन और काबिलियत को पीछे छोड़ दिया..फिल्म मेकिंग अब सौ प्रतिशत पैसा चूसने का माध्यम बन गया है .. आज देखिये ना क्या हो रहा है..फ़िल्म चले ना चले पर संगीत के राइट्स हो या ओवरसीस राइट्स हो पैसा बना के भाई लोग मस्त है..गीत संगीत दिल को छुए या ना छुए पर एक ख़ास वर्ग के लोगो का मनोरंजन जरुर हो.. आज नो वाईन , आज नो लागा, आज पीयेंगे शैम्पेन
बा बा बा बूजिंग डांसिंग एंड वे क्रुज़िंग …..ये है ख़ास वर्ग का गीत
खैर छोड़िये बातें बहुत है कहने को..आप को हम ये गीत सुनाते है..सुनिए और मस्त हो जाइए ..तेरा हिज्र मेरा नसीब है..तेरा ग़म ही मेरी हयात है ..