
शाहरुख़ खान:एक कलाकार या और कुछ ?
शाहरुख़ खान को कलाकार मानने की गलती न करे !! स्टार हमेशा एक्टर नहीं होता !
शाहरुख खान को कुछ लोग एक्टर मानने की ग़लतफ़हमी पाले हुए है.पर मै ऐसी ग़लतफ़हमी का शिकार नहीं हू.शाहरुख जैसे फूहड़ अभिनय करने वाले का इतने देर तक फ़िल्म इंडस्ट्री में बने रहना सिर्फ यही साबित करता है की अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान. उसकी उपस्थिति यही साबित करती है की थोड़ी से काबिलियत और जबरदस्त मार्केटिंग स्किल्स अगर आपके पास है तो समझिये स्टारडम आपसे दूर नहीं.उसकी उपस्थिति यही साबित करती है की आज की फ़िल्म इंडस्ट्री में एक्टिंग की समझ वालो की पूछ नहीं वरन उनकी पूछ है जो पैसा बना सकते हो अपने दम पर फटाफट !! जो यह दावा करते है की शाहरुख एक एक्टर है वो भूल जाते है स्टार होना और एक्टर होना दोनों में फर्क है. हर स्टार एक एक्टर भी हो यह जरुरी नहीं. और यह भी जरुरी नही की एक एक्टर स्टार भी हो.यद्धपि यह जरुरी नहीं कि कोई अगर हट्टा कट्टा हो और साथ में एक चिकना चुपड़ा चाकलेटी चेहरा हो तो वो एक सफल स्टार हो जाएगा लेकिन आज के परिदृश्य में ऐसे लोगो कि संभावना स्टार होने कि ज्यादा है अगर आप के पास गणित बिठाने का शैतानी दिमाग हो तो. शाहरुखो ने इस बात को समझकर एक लम्बी इन्निंग खेली है फ़िल्म इंडस्ट्री में. मै तो चार्ली चैप्लिन ,रवि वासवानी या रघुवीर यादव की काबिलियत और संघर्ष करने की क्षमता का या टिके रहने का क्षमता का ज्यादा कायल हू बजाय शाहरुख जैसे तथाकथित कलाकार की प्रतिभा का सम्मान करने के. ये प्रतिभा के धनी वास्तविक कलाकार किसी भी दृष्टिकोण से सिनेमा जगत के ग्लेमरस कैनवास पर शारीरिक सरंचना के हिसाब से फिट नहीं बैठते है मगर इन्होने जो ऊंचाई हासिल की है वो हमारी खान ब्रिगेड अपनी सिक्स पैक एब्स और चिकने चेहरे के वाबजूद भी हासिल करने को तरस जायेगी पर नसीब न होंगी !!
मुझे ये बोध हो रहा है क़ि बदन दिखा के पैसा कमाना मानव-जीवन का एकमात्र परम-पुरुषार्थ है हमारे आज के युग में.इसका नतीजा यह क़ि सही लोग तो सफलता क़ि दौड़ में पहले ही हार गए. क्योकि ये तो यह मानने से रहे ” लाइफ इस नेम ऑफ़ कोम्प्रोमिसेस”.मै यह देख रहा हू क्षेत्र कोई भी हो सफल होने के मापदंड बदल गए है. चमचागिरी ,सौर्सपानी या और अन्य शोर्ट कट अब ज्यादा कारगर है बजाय प्रतिभा के.बताइए रेलवे और अन्य महत्त्वपूर्ण संस्थानों द्वारा की जाने वाली भर्तिया भी अब पहले से तय होती है.इससे यही होता है की सही प्रतिभाये पहले ही दम तोड़ देती है. भारत में प्रतिभायें यूं ही अगर बरबाद न होती तो ये देश न जाने कहा पहुँच चुका होता.यही तो खूबी है इस देश में कि जिनको जहा होना चाहिए वहा वो नहीं है.या ये कहू कि सही जगह तक सही लोगो के पहुचने के रास्ते बंद कर दिए गए है !! जिनको अच्छे पदो पर होना चाहिए वो या तो मुंबई में टैक्सी चला रहे है या नाई की दूकान पर हजामत बना रहे है.

ओमपुरी "तमस " में
कमाल देखिये कि जहा एक बड़ा बौद्धिक वर्ग कंगाली और लगभग भुखमरी का शिकार है वहा पर एक बड़ा वर्ग कम उम्र के लौंडे लौंडियो का कपडे उतार के धका धक् नोट काट रहा है मायानगरी और अन्य जगहों में सिर्फ !! मानो यह बता रहा हो “पढोगे लिखोगे तो होगे ख़राब ” :-)) बदन बिकता है दिमाग नहीं यह आज के युग का सत्य है !!! The lesser you use the brain ,the greater becomes the chance to become successful in our times !!! शाहरुख पे वापस आते है. कहा जाता है की उन्होंने बिना फ़िल्मी बैकग्राउंड हुए टिक कर अपनी जगह बनाई.तो कौन सा तीर मर लिया उन्होंने.दर्जनों उदाहरण आपको फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे मिल जायंगे जिन्होंने कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड न होने के वाबजूद न सिर्फ जगह बनाई वरन नए मापदंड भी स्थापित किया.BR Chopra या गुरुदत्त या लता या अमिताभ किस फिल्मी बैकग्राउंड से है? शाहरुख़ का टिके रहना प्रोत्साहित नहीं करता.आपको उल्टा कुंठित करता है.उसका टिके रहना एक नवोदित अभिनेत्री को यही सन्देश देगा की सफल होना है तो रूह से जिस्म तक आओ.आपकी सफलता किन मूल्यों को जन्म दे रही है यह बहुत महत्वपूर्ण है.शाहरुख़ की सफलता आपको खोखलेपन का उपासक बनाती है. दनादन छक्के लगाने या चौका मरने वाले युसूफ पठान या मिस्बाह की ऊंचाई आज की हमारी युवा पीढ़ी को बड़ा आकर्षित करता हो पर जिन्होंने रिचर्ड्स ,संदीप पाटिल ,बाथम ,बार्डर या कपिल को चौका छक्का मारते देखा हो उसे समझ में आएगा के ये आजकल के हीरो कितने खोखले है ! अब जो नसीरुद्दीन शाह या ओमपुरी जैसे लोगो की प्रतिभा का कायल हो वो भला शाहरुख़ जैसे लोगो की फटीचर एक्टिंग की क्यों कद्र करेगा जो बात तो “method acting ” की करते है पर एक्टिंग किस चिड़िया का नाम है यह भी नहीं जानते.एक्टिंग क्या है यह जानना है तो नसीर साहब की फ़िल्म देखे.जाने भी दो यारो अगर देखे तो यह समझ में आएगा की किस तरह दृश्य में जान डालना है.द्रौपदी का चीरहरण इतना मनोरंजक हो सकता है यह नसीर भाई के ही बस की बात है.

लगे हाथ कला और व्यवसायिक फिल्मो का फर्क भी समझ ले.रहा सवाल कला और व्यवयसायिक फिल्मो के फर्क का तो फर्क तो हमेशा रहेगा क्योकि दोनों का दर्शक वर्ग अलग है.कला फ़िल्म या समांतर सिनेमा या कहू कोई भी कला जो सिर्फ बौद्धिक ऐय्याशी को जन्म देती हो उसका खत्म हो जाना ही अच्छा है.अमिताभ बच्चन ने कुछ समय पहले एक हास्यास्पद सी बात कही थी कि हमारे यहाँ हालीवूड सरीखी फिल्मे इसलिए नहीं बन सकती क्योकि हमारे यहाँ वो दर्शक वर्ग नहीं है.मै इस बात से बिल्कुल असहमत हू.बिल्कुल बन सकती है और हम उस तरफ बढ़ रहे है जहा नए अनछुए विषयो पर दिलचस्प फिल्मे बन रही है.कला फिल्मो के अंत पर विधवा विलाप करना बेकार है.आप बना सकते है तो बनाये कोई पाबन्दी नहीं लेकिन मेरा सोचना अलग है.मेरा कहना यह है कि क्यों न हम गंभीर विषयो को प्रस्तुत करने का तरीका बदल दे.हा अगर कला फ़िल्म का फिल्मकार होने का अहम् पालना है तो अलग बात है. या अवार्ड वगैरह जीतना हो अन्तराष्ट्रीय मंच पर तो अलग बात है.
लेकिन अगर आप दर्शक तक अपनी बात पहुचाने के लिए उत्सुक है और इस प्रति खासे गंभीर है तो मै यही कहुंगा थोड़ी और मेहनत करे और उन तत्वों को ध्यान में रखे जिससे न तो गंभीरता ही कम हो और न वो हलके फुल्के तत्त्व जो उत्प्रेरक कि तरह फ़िल्म में उपस्थित रहे. हमारे साथ दिक्कत यह है कि हमारे यहाँ के निर्देशक इतने ज्यादा फालतू गणित लगाते है कि फ़िल्म का कचूमर निकल जाता है. गांधी जो कि एक विदेशी निर्देशक रिचर्ड एटनबरो ने बनायीं और तकरीबन हम सब ने कई बार देखी है अगर भारतीय निर्देशक बनाते तो इतना melodramatic तत्त्व डाल देते कि historicity शुन्य हो जाती या इतने गंभीर हो जाते कि दर्शक आधे में ही दम तोड़ देता .ख़ुशी इस बात कि है कि शेखर कपूर या मुन्नाभाई सिरीज के राजकुमार हिरानी को इस बात कि समझ है कि कला फिल्मो के मोह माया से ऊपर उठकर या समांतर सिनेमा के अंत के ऊपर हो रहे हो हल्ले से ऊपर उठकर उन फिल्मो का निर्माण किया जिसमे व्यवसायिक और कला दोनों के सिनेमा के तत्त्व बराबर मात्र में सही तरीके से मौजूद है. इसी कला को और सूक्ष्म करना है.

रघुबीर यादव:एक जबरदस्त कलाकार
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